इस
सप्ताह-
समकालीन कहानियों में
रवींद्र बत्रा की कहानी
गुड्डा
वह
एक कपड़े के अन्दर रूई भर कर बनाया गया गुड्डा है। एक गरीब और बूढ़ी
औरत जो सालों से शहर से दूर अकेली रहती है, उसने इसे बनाया था। वह
बूढ़ी औरत इस तरह के गुड्डे बना कर शहर के गिफ़्ट स्टोर पर बेचती है
और उससे अपना गुज़ारा करती है। वह अक्सर दुकानदार से शिकायत करती है
कि वह ठीक दाम नहीं देता। काफी देर तक अपने पोपले मुँह से बोलती हुई
वह दुकानदार से मोल-भाव करती है और धमकी देती है कि वह इन शानदार
गुड्डों को किसी दूसरे स्टोर वाले को बेच देगी। बेचने से पहले बड़ी
हसरत से वह हर गुड्डे को निहारती, जिसे उसने बड़े अपनत्व और प्यार से
बनाया था और फिर यह सोच कर कि ये गुड्डे किसी बच्चे के खेलने के ही
काम आने वाले हैं, मन को समझाती और निश्चिंतता के साथ गुड्डा बेच कर
चली जाती।
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गुरमीत बेदी का
व्यंग्य
नीलामी चालू रखिए
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बैसाखी के अवसर पर कविता वाचक्नवी का
संस्मरण- बैसाखी
यमुना और बच्चे
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अर्बुदा ओहरी के
सफ़ाई अभियान का प्रारंभ
रखरखाव रसोई का
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बच्चों के लिए खोज कथाओं का अगला अंक
ऑस्ट्रेलिया की खोज
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मृदुल कश्यप का
व्यंग्य
परमाणु बिजली और हैरतगंज के पेलवान जी
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कृष्णानंद कृष्ण की लघुकथा
बेबस
विद्रोह
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नवरात्र के अवसर पर अश्विनी केशरवानी का आलेख
छत्तीसगढ़ की देवियाँ
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कला दीर्घा में दुर्गा की
20 कलाकृतियाँ
आधुनिक और
पारंपरिक
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मान्यम रमेश कुमार की
तेलुगू कहानी का हिंदी रूपांतर- शब्द,
रूपांतरकार हैं कोल्लूरि सोम शंकर
खामोशी
की तो वहाँ जगह ही नहीं होती। समंदर के तट पर हलचल की क्या कभी कमी
होती है? कुछ
बच्चे जमा होकर शोर मचा रहे हैं। जब लहरें पीछे जाती हैं तो, बच्चे
आगे बढ़ते हैं और जब लहरें आगे बढ़ती हैं, तो बच्चे पीछे। पास में एक
छोटी लड़की को उसका पिता समंदर की ओर ले जाना चाहता है, पर वह डरती
है और पापा को भी पीछे खींचती है। ''कुछ नहीं होगा बेटा, मैं हूँ
ना...'' कहते हुए बाप बेटी को दिलासा दे रहा है।
पीछे अलग-अलग खाद्य पदार्थ बेचनेवालों का हंगामा...पाव-भाजी, मसाला
पूरी, भुट्टा आदि। सारे तट पर शोरगुल, चीख़ें, शोरगुल। मुझे ये सब
सुनाई नहीं देते। खामोशी...सब जगह घनघोर सन्नाटा। जैसे सामने एक मौन
चलचित्र को देख रहा हूँ, टी.वी. की आवाज़ बंद करके सिनेमा देख रहा
हूँ। खामोशी... कहीं कोई आवाज़ नहीं...।
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अनुभूति में-
डॉ. हरीश निगम, कवि कुलवंत, हेम ज्योत्स्ना पराशर,
सुशील पटियाल और सरोजिनी प्रीतम की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
खाना जीवन की पहली ज़रूरत तो है
ही,
विलासिता में भी यह पहले स्थान पर है। एक समय था जब थाली वाले होटल आम-आदमी के भोजन की
सस्ती जगह समझे जाते थे। आज यह सस्ती थाली नाज़ो-नखरे के साथ,
विभिन्न देशों के अनेक होटलों और रेस्त्राओं सजे दुबई में
लोकप्रियता के रेकार्ड बना रही है। दो तीन महीने पहले खुले
राजधानी नाम के रेस्त्रां के सामने लगी भीड़ से ऐसा लगता है जैसे खाना
यहाँ मुफ़्त बँट रहा है। ऐसी भीड़ थाली वाले रेस्त्रां में मैंने
पहले पूना के श्रेयस में देखी थी। वहाँ के भोजन के मराठी
अंदाज़ हैं और यहाँ इस रेस्त्रां के गुजराती। भारत में पहले ही राजधानी नाम से
34 रेस्त्रां चलाने वाली इस भोजन शृंखला का यह पहला विदेशी
उपक्रम है। खाने के पहले और बाद ताँबे के तसले में अरबी जग से हाथ
धुलवाने की ऐसी परंपरा शायद दुबई के किसी अन्य रेस्त्रां में नहीं।
धुएँ का छौंक लगी लस्सी लाजवाब है और अगर 28 व्यंजनों वाली थाली का
खाना खाकर दिल खुश हो जाए तो आप रेस्त्रां में टंगी थाली को वहीं रखी
छड़ीनुमा हथौड़ी से बजा सकते हैं। थाली की झंकार सुनते ही वेटरों का
समवेत स्वर गूँजता है- आओजो यानी फिर आना और प्रवासी की आँखें गीली
गीली।
पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)
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सप्ताह का विचार
युवावस्था आवेशमय होती है,
वह क्रोध से आग हो जाती है तो करुणा से पानी भी।
-प्रेमचंद |
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