प्रवासी कथा
साहित्य में दीपावली
(महिला
कथाकारों के परिप्रेक्ष्य में)
- डॉ. मधु संधु
उत्सव- त्योहार, पर्व- रीति रिवाज, आस्था- विश्वास
किसी भी समाज, जाति, राष्ट्र की समृद्धि, वैभव और
हर्षोल्लास के द्योतक हैं। भारत के पास इसकी समृद्ध
परंपरा है। ऐसे में भारतीय यहाँ रहें या वहाँ दीपों के
त्योहार दीपावली की उन्हें प्रतीक्षा रहती ही है। यह
आलोक पर्व है। दीपावली अंधकार पर प्रकाश, अन्याय पर
न्याय, अत्याचार पर सदाचार, बुराई पर अच्छाई, अज्ञान
पर ज्ञान, पाप पर पुण्य की विजय का प्रतीक है। अपने
देश के पावन पर्व भुलाए नहीं जा सकते, अन्तर्मन में
गहरे समाये उनके बिम्ब धुँधलाए नहीं जा सकते, उनसे
नाता टूट ही नहीं सकता। भारत से दूर रहकर भी प्रवासी
अपने लिए संजीवनी/ आक्सीजन उस भारतीय संस्कृति से ही
संजोते हैं, जिसे अन्तर्मन की परतों में बिठा/ छिपा वे
उन दूर देशों में ले गए हैं। मानस की यही संपत्ति
उनमें जब-तब जीवट भरती है, खुशियाँ देती है, पहचान
बनाती है।
दीपावली हमारे देश की गौरव गाथाओं का सम्मुच्चय है।
दीपों के त्योहार का सांस्कृतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक,
भौतिक, वैज्ञानिक महत्व है। यह कार्तिक की अमावस्या को
मनाई जाती है। इस दिन मर्यादा पुरुषोतम राम आसुरी
शक्तियों पर विजय प्राप्त कर आयोध्या लौटे थे। यह
शक्ति की प्रतीक माँ काली का उपासना पर्व है। धन और
समृद्धि की देवी महालक्ष्मी का अवतार दिवस और आराधना
उत्सव है। भगवान महावीर का निर्वाण दिवस है। ऋद्धि,
सिद्धि, श्री का मंगल गान है। इसी दिन श्री कृष्ण की
मदद से सत्यभामा ने नरकासुर राक्षस का वध किया था। इसी
दिन पांडव तेरह वर्ष के वनवास के बाद अपने राज्य लौटे
थे। यह ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का समारोह है।
पर्यावरणीय दृष्टि से देखें तो दीपक जलाने से हवा
शुद्ध होती है, तापमान हल्का होता है। पूजा स्थलों पर,
हर घर में दीपावली की धूम रहती है। उपहार, मिठाइयाँ और
सूखे मेवे वितरित किए जाते हैं। देवी लक्ष्मी की पूजा
की जाती है। दीपक, मोमबत्तिया या विद्युतीय बल्ब जलाए
जाते हैं। रंगोली बनाई जाती है। आतिशबाज़ी की जाती है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इसे आलोक पर्व और उल्लास
का उत्सव मानते लिखते हैं- “कम से कम ढाई तीन हजार
वर्षों के मानव चित्त के उमंग और उल्लास की कहानी इस
पर्व के साथ जुड़ी है। ---दो सौ पीढ़ियों तक जो पर्व
मनुष्य के चित्त को आनंद से उद्वेलित कर सका है, वह
क्या मामूली पर्व है।“ विष्णु प्रभाकर की पहली कहानी
का शीर्षक ‘दीवाली के दिन’ था। इलाचन्द्र जोशी ने
‘दीवाली और होली’ कहानी लिखी। जयशंकर प्रसाद की
‘चक्रवर्ती का स्तम्भ’ की नायिका का मन स्तम्भ में
दीपमाला को देख पुलकित हो उठता है।
मृदुला
सिन्हा की कहानी ‘एक
दिये की दीवाली’ अंतरजाल के पाठकों को मोह
रही है। मधु संधु की ‘दीपावली@अस्पताल.कॉम’ आज की
स्थितियाँ लिए है।
प्रवासी महिला कथाकारों का साहित्य दीपावली के अनेक
चित्र लिए है। भारतीय भारत मे हों, अमेरिका में या
यूरोप में, दीपावली यानि दिये की लौ का उनके लिए विशेष
महत्व है।
शैल अग्रवाल की ‘दिये
की लौ’ में दीपावली का उत्सव है। संगीत लहरियाँ
उत्सव मे प्राण संचारित कर रही है। रविशंकर,
बिस्मिल्लाह खाँ का संगीत बनारस की देन है। अविक कुछ
देर पहले ही हॉस्टल आया है। कमरे में कुछ और मित्र भी
आते हैं। अविक माँ द्वारा दी पूजा सामग्री और दीपक
निकाल पहले पूजा करता है, फिर सभी दीवाली बाजार जाते
हैं और फिर एक घंटे का सफर करके वापिस घर पहुँचते हैं।
यहाँ दीपों, घण्टियों, बंदनवार, रोली, पूजा, प्रणाम,
आशीर्वाद, भोजन आदि से माँ उनका वैसे ही स्वागत करती
