छोटा पर्दा

छोटे पर्दे से गायब होता साहित्य
प्रभु झींगरन

जिन्हें तमस, बुनियाद और हम लोग जैसे धारावाहिकों की तनिक भी स्मृति है, उनके लिए आज का छोटा पर्दा देख पाना पीड़ादायक है। ८० और ९० के दशक में साहित्यिक कृतियों पर जितने धारावाहिक और टेलीफ़िल्म आदि बने, वे आज के दर्शक के सामने सीधा सवाल रखते हैं कि टेलीविजन से साहित्य क्यों गायब होता गया, होता जा रहा है?

दूरदर्शन को छोड़ दें तो आज सैकड़ों चैनलों की चकाचौंध में कहीं कोई ऐसा नाम याद नहीं आता, जहाँ भूले से भी कोई स्तरीय साहित्यिक कृति पर आधारित कोई कार्यक्रम देखने को मिल जाए। यह सन्नाटा भयावह और साज़िश भरा है। यहाँ प्रवचन और पाठ हैं, व्यंजन हैं, टेलीशॉप, लॉटरी और ईनाम वगैरह हैं, सैरसपाटा है, चुटकुले हैं, फूहड़ हास्य है, नूरा-कुश्ती है, सास-बहू की साज़िशों की पाठशाला है, सबसे ऊपर फ़िल्मी फास्ट-फूड है, उससे ऊपर विज्ञापन है और उससे भी ऊपर है माई-बाप यानी टी.आर.पी.। यहाँ नहीं है तो ज़िंदगी का यथार्थ और संवेदना! क्यों कि टी.वी. चैनलों की नज़र में हिंदुस्तान एक बड़ा बाज़ार है और कुछ भी नहीं। सुधीश पचौरी के शब्दों में... असली चीज़ है पैसा। चंद्रकांता का चूरन करना हो तो कर देंगे। गोदान का गोबर करना हो तो कर देंगे। जनता को चाहिए मनोरंजन, हमें चाहिए पैसा। तुम्हें क्या चाहिए? या फिर मनोहर श्याम जोशी के शब्दों में- इलम, चिलम, फ़िलम में समाहित है समूचा भारतीय प्रसारण जगत।

कहीं किसी रोज़ का अख़बार उठा लीजिए और टेलीविजन- फ़िल्म दिग्दर्शिका वाला पृष्ठ खोलकर यह जानने की कोशिश कीजिए कि कहीं किसी चैनल पर कोई सुरुचिपूर्ण, साहित्यिक कार्यक्रम आज देखने को मिल सकता है क्या? और यकीन मानिए, जो आपके हाथ लगेगा, वह निराशा के सिवाय और कुछ नहीं होगा। दूसरे चरण में फिर एक निगाह चैनलों की लंबी सूची पर डालिए और यह जानने की कोशिश कीजिए कि क्या भारतीय सांस्कृतिक विरासत, संगीत, नाटक, शिल्पकला आदि विषयक कोई कार्यक्रम देखने को मिल सकता है? आपको फिर निराश होना पड़ेगा। इस शून्यता के दूरगामी परिणाम होने जा रहे हैं और जिसका शिकार आने वाली पीढ़ियाँ होंगी। दिक्कत यह है कि प्रसार भारती की प्राथमिकताओं में यह सब कुछ है, लेकिन समस्या यह है कि आज के टेलीविजन दर्शक की प्राथमिकताओं में दूरदर्शन काफी पीछे है अथवा है ही नहीं, जिसकी मोटी वजहों में केबिल चैनलों की दादागिरी, खराब प्रसारण, गुणवत्ता और कार्यक्रम प्रस्तुति में फूहड रस्म-अदायगी है।

चैनलों की अंधी दौड ने एक और गंभीर और दीर्घगामी ख़तरा पैदा कर दिया है और वह है भाषाई प्रदूषण! लोगों का, ख़ासतौर पर युवा पीढ़ी का भाषाई संस्करण नष्ट-भ्रष्ट करने में ये चैनल पूरी निष्ठा और समर्पण भाव से लगे हुए हैं। क्या उच्चारण, क्या वाक्य विन्यास, सब कुछ खुलेआम भ्रष्ट! यहाँ सुश्री सुसरी हो जाता है तो क्षेत्र, छेत्र!

