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संस्कृति

नवरात्रि के अवसर पर विशेष

छत्तीसगढ़ की देवियाँ
प्रो. अश्विनी केशरवानी

नवरात्र पर्व- नौ दिन तक देवियों की पूजा-अर्चना का सात्विक पर्व है। जगत की उत्पत्ति के पीछे ''शक्ति'' को ही मूल तत्व मानने वाले माता के रूप में देवी की पूजा करते हैं। मनुष्य की विभिन्न प्रकार की शक्तियों को प्राप्त करने की अनंत इच्छा ने शक्ति की उपासना को व्यापक आयाम दिया है। छत्तीसगढ़ में अनेक शक्तिपीठ बने। यहाँ देवियाँ ग्रामदेवी और कुलदेवी के रूप में पूजित हुई। विभिन्न स्थानों में देवियाँ या तो समलेश्वरी या महामाया देवी के रूप में प्रतिष्ठित होकर पूजित हो रही हैं। इन देवियों को राजा-महाराजाओं, ज़मींदारों और मालगुज़ारों ने अपनी-अपनी राजधानियों में ''कुलदेवी'' के रूप में स्थापित किया था। देवियों को अन्य राजाओं से मित्रता के प्रतीक के रूप में भी अपने राज्य में प्रतिष्ठित करने का उल्लेख तत्कालीन साहित्य में मिलता है। इनमें से पाँच शक्तिस्थल और उनकी देवियाँ विभिन्न कारणों से अधिक प्रसिद्ध हैं।

महामाया रतनपुररतनपुर की महामाया
दक्षिण-पूर्वी रेल्वे के बिलासपुर जंक्शन और जिला मुख्यालय से लगभग २२ कि.मी. की दूरी पर महामाया की नगरी रतनपुर स्थित है। यह नगरी कलचुरी राजाओं की विख्यात राजधानी रही है। इस वंश के राजा रत्नदेव ने महामाया के निर्देश पर रत्नपुर नगर बसाकर महामाया देवी की कृपा से दक्षिण कोसल पर निष्कंटक राज किया। उनके अधीन जितने राजा, ज़मींदार और मालगुज़ार रहे, सबने अपनी राजधानी में महामाया देवी की स्थापना की और उन्हें अपनी कुलदेवी मानकर उनकी अधीनता स्वीकार की। उनकी कृपा से अपने कुल-परिवार, राज्य में सुख शांति और वैभव की वृद्धि कर सके। पौराणिक काल से लेकर आज तक रतनपुर में महामाया देवी की सत्ता स्वीकार की जाती रही है। कहा जाता है कि एक बार राजा रत्नदेव भटकते हुए यहाँ के घनघोर वन में आए और सांझ होने के कारण एक पेड़ पर चढ़कर रात्रि गुज़ारी। सोते हुए उन्होंने पेड़ के नीचे देवी महामाया की सभा लगी देखी। इसे महामाया का निर्देश मानकर उन्होंने यहाँ अपनी राजधानी बनाकर देवी की स्थापना की।  यह देवी आज जन आस्था का केंद्र बनी हुई है। मंत्र शक्ति से परिपूर्ण दैवीय कण यहाँ के वायुमंडल में बिखरे हैं जो किसी भी उद्विग्न व्यक्ति को शांत करने के लिए पर्याप्त हैं। यहाँ के भग्नावशेष हैहयवंशी कलचुरी राजवंश की गाथा सुनाने के लिए पर्याप्त है। महामाया देवी और बूढ़ेश्वर महादेव की कृपा इस क्षेत्र के लिए रक्षा कवच के समान समझी जाती है। पंडित गोपालचंद्र ब्रह्मचारी भी यही गाते हैं :-
रक्षको भैरवो याम्यां देवो भीषण शासन: तत्वार्थिभि:समासेव्य: पूर्वे बृद्धेश्वर: शिव:।।
नराणां ज्ञान जननी महामाया तु नैऋतै पुरतो भ्रातृ संयुक्तो राम सीता समन्वित:।।

