गणेश
चतुर्थी के अवसर पर विशेष
भारतीय
संस्कृति के अभिन्न अंग गणेश
—मनोहर पुरी
भाद्रपद मास के शुक्ल
पक्ष की चतुर्थी को सम्पूर्ण राष्ट्र गणेश पूजन के
माध्यम से राष्ट्र नायक के प्रति अपनी श्रद्धा समर्पित
करता है। आज गणेश चतुर्थी अत्यन्त धूम धाम और भव्यता
से भले ही महाराष्ट्र से जुड़े हुए सीमांत प्रदेशों में
मनाई जाती हो परन्तु यह सत्य है कि समय के एक काल खंड
में यह जापान, चीन, कंबोडिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड,
मलाया और सुदूर मैक्सिको तक में इसका प्रचलन था। इन
देशों में बहुतायत से गणेश प्रतिमाओं का उपलब्ध होना
इस बात का प्रमाण है कि गणेश पूजा को विश्व व्यापी
मान्यता प्राप्त थी और उन्हें गणराज्य के अध्यक्ष के
रूप में स्वीकार किया जाता था।
स्वतंत्रता से पूर्व सन्
1900 में बाल गंगाधार तिलक ने गणपति की मूर्ति
प्रस्थापित करके भारत में इस पर्व को पुन: प्रतिष्ठित
किया। उन्होंने गणेशोत्सव को स्वाधीनता की पहचान बना
दिया। तब से स्थान स्थान पर गणेश जी की भव्य प्रतिमाएँ
स्थापित की जाती हैं। गणेशोत्सव गणेश चतुर्थी से अनंत
चौदस तक हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। हजारों
स्थानों पर भारतीय कला और संस्कृति की विभिन्न विभिन्न
छवियों के दर्शन होते हैं। रात्रि में सर्वत्र रंगारंग
कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं। अंतिम दिन बड़ी
धूमधाम से प्रतिमाओं का विसर्जन नदी तटों, सरोवरों
अथवा समुद्र में किया जाता है। दिन प्रति दिन गणेश
चतुर्थी को अधिक से अधिक भव्यता से मनाने का प्रचलन
बढ़ता ही जा रहा है।
गणेश भारतीय संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। प्राचीन काल
से हिन्दू समाज कोई भी कार्य निर्विघ्न सम्पन्न करने
के लिए उसका प्रारम्भ गणपति की पूजा से ही करता आ रहा
है। भारतीय संस्कृति एक ईश्वर की विशाल कल्पना के साथ
अनेकानेक देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से फलती फूलती
रही है। सब देवताओं की पूजा से प्रथम गणपति की पूजा का
विधान है। स्कंद पुराण के अनुसार जो भक्ति-पूर्वक गणेश
की पूजा करता है, उसके सम्मुख विघ्न कभी नहीं आते।
गणपति गणेश अथवा विनायक सभी शब्दों का अर्थ है देवताओं
का स्वामी अथवा अग्रणी। वेदों में 'नमो गणेभ्यो
गणपतिभ्वयश्चवो नमो नम:' अर्थात गणों और गणों के
स्वामी श्री गणेश को नमस्कार। इस संदर्भ में हिन्दू
शास्त्रों और धर्म ग्रन्थों में अनेकानेक कथाएँ
प्रचलित हैं। विभिन्न विभिन्न स्थानों पर गणेश जी के
अलग अलग रूपों का वर्णन है परन्तु सब जगह एक मत से
गणेश जी की विघ्नकारी शक्ति को स्वीकार किया गया है।
वाराह पुराण एवं लिंग
पुराण में वर्णन है कि एक बार ऋषि मुनियों ने असुरी
शक्तियों से ग्रसित होकर देवाधिदेव भगवान शंकर से