सन २००१-२००२ में पं. विद्यानिवास मिश्र ने बतौर सदस्य प्रसार भारती बोर्ड, हिन्दी और अन्य प्रमुख भारतीय भाषाओं की चुनी हुई कृतियों पर धारावाहिक और टेलीफ़िल्म आदि बनाने की बात उठाई थी। इससे पूर्व असंगठित तौर पर छिटपुट रूप से ऐसे विषयों पर काम तो होता ही रहता था, पर यह एक अच्छा संकेत और शुरुआत थी। भोपाल में आयोजित पहली कार्यशाला में, प्रथम चरण में बनी ६-७ ऐसी फ़िल्मों का प्रदर्शन और विश्लेषण किया गया। कार्यशाला में लखनऊ केन्द्र की प्रस्तुति प्रसाद जी की कहानी पर आधारित टेली फ़िल्म मधुआ की ख़ासी चर्चा हुई, पर हैरत की बात ये है कि आज तक यह फ़िल्म प्रसारण का मुँह नहीं देख पाई।

इसी दौरान बीच बहस में (निर्मल वर्मा),  डिप्टी कलेक्टरी (अमरकांत),  बुद्धू का काँटा (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) सहित कई अमर कृतियों पर १४-१५ फ़िल्में अलग-अलग केंद्रों ने बनाई। लेकिन मोटे तौर पर ये जल्दबाज़ी में बनाई गई फ़िल्में थीं। तमाम क्षमताओं के बावजूद फ़िल्में बनाने के लिए निर्देशकों को वांछित तकनीकी संसाधन और सुविधाएँ उपलब्ध नहीं कराई गईं। उन्हें कदम-कदम पर समझौते करने पड़े और समझौतों की पीड़ा फ़िल्मों में दिखाई भी दी। वर्ष २००५-०६ में भारत की कालजयी कृतियों पर आधारित कथा सरिता नाम से महत्त्वाकांक्षी योजना लागू की गई। इस योजना की सबसे बड़ी खामी ये थी कि योजना में मात्रा (कहानियों की संख्या) पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया, गुणवत्ता पर कम। ऐसा सभी बड़े लेखकों और सभी भारतीय भाषाओं को सम्मिलित करने के लिए ही किया गया होगा, वरना ८११ कहानियाँ चुनने का कोई मतलब नहीं था।

यही बात लागू होती है फ़िल्म निर्माण के लिए साहित्यिक कृतियाँ चुनने वाली समिति के साथ। उन माननीय सदस्यों की योग्यता, अनुभव या नियत पर शक किए बगैर, यह तथ्य अपनी जगह खड़ा है कि किन कथाओं का प्रभावी रूपांतरण सम्भव है और इसमें कितनी तकनीकी जटिलताएँ आएँगी, यह माध्यम को समझने वाला कोई सुदीर्घ अनुभव ही बता या तय कर सकता है।

एक साहित्यकार मीडियाकर्मी का कहना है- साहित्यिक कार्यक्रमों के दर्शक सदैव सीमित रहते हैं। दूसरे, कथा सरिता में न केवल नये पुराने कालजयी साहित्य को शामिल किया गया है, बल्कि ऐसी कृतियों को भी लिया गया है जिनके कालजयी होने की संभावना है। दूरदर्शन के दक्ष फ़िल्मकार रामेंद्र सरीन कई ऐसी फ़िल्मों का निर्देशन कर चुके हैं और इन दिनों प्रियंवद की कहानी बहुरूपिये का निर्देशन कर रहे हैं। उनका मानना है- साहित्यिक कार्यक्रमों के निर्माण में करोड़ों रुपए खर्च किए जा रहे हैं, पर इसकी मार्केटिंग और समुचित प्रचार-प्रसार के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।