आराधकों द्वारा देवी महामाया मंदिर ट्रस्ट बनाकर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया है। दर्शनार्थियों की सुविधा के लिए धर्मशाला, यज्ञशाला, भोगशाला और अस्पताल आदि की व्यवस्था की गई है। नवरात्र में श्रद्धालुओं की भीड़ '' चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है...'' का गायन करती चली आती है।

सरगुजा की महामाया और समलेश्वरी देवी -समलेश्वरी देवी

वनांचल प्रांत की सीमा से लगा छत्तीसगढ़ का आदिवासी बाहुल्य वनाच्छादित जिला मुख्यालय अम्बिकापुर है। यहाँ की एक पवित्र पहाड़ी पर महाकवि कालिदास का आश्रम था। विश्व की प्राचीनतम नाट्यशाला भी यहाँ की रामगढ़ पहाड़ी में स्थित है। त्रेतायुग में श्रीराम और लक्ष्मण लंका जाते समय देवियों की इस भूमि को प्रणाम करने यहाँ आए थे। यहाँ आज भी महामाया और समलेश्वरी देवी एक साथ विराजित हैं। तभी तो छत्तीसगढ़ गौरव के कवि पंडित शुकलाल पांडेय गाते हैं -
यदि लखना चाहते स्वच्छ गंभीर नीर को
क्यों सिधारते नहीं भातृवर! जांजगीर को?
काला होना हो पसंद रंग तज निज गोरा
चले जाइये निज झोरा लेकर कटघोरा
दधिकांदो उत्सव देखना हो तो दुरुग सिधारिये
लखना हो शक्ति उपासना तो चले सिरगुजा जाईये।।

कवि की वाणी ने निकटवर्ती श्रद्धालु जनता के मन की बात को ही कविता का रूप दिया है, तभी तो सरगुजा आज अद्वितीय शक्ति उपासना का केंद्र है। छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि सुदूर उड़ीसा के संबलपुर की समलेश्वरी देवी, रतनपुर की महामाया देवी और चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी की प्रतिमाएँ भी सरगुजा की भूमि से ही ले जाई गई हैं।

चंद्रपुर की चंद्रसेनी देवी -

महानदी और मांड नदी से घिरा चंद्रपुर, जांजगीर-चांपा जिलान्तर्गत रायगढ़ से लगभग ३२ कि.मी. और सारंगढ़ से २२ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ चंद्रसेनी देवी का वास है। किंवदंती है कि एक बार चंद्रसेनी देवी सरगुजा की भूमि को छोड़कर उदयपुर और रायगढ़ होते हुए चंद्रपुर में महानदी के तट पर आ गईं। महानदी की पवित्र शीतल धारा से प्रभावित होकर यहाँ पर वे विश्राम करने लगीं। वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी उनकी नींद नहीं खुली। एक बार संबलपुर के राजा की सवारी यहाँ से गुज़री और अनजाने में उनका पैर चंद्रसेनी देवी को  लग गया और उनकी नींद खुल गई। फिर एक दिन स्वप्न में देवी ने उन्हें यहाँ मंदिर के निर्माण और मूर्ति की स्थापना का निर्देश दिया।

प्राचीन ग्रंथों में संबलपुर के राजा चंद्रहास द्वारा मंदिर निर्माण और देवी स्थापना का उल्लेख मिलता है। देवी की आकृति चंद्रहास जैसी होने के कारण उन्हें ''चंद्रहासिनी देवी'' भी कहा जाता है। इस मंदिर की व्यवस्था का भार उन्होंने यहाँ के ज़मींदार को सौंप दिया। यहाँ के ज़मींदार ने उन्हें अपनी कुलदेवी स्वीकार कर पूजा अर्चना प्रारंभ कर दी। आज पहाड़ी के चारों ओर अनेक धार्मिक प्रसंगों, देवी-देवताओं, वीर बजरंग बली और अर्द्धनारीश्वर की आदमकद प्रतिमाएँ, सर्वधर्म सभा और चारों धाम की आकर्षक झाँकियाँ लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कवि तुलाराम गोपाल देवी चंद्रसेनी की प्रशंसा में कहते हैं-
खड़ी पहाड़ी की सर्वोच्च शिला आसन पर, तुम्हें देख वाराह रूप में चंद्राकृति पर
जब मन ही में प्रश्न किया सरगुजहीन बाली महानदी की बीच धार की धरती डोली।

