नवगीत में
वर्षा-चित्रण
--रमेश
कुमार सिंह
प्रकृति की सुन्दरतम ऋतु --
वर्षा-ऋतु -- आदि कवि वाल्मीकि से लेकर आधुनिक नवगीतकारों तक
को काव्य सृजन की प्रेरणा देती रही हैं। संस्कृत साहित्य में
कलिदास का वर्षा-ऋतु चित्रण अप्रतिम है। हिन्दी साहित्य के
मध्ययुग में तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों ने पावस ऋतु का
सुंदर-सरस चित्रण किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य में
छायावादी कवियों में प्रसाद, निराला, पंत तथा महादेवी ने
वर्षा संबंधी कई कविताएँ लिखी हैं। महादेवी का आत्म-परिचय ही
नीर भरी दुख की बदली के रूप में है।
नवगीत के प्रेरक पुरुष
माने जाने वाले निराला की कविताओं में वर्षा की अनेक छवियाँ
हैं। नई कविता और प्रगतिशील कविता की धरा में भी वर्षा से
संबंधित कविताएँ हैं। नागार्जुन की मेघ बजे, घन कुरंग,
बादल को घिरते देखा है आदि कई वर्षा-केंद्रत प्रसिद्ध कविताएँ
हैं।
नवगीत स्वातंत्र्योत्तर
हिन्दी कविता की एक मुख्य धारा है। युगबोध के चित्रण
के साथ-साथ प्रकृति और परिवेश की लयपूर्ण छंदोबद्ध
वस्तुपरक प्रस्तुति नवगीत की प्रमुख विशेषता हैं।
नवगीतकारों ने वर्षा ऋतु के श्वेत और श्याम दोनों
पक्षों पर लेखनी चलाई है। आसमान से बरसता जल जहाँ एक
ओर धरती में नवजीवन का संचार करता है, वहीं अनावृष्टि
और अतिवृष्टि से जुड़ी समस्याएँ असंख्य प्राणियों की
मृत्यु का कारण बन जाती हैं। नवगीतों में ऋतुओं की
रानी की इस कृपा और कोप -- दोनों को विषय बनाया गया
है। कवि का मन काली घटाओं और धरती की हरी चूनर को
देखकर मयूर की तरह नर्तन करता है, लेकिन कभी-कभी और
वहीं-कहीं बूँद-बूँद जल के लिए तरसती धरती के फटे दामन
को देखकर अथवा जलप्लावित धरती में डूबती छटपटाती
मानवता की कराह सुनकर वह विचलित हो उठता है। इसी
संदर्भ में प्रसिद्ध नवगीतकार एवं समीक्षक डॉ.
राजेन्द्र गौतम ने अपनी पुस्तक 'नवगीत : उद्भव और
विकास' में लिखा है - ''नवगीत में हुए ऋतु-वर्णन मे
ग्रीष्म के पश्चात् सर्वाधिक स्थान वर्षा को मिला है।
वर्षापरक गीतों के दो स्वर हैं। एक में वर्षा के
सौंदर्य, उल्लास, आवेग की अभिव्यक्ति हैं दूसरा स्वर
आतंक का, ध्वंस का है।''
आचार्य जानकीवल्लभ
शास्त्री, वीरेन्द्र मिश्र, देवेन्द्र शर्मा इन्द्र,
नईम, श्रीकृष्ण शर्मा, कुमार रवीन्द्र, राजेन्द्र
गौतम, बुद्धिनाथ मिश्र, पूर्णिमा वर्मन, इसाक अश्क,
भारतेंदु मिश्र आदि नवगीतकारों की रचनाओं में वर्षापरक
गीतों की बहुलता है। आषाढ़ आ जाए और बारिश न हो तो कवि-मन बेचैन हो उठता
है। वह बादलों का आह्वान करता है कि आओ प्यासी धरती की
प्यास बुझाओ। वीरेन्द्र मिश्र 'रसवंत बादल' में बादल
से धरती पर उतरने का आग्रह करते हैं-
आओ तुम कजरी को स्वर देने। वाणी को पानी का वर देने।
देवेन्द्र शर्मा
इन्द्र ने ऋतुओं को जन-जीवन से जोड़ते हुए शताधिक गीत
लिखे है। उनके वर्षा-गीतों में बहुत विविधता है। निदाघ
में वर्षा की प्रतीक्षा में तड़पने के बाद भी जब बादल
दगा दे जाते हैं तो उनका स्वर इस रूप में व्यंग्यात्मक
हो जाता है:
बादल तुम संस्कृत में गरज रहे/ क्या न कभी प्राकृत में
बरसोगे?
