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पर्व पंचांग  ४. ८. २००८

इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में- भारत से
जयनंदन की कहानी नागरिक मताधिकार

मास्टर रामरूप शरण बड़े ही उद्विग्न अवस्था में स्कूल से घर लौटे। छात्रों को नागरिक मताधिकार पढ़ाते-पढ़ाते आज उन्हें अचानक एक गंभीर चिंता से वास्ता पड़ गया। वे अन्यमनस्क हो उठे। घर आते ही उन्होंने अपने बड़े लड़के राजदेव को बुलाया और हड़बड़ाते हुए से कहा, ''जल्दी से जाकर मुखियाजी, प्रोफेसर साहब, वकील साहब, इंद्रनाथ सिंह और बृजकिशोर पांडेय को बुलाकर ले आओ। कहना कि मैं तुरंत बुला रहा हूँ....एक बहुत जरूरी काम आ गया है।'' राजदेव चला गया। मास्टर साहब अनमने से दालान की ओर जाने लगे तो पत्नी को उनकी चिंतित मुद्रा देखकर जिज्ञासा हो उठी, ''क्यों जी, क्या हुआ? आप इतना परेशान क्यों हैं? चाय-वाय भी नहीं पी और तुरंत बुलावा भेज दिया?''
''तुम नहीं समझोगी, ज़रा चाय बनाकर रखो, वे लोग आ रहे हैं।''

*

डॉ. नरेन्द्र कोहली का व्यंग्य
लोकार्पण

*

डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण का आलेख
अदम्य जिजीविषा का नाम- सदाको

*

आज सिरहाने उषा राजे सक्सेना का कहानी संग्रह
वह रात और अन्य कहानियाँ

*

घर परिवार में गृहलक्ष्मी बिखेर रही हैं
मंद सुगंध

 

पिछले सप्ताह वर्षा विशेषांक में

विश्वमोहन तिवारी का व्यंग्य
मेढक टर्र टर्र टर्राते हैं

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ओमीना राजपुरोहित सुषमा की लघुकथा
संतोष

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रमेश कुमार सिंह का साहित्यिक निबंध
नवगीत में वर्षा-चित्रण

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डॉ. विजय कुमार सुखवानी की कलम से
फ़िल्मी गीतों में बरसात

*

लोक-संस्कृति में अश्विनी केशरवानी का आलेख
छत्तीसगढ़ के लोक जीवन में वर्षा

*

समकालीन कहानियों में
भारत से  मृणाल पांडे की कहानी चिमगादड़ें
टीन की छत पर पहले एक छितराई-छितराई-सी आवाज़ हुई, जैसे किसी शैतान बच्चे ने कंकरियाँ उछाल दी हों एक क्षण एक बोझिल सन्नाटा - और फिर तरड़-तरड़, एक झटके के साथ बौछार खुल कर बरस पड़ी। मारिया चौंक कर उठ बैठी। अभ्यस्त हाथों ने तकिये के नीचे से चश्मा निकाल कर चढ़ा लिया और अपनी चौंधियाई आँखें मिचमिचाती, कुछ देर वह खिड़की के परे पड़ती बूँदों को ताकती रही। मौसम की पहली बरसात थी। एक गुनगुनी गर्मी लिए हुए ज़मीन का सोंधापन उठा और कमरे में भर गया। धारों की चमकीली निरंतरता में बीहड़ हवा आड़े-तिरछे 'पैटर्न' बनाए जा रही थी!

 

अनुभूति में-
भवानी प्रसाद मिश्र, अंबर बहराइची, कुमार मुकुल, विकास चंचल और विकास परिहार की रचनाएँ

कलम गही नहिं हाथ
आज की शाम नादिरा बब्बर के नाम रही। अवसर था शारजाह में उनके प्रदर्शन बेगम जान का। वे जिस तरह बेगमजान के रूप में मंच पर प्रकट होती हैं और उस चरित्र में समा कर रंगशाला के कण कण में बिखरती हैं वह कहने की नहीं देखने की चीज़ है। यह सच है कि नाटक के संवाद लाजवाब हैं लेकिन नादिरा उसे जिस तरह प्रस्तुत करती हैं उसकी भी कोई उपमा नहीं। जब वे देश की निरंकुश राजनीति पर व्यंग्य कसती हुई चीख़ती हैं तो बरसों से सोए समाज की रगों को हिलाकर रख देती हैं, जब वे हास्य की चुटकियाँ लेती हैं तो  दर्शकों की मुस्कान फूटे बिना नहीं रहती और जब वे व्यंग्य की तलवार चलाती हैं तो बात सीधे दिल में जाकर लगती है। वे संस्कृति की विडंबना पर विलाप करती हैं तो प्रेक्षागृह के रोएँ रोएँ में सोई चेतना को अद्भुत ऊर्जा देकर जागृत कर देती हैं। ऐसा कोई नहीं बचता जो बेगमजान में उड़ेले गए उनके श्रम से नहाया न हो और जब वे संवादों के उतार-चढ़ाव को अपने चेहरे पर साकार करती हैं तो भावनाओं का समंदर हिलोरें ले उठता है। नाटक केवल अभिनय ही तो नहीं होता, प्रकाश ध्वनि, मंच सज्जा, पृष्ठभूमि का संगीत, सहयोगियों का अभिनय सबके लिए बस एक ही शब्द- तालियाँ, तालियाँ तालियाँ -पूर्णिमा वर्मन

इस सप्ताह विकिपीडिया पर विशेष लेख- सत्यजित राय

क्या आप जानते हैं? कि पहले याहू डॉट कॉम का नाम "जेरीज गॉइड टू वर्ल्ड वाइड वेब"  था अप्रैल १९९४ में इसे बदलकर याहू कर दिया गया।

सप्ताह का विचार- सौ बरस जीने के लिए उन सभी सुखों को छोड़ना होता है जिन सुखों के लिए हम सौ बरस जीना चाहते हैं।  - अज्ञात

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।

प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

 

 

 

 
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