सहायता की प्रार्थना की। भगवान आशुतोष ने विनायक रूप
से श्री गणेश को प्रगट किया और अपने शरीर को कंपित कर
अनेक गणों की सृष्टि की, उनका अधिपति गणेश को नियुक्त
किया गया। शास्त्रों में गणेश जी के स्वरूप का वर्णन
करते हुए लिखा गया है-
वक्रतुंड महाकाय। सूर्यकोटि सम प्रभ।
निर्विघ्न कुरु मे देव। सर्व कार्येषु सर्वदा॥
अर्थात् जिनकी सूँड़ वक्र है, जिनका शरीर महाकाय है,
जो करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी हैं, ऐसे सब कुछ
प्रदान करने में सक्षम शक्तिमान गणेश जी सदैव मेरे
विघ्न हरें।
गणेश जी के जन्म के विषय
में भी अलग अलग कथाएँ हिंदुओं समाज में प्रचलित हैं।
वराह पुराण के अनुसार स्वयं शिव ने पंच तत्त्वों को
मिला कर गणेश का निर्माण बहुत तन्मयता से किया। वे
उन्हें अत्यंत सुन्दर और आकर्षक बनाना चाहते थे। वे
अत्यन्त सुन्दर बने तो देवताओं में खलबली मची क्यों कि
सब लोगों के आकर्षण का केन्द्र गणेश ही बन गए थे।
वस्तु स्थिति को भांप कर भगवान शिव ने गणेश के पेट का
आकार बढ़ा दिया और सिर को गजानन की आकृति का कर दिया
ताकि उनके सौन्दर्य और आकर्षण को कम किया जा सके। शिव
पुराण के अनुसार एक बार पार्वती ने अपने उबटन के मैल
से एक पुतला बनाया और उसमें जीवन डाल दिया। इसके
उपरांत उन्होंने इस जीवधारी पुतले को द्वार पर प्रहरी
के रूप में बैठा दिया और उसे आदेश दिया कि वह किसी भी
व्यक्ति को अंदर न आने दे। इसके बाद वे स्नान करने लग
गई। संयोगवश कुछ ही समय बाद शिव उधर आ निकले। उनसे
सर्वथा अपरिचित गणेश ने शिव को भी अंदर जाने से रोक
दिया। इस पर शिव अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने अपने
त्रिशूल से गणेश का मस्तक काट दिया। पार्वती ने यह
देखा तो वे बहुत दुखी हुईं। तब पार्वती को प्रसन्न
करने के लिए शिव ने एक हाथी के बच्चे का सिर गणेश के
धड़ से लगाकर उन्हें पुनर्जीवित कर दिया। तभी से गणेश,
गजानन, कहलाए। मत्स्य पुराण तथा अन्य अनेक ग्रंथों में
भी गणेश जन्म से जुड़ी ऐसी ही कथाएँ मिलती हैं। गणेश
के शिरच्छेदन की घटना चतुर्थी के दिन ही हुई थी।
ब्रह्मवैवर्त पुराण के
अनुसार पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं श्री
कृष्ण ने उनके गर्भ से जन्म लिया था। गणेश के जन्म
लेने पर पार्वती ने सभी देवी देवताओं को अपने यहां
निमंत्रित किया ताकि वे नवजात शिशु को आशीर्वाद दे
सकें। शनि अपनी पत्नी के शाप के कारण वहाँ जाने में
झिझक रहे थे। शनि को उनकी पत्नी का शाप था कि यदि वह
किसी को भी देख कर मुग्ध हो जाएँगे तो उसका सिर तत्काल
फट जायेगा। काफी झिझक के पश्चात जब शनि वहां पहुँचे तो
न चाहने पर भी मुग्ध भाव से बालक को देखने लगे और शाप
का प्रभाव काम कर गया। तब देवताओं ने हाथी का सिर लगा