आकाशे धूल जम रही गाढ़ी/धूप बँधी लहरों की पायल में
बंजारिन-सी जमुना आसाढ़ी/अंगारे भर लाई आँचल में
बागी लू के झोंके करते हैं/ क्वारी अमराई से बरजोरी
सागर की आग अगर भड़की तो/बूँद-बूँद पानी को तरसोगे
शिव बहादुर सिंह
भदौरिया के नवगीत-'सूखे का गीत` में भी वर्षा के लिए
टोटके दिखाए गए हैं-
'इन्द्र को मनाएँगे टुटकों के बल/रात ढले निर्वसना
जोतेगी हल।
खाली बादल की
विडम्बना को चित्रित करते हुए योगेंद्रदत्त शर्मा ने
लिखा है:
'जल मरुथल में/ विलीन हुई दोपहरी
उड़ते खाली बादल/रीती गंगा लहरी
जितनी ही प्यास बढ़ी/उतनी जल से दूरी
बुद्धिनाथ मिश्र के
नवगीत 'आर्द्रा' में वर्षा की विकल प्रतीक्षा
मर्मस्पर्शी है-
'छाती फटी कुँआ-पोखर की/ धरती पड़ी दरार
एक पपीहा तीतर पाखी धन को/ रहा पुकार
चील उड़े डैने फैलाये/ जलते अम्बर में
सहमे-सहमे बाग-बगीचे/ सहमे-से घर द्वार
सूखे की उपज होती है अकाल।
राधेश्याम शुक्ल के
नवगीत 'अकाल के प्रेत' में सूखा सावन साहूकार की तरह
ब्याज समेत कर्ज़ वसूल रहा है। सूखी हवा धरती को कोड़े
मार रही है। बरखा रानी को काला पानी की सजा दे दी गई
है। लेकिन कितना भी सूखा पड़े, बारिश की आस तो बनी ही
रहती है। शिवबहादुर सिंह भदौरिया अपने एक नवगीत 'पानी
के आसार` में लिखते हैं-
'पूर्व दिशा से मेघ उठे हैं, पुरवैया चल पड़ी है। पानी
के आसार को देखकर गौरैया पंख फुलाकर सोंधी गंधवाली धूल
में लोटने लगी है।'
झूमकर आए बादल झमाझम बरसने लगे तो ग्रीष्म से तपी धरती
की साध पूरी हुई। बादल अपने आने की सूचना धरती को किस
मनमोहक अंदाज में दे रहे हैं। वीरेन्द्र मिश्र के
नवगीत 'मेघाभिव्यक्ति' में देखिए-
शिखरों पर मनभर कर पुरवाई चूमकर
मनचाहे मौसम में, मनमाना झूमकर
लो, धरती रानी मैं आ गया
जब तक में रस ढोलूँ मरुथल में, बीहड़ में
डोले की दुलहन को ले जाओ पीहर में
आऊँ तो दृगभर कर देखे वह प्यार से,
लद जाए वह मेरे रिमझिम के भार से
गाए ये बादल तो आ गया,
वह देखो पीपल की शिरा-शिरा में थिरकन
कोयल का गीत बना अमराई की धड़कन
नीम के हिंडोले पर इमली की डाल पर
हवा पेंग भरती है, पोखर पर, ताल पर
हर झकोर मोर को लुभा गया।
बारिश से पहाड़,
पठार, वन, मैदान हर जगह उल्लास छा गया है, राजेन्द्र
गौतम 'विंध्याचल में वर्षा: तीन बिम्ब' में लिखते हैं-
'विन्ध्या-बालाएँ गहरे जंगलों में ताली दे-देकर मेघगीत
गा रही है, क्यों कि दिनों की तपन और रातों की ठिठुरन
अब नहीं रही।' बुद्धिनाथ मिश्र के अनुसार, 'जमुन-जल
मेघ` सागर की अर्न्तकथा को लेकर आए हैं। नईम अपने एक
नवगीत में बादल को पानी बाबा कहते हैं, जो नंगधड़ंग
