उस दिन तो अजब हो गया। पलभर
में हंगामा खड़ा हो गया। सुशीला अवाक खड़ी चुपचाप पार्वती का
मुँह देख रही थी। कच्छा भीड़े हुए वह घायल शेरनी की तरह
दहाड़ रही थी।
``मालकिन हम गरीब हैं। आपके
घर में झाड़ू-बुहारू करते हैं। इसका मतलब यह तो नहीं कि
हमारी कोई इज़्ज़त-विज़्ज़त नहीं है। आप लोगों को जब जो जी
चाहे बोल लीजिए।'' बोलते-बोलते वह हाँफने लगी थी।
हाथ में पकड़े झाड़ू को
उसने फेंक दिया और मालकिन की तरफ़ आँखें फाड़कर देखने लगी।
''अरे पार्वती क्या हुआ
शांत हो जा। आखिर मैं भी तो सुनूँ बात क्या है? ऐसा क्या हुआ
कि तूने सारा घर सर पर उठा लिया?'' पार्वती को शांत करती हुई
सुशीला ने पूछा।
मालकिन की प्यार भरी बातों
ने पार्वती को भीतर तक भींगो दिया। उसकी आँखें छलछला आईं।
स्नेह पाकर उसके सब्र का बाँध टूट पड़ा। सुबकते हुए उसने
कहा, ''मालकिन! अब मुझसे ई धर में काम नहीं होगा। जहाँ आदमी
की इज़्ज़त न हो, वहाँ तो पल भर भी नहीं रुकना चाहिए।
मालकिन! आप मेरा हिसाब कर दें। मैं दूसरी जगह चली जाऊँगी।''
''कर ले अपना हिसाब-किताब
और फूट यहाँ से। नहीं तो...'' यह सुशीला की बहू की आवाज़ थी।
''नहीं तो, क्या कर लेंगीं
आप? बोलिए न बीबी जी! मैं मुफ़्त के पैसे नहीं लेती। हाड़
तोड़ती हूँ तो पैसे लेती हूँ। फिर धौंस किस बात की?''
''अरी पार्वती! तू बहू की
बातों पर न जा! उसने अभी दुनियादारी कहाँ देखी है। और तू
बता, तू तो मुझे माँ जैसा आदर देती है। मैं भी तुझे बेटी की
तरह मानती हूँ। तू बता, अगर तू सचमुच मेरी बेटी होती, तो
क्या बहू के इतना कहने पर मुझे छोड़कर चली जाती?'' डबडबाई
आँखों से सुशीला ने पार्वती को देखते हुए कहा।
सुशीला की डबडबाई आँखों को
देखकर पार्वती के मन का गुस्सा ख़त्म हो गया था। उसने कुछ
कहा नहीं। वह चुपचाप उठी और अपने को काम में लगा दिया।
७ अप्रैल २००८ |