आम दर्शक की नज़र से देखें तो ज़्यादातर केबिल सेवाओं वाले तमाम प्रावधानों के बावजूद दूरदर्शन नहीं दिखाते और दिखाते हैं तो काफी खराब गुणवत्ता वाला प्रसारण होता है। शहरी छतों से एंटीना पहले ही गायब हो चुकी थी, अब गाँवों और क़स्बों में भी यही हो रहा है। दूसरी लुभावने पैकजों वाली सेवाओं के मुकाबले दूरदर्शन का डी. टी. एच. पनप नहीं पाया। परिणाम स्वरूप ऐसे दर्शकों की भी पर्याप्त संख्या है जो चाहकर भी दूरदर्शन नहीं देख पाते हैं। कुल मिलाकर पिछले ५-६ वर्षों में दूरदर्शन का जनाधार तेज़ी से नीचे खिसका है और दूरदर्शन के दर्शक लगातार कम होते गए। सच तो यह है कि जो दर्शक हैं भी, वो भी दूरदर्शन से मजबूरी में जुड़े हैं।

मीडिया के घनघोर व्यवसायीकरण का सच यह है कि भारतीय दर्शक की रुचि को उपभोक्तावादी साजिश के तहत लगातार प्रदूषित और भ्रष्ट किया जाता रहा है, और अब तो चैनलों के बीच इस बात की होड-सी लगी हुई है कि कौन जनता को कितना ज़्यादा बेवकूफ बना सकता है।

एस.एम.एस. के खेल में लुटा-पिटा दर्शक हैरान परेशान है। इससे बेफ़िक्र चैनल कहते हैं जो बिकेगा, बेचेंगे। जैसा बिकेगा, बेचेंगे। दर्शक मजबूर हैं, जो भी परोसा जा रहा है उसे खाने के लिए। ऐसे में दूरदर्शन के साहित्यिक कृतियों पर आधारित आधे-अधूरे प्रयास कोई ख़ास मायने नहीं रखते। पंगु प्रसार भारती के सबसे बड़े जनप्रसारक समूह के पास अपना कोई विशेष विभाग-प्रमुख वर्षों से नहीं है।

भारत की १५ भाषाओं से चुनी गई कालजयी रचनाओं की ८११ कड़ियों में से ६८३ फ़िल्में बाहरी निर्देशकों को बनाने के लिए दे दी गई हैं परन्तु अपवाद छोड़ दें तो ऐसे प्रोजेक्ट कभी समय से पूरे नहीं होते, और अनुभव यह भी बताता है कि इन बाहरी निर्देशकों की रुचि जैसे-तैसे काम निपटा देने भर में ही होती है, क्यों कि उन्हें इस बात का अच्छी तरह से एहसास है कि दूरदर्शन के पास दर्शक नहीं हैं और दूसरे यहाँ की मंडी में हर तरह का माल खपाया जा सकता है। बेहतर होता कथा सरिता के लिए सीमित संख्या में हर भाषा से ५-७ कहानियाँ चुनी जातीं, लेकिन उन्हें मन से और योजनाबद्ध तरीके से बनाया जाता और ऐसे प्रोडक्शन के लिए वांछित सभी सुविधाएँ दूरदर्शन के अपने प्रोड्यूसरों को उपलब्ध कराई जातीं। फ़िलहाल कथा सरिता को इंतज़ार है एक और भगीरथ का।

धर्मयुग, साप्ताहिक-हिंदुस्तान, सारिका जैसी पत्रिकाएँ बन्द हुईं। हिंदी के अख़बारों के पास जगह का टोटा है, विविध भारती की आवाज़ एफ. एम. ने बंद कर दी। फ़िल्म जगत से कुछ उम्मीद करना व्यर्थ है, अब छोटा पर्दा भी बाज़ारवाद का शिकार हो गया है। कभी-कभी लगता है कि हम एक मरते हुए मूल्यहीन समाज की ओर तेज़ी से बढ़ रहे हैं, जहाँ किताबों, पत्रिकाओं की जगह एस.एम.एस. साहित्य ले लेगा, यह होगा भारत का रचनात्मक स्तर पर कुंठित, तनावग्रस्त और रसविहीन समाज। वक्त आ गया है कि हवाई तरंगों के मार्फत फैलाए जा रहे प्रदूषण के खिलाफ संगठित रूप से आवाज़ उठाई जाए।

१ सितंबर २००८