कर गणेश को पुनर्जीवित कर दिया। बालक की आकृति से
पार्वती बहुत दुखी हुई तो सभी देवताओं ने उन्हें
आशीर्वाद और अतुलनीय उपहार भेंट किए। इंद्र ने अंकुश,
वरुण ने पाश, ब्रह्मा ने अमरत्व, लक्ष्मी ने ऋद्धि
सिद्धि और सरस्वती ने समस्त विद्याएँ प्रदान कर उन्हें
देवताओं में सर्वोपरि बना दिया।
हिन्दू संस्कृति के
अनुसार मानव का शरीर पांच तत्त्वों से निर्मित है और
इन तत्त्वों के पाँच अधिदेव माने गए हैं-आकाश तत्त्व
के शिव देवता, वायु तत्त्व के भगवती देवता, अग्नि के
सूर्य देव और पृथ्वी तत्त्व के श्री गणेश देवता हैं।
गणेश जी की विचित्र आकृति के आध्यात्मिक संकेतों के
रहस्य को यदि भौतिक जगत के समरूप रख कर समझने का
प्रयास करें तो स्पष्ट होगा कि सनातन लाभ प्राप्त करने
के लिए गणेश अर्थात् शिव पुत्र अर्थात शिवत्व प्राप्त
करना होगा अन्यथा क्षेम एवं लाभ की कामना सफल नहीं
होगी। गजानन गणेश की व्याख्या करें तो ज्ञात होगा कि
'गज' दो व्यंजनों से बना है। 'ज' जन्म अथवा उद्गम का
प्रतीक है तो 'ग' प्रतीक है गति और गंतव्य का। अर्थात्
गज शब्द उत्पत्ति और अंत का संकेत देता है-जहाँ से आये
हो वहीं जाओगे। जो जन्म है वही मृत्यु भी है। ब्रह्म
और जगत के यथार्थ को बनाने वाला ही गजानन गणेश है।
गणेश जी को यदि गणपति
अर्थात किसी राज्य का राजा मान कर विश्लेषण किया जाए
तो किसी शासक के अच्छे लक्षण स्पष्ट दिखाई देने
लगेंगे। गणेश जी गज मस्तक हैं अर्थात वह बुद्धि के
देवता हैं। वे विवेकशील हैं। उनकी स्मरण शक्ति अत्यन्त
कुशाग्र है। हाथी की भ्रांति उनकी प्रवृत्ति प्रेरणा
का उद्गम स्थान धीर, गंभीर, शांत और स्थिर चेतना में
है। हाथी की आंखें अपेक्षाकृत बहुत छोटी होती हैं और
उन आँखों के भावों को समझ पाना बहुत कठिन होता है।
शासक भी वही सफल होता है जिसके मनोभावों को पढ़ा और
समझा न जा सके। आंखों के माध्यम से मन के भावों को
समझना सुगम होता है। यदि शासक की आँखें छोटी होंगी तो
उसके भावों को जान पाना उतना ही कठिन होगा। इस प्रकार
अच्छा शासक वही होता है जो दूसरों के मन को तो अच्छी
तरह से पढ़ ले परन्तु उसके मन को कोई न समझ सके।
गज मुख पर कान भी इस बात
के प्रतीक हैं कि शासक जनता की बात को सुनने के लिए
कान सदैव खुले रखें। यदि शासक जनता की ओर से अपने कान
बंद कर लेगा तो वह कभी सफल नहीं हो सकेगा। शासक को
हाथी की ही भांति शक्तिशाली एवं स्वाभिमानी होना चाहिए
अपने एवं परिवार के पोषण के लिए शासक को न तो किसी पर
निर्भर रहना चाहिए और न ही उसकी आय के स्रोत ज्ञात
होने चाहिए। हाथी बिना झुके ही अपनी सूँड की सहायता से
सब कुछ उठा कर अपना पोषण कर सकता है। शासक को किसी भी
परिस्थिति में दूसरों के सामने झुकना नहीं चाहिए। गणेश
जी को शुद्ध घी, गुड और गेहूँ के लड्डू बहुत प्रिय
