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हास्य व्यंग्य

परमाणु बिजली और हैरतगंज के पेलवान जी
—मृदुल कश्यप


अमेरिका ने भारत को यों ही महाशक्ति की तरफ़ बढ़ता हुआ नहीं माना है। इसके पीछे निश्चित ठोस कारण है। दरअसल हमारे भारत महान की गली मोहल्ले चौराहों पर अनेक शक्तिपुंज विद्यमान है जो अपनी मातृभूमि को इस दिशा में धकेलने के लिए कमर कसे बैठे है। विश्व के अन्य लोगों की ही तरह ये सभी शक्तिपीठ बुश साहब की यात्रा पर खुर्दबीनी नज़र रखे हुए थे। इन्हीं में से एक हमारे हृदय सम्राट पेलवान जी भी थे। पेलवान जी ने अपनी दूरदृष्टि-दबंगता के मिश्रण से अनेक जटिल से जटिल समस्याओं का देशी स्टाइल यानी धोबी पछाड़ के माध्यम से आसान हल निकाला था। इतिहास गवाह है कि जब देश में जल परियोजनाओं के द्वारा बाँध बनाकर सिंचाई तथा विद्युत निर्माण शुरू किया गया था तब पेलवान जी ने किसान-भाइयों की ''गुप्त-ज्ञान'' दिया था कि सिंचाई के लिए जो पानी मिल रहा है उसमें से बाँध बनाकर पहले ही बिजली निकाल ली गई है। अब यह बिना बिजली का पानी फसल के किस काम का!

पेलवान जी के ही सत प्रयासों से परमाणु बिजली को भी लेकर क्षेत्र में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो गई। इस्तेमाल से पहले प्रत्येक वस्तु को ठोंक-बजाकर देखने की प्रवृत्ति उनके रक्त में कूट-कूटकर भरी थी। अपनी इस आदत और स्थिति की गंभीरता के मद्देनज़र, उन्होंने क्षेत्र के कुछ संभ्रांत लोगों को लेकर अंचल के इलेक्ट्रिक-एक्सपर्ट व बिजली विभाग से ताज़ातरीन सस्पेण्ड लाइनमेन छोटेलाल से अनौपचारिक गहन विचार विमर्श किया। पेलवान के दाएँ हाथ कहलवाने वाले फत्तन काका ने गंगू पान वाले की गुमटी पर आधा दर्जन पाऊच फाड़कर बैठक का विस्तृत ब्यौरा दिया। प्रस्तुत है संक्षेप में उनके कुछ फुटेज -

''ये परमाणु बिजली क्या होती है?'' पेलवान जी ने चक्की का टुकड़ा मुँह में चबाते हुए पूछा।
''जैसे पनबिजली वैसी ही परमाणु बिजली।'' छोटेलाल ने छोटा-सा जवाब दिया।
''पनबिजली में तो बाँध बनाकर बिजली निकालते है। इसमें बिजली कैसे निकालोगे?''
''इसमें परमाणु भट्टी बनाकर बिजली निकालते है।''
''बाँध तो हमने देख लिया है। पर यह परमाणु भट्टी कैसी होती है? अपने घर के चूल्हे या कोयले की सिगड़ी जैसी?''
''नहीं साब!''
''तो फिर गुरमीत पंजाबी के ढाबे के तंदूर जैसी होगी?''
''नहीं। मैंने भी देखी तो नहीं है पर ऐसी नहीं रहती।''
''अच्छा छोड़ो यार। पर बाँध में तो पानी में से बिजली निकालते है इसमें बिजली किस में से निकालोगे?''
''परमाणु...मेरा मतलब है यूरेनियम में से बिजली निकालते है?''
''फिर बिना बिजली के यूरेनियम का क्या करोगे? हमारे बाज़ार में बेचोगे?''
बातचीत ग़लत दिशा में जाती देख उनके एक साथी ने फुसफुसाकर कहा,  ''पेलवान, यूरेनियम हमारे यहाँ काम में नहीं आता। अत: आप आगे बढ़े।''
पेलवान बोले, ''अच्छा छोटू भाड़ में जाए तेरा यूरेनियम। कुछ भी करो उसका। तुम तो ये बताओ कि बिजली वैसी ही रहेगी ना जैसी अभी है?''
''हाँ। वैसी ही रहेगी।''
''लाइट जलेगी उससे?''
''हाँ।''
''खेत पर मोटर चलेगी?''
''हाँ।''
''रेडियो- टी.वी. चलेगा?''
''हाँ।''
''वैसे ही दो तार पर आएगी, एक फेस दूसरा न्यूट्रल या कुछ अलग होगा। कहीं तीन या चार तार तो नहीं जाएँगे?''
''नहीं।''
''कहीं बिना तार के मोबाईल फ़ोन जैसी तो नहीं आएगी?''
''नहीं साब। दो तार पर ही आएगी।''
''पक्का?''
''हाँ।''
''तेरी ग्यारंटी?''
''हाँ साब। भगवान कसम।''
''कहीं ए.टी.एम. के पासवर्ड जैसा चक्कर तो नहीं डाल दोगे?''
''नहीं साब।''
''तो फिर हम वैसे ही लंगर डालकर बिना मीटर के ले सकेंगे न बिजली?''

छोटेलाल ने पेलवान को इसका क्या उत्तर दिया होगा यह बतलाने की ज़रूरत नहीं। हाँ इसके बाद शहर के सांध्य दैनिक में पेलवान जी का वह बयान छपा जिसमें उन्होंने समझौते का खुलकर स्वागत किया था।

७ अप्रैल २००८

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