फरिश्ते जैसा है और किलकारी भरते हुए घर आँगन में उतर
आया है। वह ककड़ी-भुट्टे लाया है और नन्हें बच्चों की
आँखों में काजल आँज रहा है। दिनेश सिंह के नवगीत 'लौट
नहीं जाना' में बादलजी से कैसा प्यार भरा मनुहार है,
देखें-
टपरे की ओरी के नीचे/ मुनिया के हाथों से सींचे
नेहा के बीज गड़े हैं। मुनिया के प्राण जड़े हैं
लौट नहीं जाना जी, बादल।
बूँदों की रिमझिम में
संगीत का सरगम होता है। इस मौसम में हवा, बादल, पेड़,
पपीहे सब झूमते-गाते हुए से लगते हैं। यह उल्लास,
लोक-कंठ से बारहमासी, कजरी, झूलागीतों के रूपों फूटता
है। मेघ-मल्हार का आदि राग कवि हृदय में भी गीत के रूप
में उतरता है। सावन और संगीत का अटूट संबंध कई नवगीतों
में प्रस्तुत हुआ है। नवगीतकार इन संदर्भों को घर
जुड़ी भाषा दी है। देवेन्द्र शर्मा इन्द्र ने लिखा है:
आँगन से कमरे तक आ पहुँचीं/छिटक-छिटक चिड़िया के
बच्चों-सी/बरखा की बौछारें
मेघों की झोली से/ झरतीं जल की खीलें/जी करता/फुहियों
को अंजुली में भर पीलें
छोटे-छोटे सुख के/ हर सोनल सपनों की/खड़ी करें रेती की
मीनारें।
पूर्णिमा वर्मन ने
वर्षा के उन्मादक सौंदर्य का चित्रण अद्भुत संगीतमयी
भाषा में किया है-
बज रहे संतूर बूँदों के/बरसती शाम है
गूँजता है/ बिजलियों में/दादरे का तीव्र सप्तक
और बादल रच रहे हैं/ फिर मल्हारों के/सुखद पद
मन मुदित नभ भी धनकता ढोल/ मीठी तान है
इस हवा में/ ताड़ के करतल/ निरंतर बज रहे हैं
आह्लादित/ सागरों के ज्वार/ संयम तज रहे हैं
उमगते अंकुर धरा पट खोल/ जग अनजान है।
बरसात का प्रेम से
चिर संबंध है। इस ऋतु में प्रणय की पुरानी स्मृतियाँ
ताज़ा हो उठती हैं। विरह की वेदना तीव्र हो जाती है और
मिलन की आतुरता बढ़ जाती है। प्रेमपरक वर्षा-नवगीतों
में शृंगार-संयोग और वियोग दोनों का चित्रण हुआ है।
'बादल छाए' कविता में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला लिखते
हैं- 'बूँदे जितनी/ चुनी अधिखली कलियाँ उतनी बूँदों की
लड़ियों के इतने/ हार तुम्हें मैंने पहनाए'
वीरेन्द्र मिश्र के
नवगीत 'वर्षा में मिलन' में यादें भी हैं और संयोग-
शृंगार भी-,
'कामधेनु सोयी थी, रिमझिम अमराई में
युग्मतनों की हिलती-मिलती परछाई में।
राजेन्द्र गौतम के
'गीत पर्व आया है में मेघ प्रेमी भी है और दूत भी- 'अधसोयी
घाटी पर/ आतुर-सा यायावर/बादल झुक आया है।' उनके एक
अन्य नवगीत -'मेघ घिरे` में बारिश में उद्दाम प्रणय का
अद्भुत संयम के साथ चित्रण है।
कुमार रवीन्द्र के एक
नवगीत में नदी-तट पर बारिश में प्रेयसी के साथ भीगते
हुए प्रथम प्रेम की स्मृति ताज़ा हुई है।