हैं। इसीलिए उन्हें मोदक प्रिय कहा जाता है। ये तीनों
चीज़ें सात्विक एवं स्निग्ध हैं अर्थात उत्तम आहार
हैं। सात्विक आहार बुद्धि में स्थिरता लाता है। उनका
उदर बहुत लम्बा है। उसमें हर बात समा जाती है। शासक
में हर बात का रहस्य बनाए रखने की क्षमता होनी चाहिए।
गणेश जी सात्विक देवता
हैं उनके पैर छोटे हैं जो कर्मेन्द्रिय के सूचक हैं।
पैर जो गुण के प्रतीक हैं जो शरीर के ऊपरी भाग, जो
सत्व गुणों का प्रतीक है, के अधीन रहने चाहिए। चूहा
उनका वाहन है। चूहा बहुत चंचल और बिना बात हानि करने
वाला है। चूहा किसी बात की परवाह किए बिना किसी भी
वस्तु को काट कर नष्ट कर सकता है। इसी प्रकार कुतर्क
बुद्धि भी मन के सात्विक भाव को खंडित करने का प्रयास
करती है। यह मानव के राग-द्वेष आदि मानसिक गुणों से
भरे मन का प्रतीक है। चूहे जैसे चंचल मन पर बुद्दि की
भारी शिला रखनी आवश्यक है। वश में रह कर ही अमंगलकारी
तत्त्व को मंगलमय वाहन अथवा साधन बनाया जा सकता है।
गणेश जी की चार भुजाएँ
चार प्रकार के भक्तों, चार प्रकार की सृष्टि, और चार
पुरुषार्थों का ज्ञान कराती है। हाथों में धारण
अस्त्रों में पाश राग का; अंकुश क्रोध का संकेत है।
वरदहस्त कामनाओं की पूर्ति तथा अभय हस्त सम्पूर्ण
सुरक्षा का सूचक है। उनके सूप-कर्ण होने का अर्थ कि वह
अज्ञान की अवांछित धूल को उड़ाकर उन्हें ज्ञान दान देते
हैं। माया को हटाकर ब्रह्म का साक्षात्कार कराते हैं।
नाग का यज्ञोपवीत कुंडलिनी का संकेत है। शीश पर धारण
चन्द्रमा अमृत का प्रतीक है। फिर भी गणेश चतुर्थी को
चन्द्रमा के दर्शन करना वर्जित कहा गया है। इस संदर्भ
में एक पौराणिक आख्यान इस प्रकार है कि-एक बार गणेश जी
अपने मूषक पर सवार होकर ब्रह्मलोक से चन्द्र-लोक होते
हुए मर्त्यलोक आ रहे थे। उनके स्थूलकाय शरीर, गजमुख,
मूषक वाहन इत्यादि की विचित्रताओं को देख कर चन्द्रमा
हंस पड़े। उस हँसी के कारण गणेश जी क्रोधित हो उठे और
उन्होंने चन्द्रमा को शाप दे दिया कि गणेश चतुर्थी को
चन्द्र-दर्शन करने वाले को कलंक लगेगा। इसी कारण स्वयं
भगवान श्री कृष्ण पर मणि चुराने का कलंक लगा था।
गणेश जी को प्रथम
लिपिकार माना जाता है उन्होंने ही देवताओं की
प्रार्थना पर वेद व्यास जी द्वारा रचित महाभारत को
लिपिबद्ध किया था। जैन एवं बौद्ध धर्मों में भी गणेश
पूजा का विधान है। गणेश को हिन्दू संस्कृति में आदि
देव भी माना गया है। अनंतकाल से अनेक नामों से गणेश
दुख, भय, चिन्ता इत्यादि विघ्न के हरणकर्ता के रूप में
पूजित होकर मानवों का संताप हरते रहे हैं। वर्तमान काल
में स्वतंत्रता की रक्षा, राष्ट्रीय चेतना, भावनात्मक
एकता और अखंडता की रक्षा के लिए गणेश जी की पूजा और
गणेश चतुर्थी के पर्व का उत्साह पूर्वक मनाने का अपना
विशेष महत्व है |