भौतिक उठा-पटक का यह समय इस
मनोरोग को अनुकूल खाद-पानी दे रहा है। इस मसले पर खुल कर
चर्चा होनी चाहिए। (फिल्म 'तारे ज़मीं पर' इसी प्रश्न को
लेकर हमारे सामने आया है।) 'सवेरा', कहानी ज़िंदगी के
तथाकथित सत्य और सत्य के बीच का पर्दा हटाती है।
'सलीना
तो सिर्फ़ शादी करना चाहती है' कहानी अपने समूचे सादगीपन
के साथ 'सिर्फ़' शब्द में धड़कती है। क्या आपने कभी इस
शब्द का इस्तेमाल संवेदना, कोमलता, प्रेम, करुणा, आह के
लिए होते देखा है। शायद नहीं! इस कहानी में 'सिर्फ़' अपने
परंपरागत अर्थ का त्याग करता है। यहाँ 'सिर्फ़' शब्द अपनी
अभिव्यंजना में एक उमंग है, एक सपना है, और स्वप्न की
अंतर्यात्रा से गुज़रते दो यात्रियों के स्वप्न भंग की
पीड़ा भी, साथ ही सभ्यता के बाज़ार में खड़े नंगेपन को
धिक्कार भी। कहानी की चेतना स्पेस का अतिक्रमण करती है।
मानवीय अंगों के ख़रीद-फरोख़्त करने में यदि सोने या चाँदी
की सड़कों वाले देश को महारथ हाँसिल है तो दूध की नदियों
वाला देश ही कौन-सा पीछे है? जिन कोमल संवेगों से यह कहानी
बुनी गई है, उनकी पृष्ठभूमि में पीड़ा की अथाह नीली लहरें
किनारों पर आ-आ कर दम तोड़ती दिखाई देती हैं। पाठक बिना
किसी भौतिक आघात के ही विह्वल होने लगता है। क्या ऐसी ही
प्रक्रियाओं के अभौतिक कारकों को हम 'मन' नहीं कहते?
बीटाबिक्स, दूध, सेब, खाने के जूठे बरतन, सिगरेट की गंध,
बंक बेड, और एक औसत कमरा, इन्हीं उपादानों से उषा जी बुनती
हैं एक 'कालजयी रचना' जिसका शीर्षक है 'वह
रात'। कहानी 'वह रात' गंभीरता और सहजता के दोनों छोरों
पर बहुत सधी और संतुलित दृष्टि से चलती है। आठ वर्षीय
'मार्क' कथा कहता है। नौ वर्षीय एनीटा इस परिवार की गार्जीयन है। माँ
इस घर की छत। 'वह रात' जीवन का एक मार्मिक बयान है जो
मृत्यु से खुलता है। एक वेश्या की मृत्यु किसी भी देश समाज
की बड़ी घटना नहीं होती। तब यह त्रासद दृश्य-विधान हमारे
समस्त संवेदन तंत्रियों को क्यों झकझोरता है? शायद इसीलिए
कि माँ को तलाशती बच्चों की निरीह आँखें पाठकों से टकरा
जाती हैं। शरीर में भय की झुरझुरी दौड़ जाती है। दरअसल यह
कहानी मनुष्य और शब्दों के बीच खुल गई खाई को पाटने की
प्रक्रिया है।
'अस्सी हूरें, शीराज़ मुन्व्वर और जूलियाना' और 'तीन
तिलंगे' दो विरोधी पार्श्वभूमि की कहानियाँ है। इनके विरोध
के भीतर एक आंतरिक लय है, एक धुन है, संवेदना की। यही
सृजनकर्ता की आंतरिक शक्ति भी है। दो विपरीत ध्रुवों का
मिलन-बिंदु एक खतरनाक बिंदु है ज़रा-सी चूक अपने परिणाम
से भयानक होती है। एक ज़िंदगी के हद में आने और दूसरी
ज़िंदगी के हद से जाने की कहानी है। तथाकथित धर्मों के
बर्बर ठेकेदारों के चेहरों के बीच 'लुईस' जैसे मानवीय बल
को आधार देनेवालों चेहरा भी है, जहाँ जीवन का सौंदर्य अपने
अनंत रूपों से उद्घाटित होता है।
चेरी ब्लासम जवाँ है।
प्रकृति का झरता हुआ यह गतिशील सौंदर्य चाक्षुष बिंब बन
जाता है। खूबसूरत फूल झर रहे है शर्ली के बाहर और पाठक के
भीतर। कथा की भाषा चुपचाप कविता में समा जाती है। ज़िंदगी
के हर रंग से शर्ली ने सीखी है केवल प्यार की भाषा। इसी ने
दिया है शर्ली को स्थितियों से समायोजन का सलीक़ा।
कर्तव्यविहीन अधिकार के खिलाफ़ 'शर्ली सिंपसन शुतुर्मुर्ग
है' कहानी लेखिका का अहिंसक प्रहार है। जो स्त्री-विमर्श
का पाठ नहीं रचती बल्कि स्त्री-पुरुष सभी से आत्मविश्लेषण
की माँग करता है। उषा जी की कहानियों से गुज़रने पर पाठक
उससे अपनी ही ज़मीन पर एक आत्मीय रिश्ता बना लेता है। साथ
ही ब्रिटेन या पश्चिमी समाज के संदर्भ में सुनी-सुनाई
बातों से बनी धुंध की चादर भी उतार फेकता है पारदर्शी
स्थिति में दो बढ़ते हुए हाथो के मैत्री की पहचान ही उषा
जी की कहानियों की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
डॉ. शशिकला राय
प्रवक्ता, पुणे विश्वविद्यालय- पुणे
४ अगस्त २००८ |