बरसात के मौसम से जुड़ा एक भयावह प्राकृतिक प्रकोप है-
बाढ़। बुद्धिनाथ मिश्र, गुलाब सिंह, शांति सुमन,
नारायण लाल परमार, राजेन्द्र गौतम आदि कई नवगीतकारों
की रचनाओं में बाढ़ की विनाश-लीला चित्रित हुई है।
वीरेन्द्र मिश्र के नवगीत 'मेघ निशा' में बादल क्रूर
आतंक के रूप में छाया हुआ है। इस विषय लिखे गए गीतों
में यह गीत सर्वाधिक मार्मिक कहा जा सकता है:
बादल हर द्वार घिरा है/ सहमा है आँगना
नागिन हर एक निशा है/ देहली न लाँघना
सपनों की छत के शहतीर/ हिलते हैं कौंध में
सील-भरी धरती की पीर/ बढ़ी चकाचौंध में
पास कहीं गिर गया मकान/ जिसमें था पालना।
राजेन्द्र गौतम के
नवगीत- 'धँसी कगारें' 'महाकाल है` और 'बिजली का
कुहराम' में बाढ़ की त्रासदी के चित्रण के साथ ही इसके
प्रति मीडिया की संवदेनहीनता और प्रशासन की
निष्क्रियता पर व्यंग्य भी है-
रोज़ विमानों से/ गिरती हैं/ रोटी की अफवाहें
किंतु कसे हैं/ साँप सरीखी/ तन लहरों की बाँहें
अंतरिक्ष से/ चित्रित हो हम/विज्ञापन बन जाते
किस दड़बे में / लाशों का था/ सबसे ऊँचा स्तूप
खोज रही हैं/ गृद्ध-दृष्टियाँ/ अपने-अपने 'स्कूप'
बुद्धिनाथ मिश्र के नवगीत 'बागमती' में इस नदी द्वारा
पूर्वी बिहार में हर साल लाई जाने वाली बाढ़ का
मार्मिक शब्दचित्र हैं: 'दुखनी की आँखों की कोर फिर
भिगो गई/अबकी फिर बागमती घर-आँगन धो गई।
इन्द्रधनुषी चतुर्मास
के अन्य अनेक रंगों को उकेरने के सार्थक प्रयास नईम,
विद्यानंदन राजीव, कुँअर बेचैन, भारतेन्दु मिश्र आदि
नवगीतकारों ने अपने गीतों में किए हैं। नईम को बादल
कभी दूर देश बंगाल से आए लगते हैं तो कभी संन्यासी
योद्धा की तरह और कभी बंगाली जादूगर की तरह। ये बादल
दरकी हुई धरती की छाती पर मरहम लगाने आए हैं।
विद्यानंदन राजीव
मानते हैं कि मानसून सांस्कृतिक नवोन्मेष का बीजारोपण
करता है तो भारतेन्दु मिश्र बारिश के दिनों का यह
परेशान करने वाला पक्ष सामने लाते हैं-
कीचड़ के/ बदबू के/ रपटीली रात के
दिन में बरसात के/ ये दिन बरसात के
माटी की गंध/ गयी डूब/ किसी नाले में
माचिस भी। सील गई। रखे-रखे आले में
आँधी के/ पानी के/ दुर्दिन सौगात के
दिन ये बरसात के/ ये दिन बरसात के
हिन्दी नवगीतों में
वर्षा का इतना विविधतापूर्ण और जीवंत चित्रण यह
दर्शाता है कि वर्षा जलचक्र की ही नहीं, हमारे
जीवनचक्र की भी महत्त्वपूर्ण कड़ी है। बरसात के
सुख-दुख हमारी ज़िंदगी के सुख-दुख से जुड़े हैं।
प्रकृति में ऋतु-परिवर्तन शाश्वत है और जब-जब वर्षा
ऋतु आएगी, इसके जुड़े कुछ और नवगीतों का सृजन होगा और
हमारा गीत-साहित्य कुछ और समृद्ध होगा।
२८
जुलाई २००८ |