हास्य व्यंग्य | |
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नीलामी चालू
रखिए...! |
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साधो! इस मुल्क में क्रिकेटरों की नीलामी पर इतनी हाय
तौबा क्यों? क्रिकेटर ही तो बिके। कोई देश की सुरक्षा थोड़े ही नीलाम हो गई?
क्रिकेटर तो पैदा ही इसलिए होते हैं कि पैसों की खातिर नीलाम हो जाएँ। वे खेलते हैं
तो सिर्फ़ पैसों के लिए, विज्ञापनगिरी करते हैं तो पैसों के लिए, मैच फिक्सिंग करते
हैं तो पैसों के लिए। पैसा ही उनके लिए कर्म है। पैसों के लिए खेलना ही उनके लिए
धर्म है। फिर पैसों के लिए वे नीलाम हो गए तो क्या हो गया? बिकने की चीज़ थी, सो
बिक गए। क्या हम अपने क्रिकेटरों को हारते ही देख सकते हैं? बिकते नहीं देख सकते?
साधो, लानत है हम पर। कोटि-कोटि लानत!
इस मुल्क में शराब के ठेकों की नीलामी की तरह अबला की आबरू बिक सकती है, टोल टैक्स बैरियरों की तरह नेताओं कर ईमान बिक सकता है तो देश की जनता का आदर्श माना जाने वाला क्रिकेटर क्यों नहीं बिक सकता? साधो! क्रिकेटर बहुत लक्की प्राणी है। वह गरीबों की किडनियों की तरह लाखों में नहीं बिकता बल्कि उसकी बोली करोड़ों में पड़ती है। धन्य हैं वे माताएँ जिन्होंने इस धरती पर अगर नेता और अभिनेता जैसी आइटिमें पैदा की हैं तो क्रिकेटर भी पैदा किए हैं। तीनों का काम पैसा कमाना है। लेकिन ऐसी माताएँ जिन्होंने क्रिकेटर की बजाए अपनी कोख से फुटबालर पैदा किए हैं, हाकी, कबडडी, वॉलीबाल, बास्केटवाल के खिलाड़ी या एथलीट पैदा किए हैं, वे बिल्कुल धन्य नहीं हैं। उन्हें क्या मिला ऐसी-वैसी गेमों के खिलाड़ी पैदा करके? ऐसे खिलाड़ी मुल्क के किस काम के हैं? साधो! सच-सच बताओ, क्या ऐसे खिलाड़ियों के लिए लड़कियाँ कभी मीठी आहें भरती देखी हैं? क्या ऐसे खिलाड़ियों के उत्कृष्ट प्रदर्शन पर मुल्क झूमता है? उन पर डॉलरों की बरसात होती है? नहीं न! साधो! हमें गर्व होना चाहिए कि इस मुल्क में क्रिकेटरों की नीलामी के रूप में एक अच्छी परम्परा की शुरुआत हुई है और इस परम्परा का ज़्यादा से ज़्यादा स्वागत होना चाहिए। वैसे भी यह देश अपनी परंपराओं के लिए विख्यात है। यहाँ दूध में पानी मिलाकर बेचने के साथ-साथ जीवन रक्षक दवाई के नाम पर रोगियों के जिस्म में सिरिंज से पानी के इंजेक्शन लगाने की परम्परा है। सरकारी स्टोर से सीमेंट के बोरों से लेकर सेना का पेट्रोल बेचने की परम्परा है। खाद्य पदार्थों में मिक्सिंग व री-मिक्सिंग की परम्परा है। सरकारी टेबल से फ़ाइल सरकाने के एवज में घूस खाने की परम्परा है। फिर एक परम्परा और सही। परम्पराएं से ही देश महान बनता है। सरकार भी हमें परंपराओं के संरक्षण व संवर्धन के लिए प्रेरित करती है। गुंडों, तस्करों, जमाख़ोरों व भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने की परम्परा इस मुल्क में पल्लवित-पोषित हो सकती है तो क्रिकेटरों की नीलामी की परंपरा को आगे बढ़ाने में क्या हर्ज है? साधो! इस नई परम्परा का संरक्षण करने के लिए ज़रूरी है कि जिला, उपमंडल व ब्लाक स्तर पर क्रिकेटरों की नीलामी हो। हर बच्चे के लिए क्रिकेट खेलना अनिवार्य हो। हर नव-विवाहित दंपति से यह बांड भरवाया जाए कि अगर उनके घर में किसी हकीम की दवाई खाकर शर्तिया पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है तो उसे क्रिकेट खिलाड़ी बनाया जाएगा। स्कूलों में नए-नए कमरे बनाकर पैसा फूँकने की बजाए छोटे-छोटे ग्राउंड बनाने को उसी तरह टॉप प्रायोरिटी दी जाए जैसे गरीबों के कल्याण को दी जाती है। जहाँ ग्राउंड नहीं हैं, वहाँ आस-पास की कच्ची या पक्की सड़क का इस्तेमाल भी क्रिकेट खेलने के लिए किया जा सकता है। इसके लिए अगर एक-दो घण्टे वाहनों की आवाजाही रोकनी पड़े तो उसमें गुरेज नहीं करना चाहिए। क्रिकेट को बढ़ावा देने के लिए इतना तो करना ही पड़ेगा। जब क्रिकेट को बढ़ावा मिलेगा तो ज़्यादा से ज़्यादा क्रिकेटर नीलाम होंगे और सरकार के पल्ले भी कुछ रेवेन्यू आएगा। यानी फ़ायदा ही फ़ायदा। यानी क्रिकेटरों, उनके माँ-बापों और सरकार के लिए मौजां ही मौजां। अभी तो सिर्फ़ पुरूष क्रिकेटरों की नीलामी ही शुरू हुई है। हो सकता है कल को फीमेल क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी भी मुल्क में शुरू हो जाए। इस मुल्क में क्या नहीं हो सकता? महिला क्रिकेटरों की नीलामी से कन्या भ्रूण हत्या जैसी लानत भी समाज को नहीं झेलनी पड़ेगी। यानी फ़ायदे पर फ़ायदा। यह भी हो सकता है कि एक दिन हाई लेवल पर यह निर्णय हो जाए कि सरकारी नौकरियों में पचास फीसदी पद बैच वाईज और पचास फीसदी पर क्रिकेटरों के कोटे से भरे जाएँगे। यानी कंपीटीशन और इंटरव्यू का लफड़ा ही खत्म। यानी भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद पर शुरुआती स्टेज में ही नकेल। कल को सरकारी ठेके भी उन्हीं ठेकेदारों को मिलना अनिवार्य हो सकता है जो बालिंग, बैटिंग या फील्डिंग कर लेते हों। इससे ज़्यादा और क्या कहें साधो! फिलहाल तो बोली लगाने वालों से यही रिक्वैस्ट है कि नीलामी चालू रखिए... और देखिए कि आगे-आगे होता है क्या...! १४ अप्रैल २००८ |