बस्तर की दंतेश्वरी देवी -

बस्तर की अधिष्ठात्री दंतेश्वरी देवी हैं जो यहाँ के काकतीय वंशीय राजाओं की कुलदेवी हैं, इन्हें शक्ति का प्रतीक माना जाता है। यहाँ स्थित शंखिनी डंकनी नदी के बीच दंतेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि भारत की शक्तिपीठों में एक दंतेवाड़ा में शक्ति का दांत गिरने के कारण यहाँ की देवी दंतेश्वरी देवी के नाम से प्रतिष्ठित हुईं। देवी के नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसाया गया जो आज दंतेवाड़ा जिले का मुख्यालय है। बस्तर की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि राजा प्रताप रुद्रदेव के साथ दंतेश्वरी देवी आंध्र प्रदेश के वारंगल राज्य से यहाँ आई। मुगलों से परास्त होकर राजा प्रताप रूद्रदेव वारंगल को छोड़कर इधर उधर भटकने लगे। देवी आराधक तो वे थे ही, वे उन्हीं की शरण में गए। तब देवी माँ का निर्देश हुआ कि '' मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन घोड़े पर सवार होकर तुम अपनी विजय यात्रा आरंभ करो, जहाँ तक तुम्हारी विजय यात्रा होगी वहाँ तक तुम्हारा एकछत्र राज्य होगा...।'' राजा के निवेदन पर देवी माँ ने उनके साथ चलना स्वीकार कर लिया। लेकिन शर्त थी कि राजा पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। अगर राजा पीछे मुड़कर देखेंगे, तब देवी माँ आगे नहीं बढ़ेंगी। राजा को उनके पैर की घुंघरुओं की आवाज़ से उनके साथ चलने का आभास होता रहेगा। राजा प्रताप रूद्रदेव ने विजय यात्रा आरंभ की और देवी माँ उनकी विजय यात्रा के साथ चलने लगी। जब राजा की सवारी शंखिनी डंकनी नदी को पार करने लगी तब देवी माँ के पैर की घुंघरू सुनाई नहीं दी और राजा पीछे मुड़कर देखने लगे। इस पर देवी ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया और वहीं उनकी प्रतिष्ठा की गई। बाद में राजा ने उनके लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया और उनके नाम पर दंतेवाड़ा नगर बसाया। बस्तर में कोई भी पूजा-अर्चना और त्योहार दंतेश्वरी देवी की पूजा के बिना पूरा नहीं होता। दशहरे के दिन यहां रावण नहीं मरता बल्कि दंतेश्वरी देवी की भव्य शोभायात्रा निकलती है जिसमें बस्तर के सभी देवी-देवता शामिल होते हैं। नवरात्र में बस्तर का राजा दंतेश्वरी देवी के प्रथम पुजारी के रूप में नौ दिन तक मंदिर में निवास करके पूजा-अर्चना करते थे। इसी प्रकार खैरागढ़ में दंतेश्वरी देवी की काष्ठ प्रतिमा स्थापित है जो खैरागढ़ राज परिवार की कुलदेवी है।

डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी देवी -

राजनांदगांव जिलान्तर्गत २५ कि.मी पर स्थित दक्षिण-पूर्वी रेलवे के डोंगरगढ़ स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही एक सुन्दर पहाड़ी पर बनी छोटी छोटी सीढ़ियाँ और उसके ऊपर बमलेश्वरी देवी के भव्य मंदिर का दर्शन होता है। प्राचीन काल में यह स्थान कामावती नगर के नाम से विख्यात था। यहाँ के राजा कामसेन बड़े प्रतापी और संगीत कला के प्रेमी थे। राजा कामसेन के ऊपर बमलेश्वरी माता की विशेष कृपा थी। उन्हीं की कृपा से वे सवा मन सोना प्रतिदिन दान किया करते थे। उनके राज दरबार में कामकंदला नाम की अति सुन्दर राज नर्तकी और माधवानल जैसे संगीतकार थे। एक बार राज-दरबार में दोनों का अनोखा समन्वय देखने को मिला और राजा कामसेन उनकी संगीत साधना से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने माधवानल को अपने गले का हार दे दिया। माधवानल ने इसका श्रेय कामकंदला को देते हुए वह हार उसको पहना दिया। इससे राजा ने अपने को अपमानित महसूस किया और गुस्से में आकर माधवानल को देश निकाला दे दिया। कामकंदला उनसे छिप-छिपकर मिलती रही। दोनों एक दूसरे को प्रेम करने लगे थे लेकिन राजा के भय से सामने नहीं आ सकते थे। माधवानल उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की शरण में गए और उनका मन जीतकर उनसे पुरस्कार में कामकंदला को राजा कामसेन से मुक्त कराने की बात कही। राजा विक्रमादित्य ने दोनों के प्रेम की परीक्षा ली और दोनों को खरा पाकर कामकंदला की मुक्ति के लिए पहले राजा कामसेन के पास संदेश भिजवाया। उसने कामकंदला को मुक्त करने से इनकार कर दिया। फलस्वरूप दोनों के बीच युद्ध होने लगा। दोनों वीर योद्धा थे और एक महाकाल का भक्त था तो दूसरा विमला माता का। दोनों ने अपने अपने इष्टदेव का आह्वान किया तो एक ओर से महाकाल और दूसरी ओर भगवती विमला माँ अपने अपने भक्त को सहायता करने पहुँचे। युद्ध के दुष्परिणाम को देखते हुए महाकाल ने विमला माता से राजा विक्रमादित्य को क्षमा करने की प्रार्थना की और कामकंदला और माधवानल को मिला कर वे दोनों अंतर्ध्यान हो गए। यही विमला माँ आज बमलेश्वरी देवी के रूप में छत्तीसगढ़ वासियों की अधिष्ठात्री है। अतीत के अनेक तथ्यों को अपने गर्भ में समेटे बमलेश्वरी पहाड़ी अविचल खड़ी है। यह अनादिकाल से जगत जननी माँ बमलेश्वरी देवी की सर्वोच्च शाश्वत शक्ति की साक्षी है।

इन पाँच देवियों के अतिरिक्त छत्तीसगढ़ में रायगढ़, सारंगढ़, उदयपुर, चांपा में समलेश्वरी देवी, कोरबा ज़मींदारी में सर्वमंगला देवी, जशपुर रियासत में चतुर्भुजी काली माता, अड़भार में अष्टभुजी देवी, झलमला में गंगामैया, केरा, पामगढ़ और दुर्ग में चंडी दाई, खरौद में सौराईन दाई, शिवरीनारायण में अन्नपूर्णा माता, मल्हार में डिडनेश्वरी देवी, रायपुर में बिलासपुर रोड में तथा पंडित रविशंकर शुक्ला विश्वविद्यालय के पीछे बंजारी देवी का भव्य मंदिर है। छुरी की पहाड़ी में कोसगई देवी, बलौदा के पास खम्भेश्वरी देवी की भव्य प्रतिमा पहाड़ी में स्थित हैं। नवरात्र में यहाँ दर्शनार्थियों की अपार भीड़ होती है।

७ अप्रैल २००८

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