है, जैसे चौदह वर्ष बाद लौटे राम का कभी हुया था।
पूर्णिमा
वर्मन की कहानी ‘उसकी
दीवाली’ में दो साल पहले नंदिता त्रिवेदी ने
‘संस्कृति’ नाम से बुटीक खोला था। दीवाली के दिन हैं।
ग्राहकों की भीड़, काम की अधिकता, निपटाने की तत्परता
से वह दो-चार हो रही है। दूकान की दीवाली, घर की
दीवाली, ग्राहकों की दीवाली, कारीगरों की दीवाली,
मायके की दीवाली, दूकान पर आए किन्नरों की दीवाली–
कहीं कोई कमी नहीं छोडती। थक कर चूर चूर हो जाती है।
पर दीवाली की रात दिन भर की सारी थकान आतिशबाज़ी के
धुएँ की तरह घनी होकर धीरे-धीरे गायब होने लगती है-
“आसमान में सितारे टिमटिमा रहे थे और ज़मीन पर दिये।
नंदिता के चेहरे पर भी संतोष की आभा फैलने लगी। वह देर
तक बूंदी के लड्डुओं की मिठास, दीयों के प्रकाश और
रंगोली के रंगों में डूब कर दीपावली के साथ एकसार होती
रही, तब तक, जब तक माँ की पुकार ने उसे रात के खाने की
याद नहीं दिला दी।“ कहानी नन्दिता त्रिवेदी के मन में
बसे त्योहार के उल्लास और गहमागहमी को लिए है।
दिव्या
माथुर की ‘खल्लास’ इंग्लैंड की सुरक्षित ज़मीन पर
रहने वाली असुरक्षित युवती नीरा की कहानी है। सारे
विपरीत वातावरण के बावजूद अमीर देश की इस गरीब युवती
नीरा की संगीत- नृत्य और त्योहारों में विशेष रूचि है।
वह गुजराती भावना के साथ मिलकर दीवाली मनाती है, गरबा
नृत्य करती है।
अनिल
प्रभा कुमार की ‘दिवाली
की शाम’ के मायादास और लक्ष्मी बहुत पहले दिल्ली
के पटेल नगर से अमेरिका में स्थानांतरित हो गए थे। एक
ओर बुढ़ापा है और दूसरी ओर प्रौढ़ बेटे- बेटियों का
अस्थिर जीवन। फिर भी दीवाली की रात- “रसोई के बायीं
ओर, मंदिर वाले कमरे में जाकर सभी बैठ गए। चाँदी की
बड़ी-सी थाली में, सात चाँदी के ही दीये जगमगाने लगे।
जयपुर से ख़ास लाई गई संगमरमर की मूर्तियाँ, उनके लिए
ज़री के वस्त्र, सोने का पानी चढ़े आभूषण और लाल रंग
का सिर्फ़ पूजा के लिए ही रखा गया कालीन।“
गणेश-लक्ष्मी के सिक्कों को दूध से धोकर, केसर और चावल
का तिलक लगाया जाता है। आँखें बंद करके आरती की जाती
है। लेकिन महलनुमा घर, महंगी कारों, भारी भरकम बैंक
बैलेन्स के बावजूद परिवार अकेलेपन की विसंगति से जूझ
रहा है। सबकी एक ही इच्छा है कि अगली दीवाली भारत जाकर
ही मनाई जाये। पड़ोस का अँधियारा या दीपक शून्य शांत घर
नायक को विचलित करते हैं।
गरबा, दुर्गापूजा का दीपावली से गहरा संबंध है।
अर्चना
पेन्यूली की ‘अनुजा‘ में भारतीय समुदाय डेनमार्क
के मंदिर में भारत से कीर्तन मंडलियाँ बुला कर त्योहार
मनाते हैं। इला प्रसाद की ‘कुंठा‘ में कभी दुर्गा पूजा
पर, कभी गरबा नृत्य पर लोग मिलते रहते हैं।
पराये देश, पराये लोगों और स्थानीय संस्कृति के बीच
अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए और बचाए रखना पात्रों के
अन्तर्मन की आवाज़ ही है।
सुषम बेदी
के उपन्यास ‘हवन’ में गुड्डो हवन करती है। दीपावली पर
लक्ष्मी, गणेश, राम, सीता की पूजा की जाती है। गायत्री
मंत्र का पाठ किया जाता है। उनके ‘इतर’ में गुरु
पूर्णिमा और नवरात्र तथा मोरचे में दशहरे, का जिक्र
है।
ब्रिटेन, अमेरिका, कैनेडा, सिंगापुर, डेनमार्क- हर देश
में एक मिनी भारत अपना अस्तित्व सँजोये है।
हंसा दीप
के ‘बंद मुट्ठी’ में सिंगापुर का विदेशी माहौल भी
भारतीयता से सराबोर है। यहाँ भारतीयों की बस्ती, वार-
त्योहार, भाषा, धार्मिक आयोजन, रस्मों-रिवाज, भारतीयों
की दुकानें- कंपनियाँ उनकी पहचान और जीवंत अस्तित्व की
उद्धोषक हैं। ठीक ऐसा ही एक भारत कैनेडा में भी बसा
है।
अर्चना पेन्यूली के ‘वेयर डू आई बिलांग’ के डेनमार्क
में अनेक मंदिर हैं- भारतीय प्रभाव की आध्यात्मिक
संस्थाएं हैं। जैसे रविशंकर का आर्ट्स ऑफ लिविंग, माँ
आनंदमयी, ब्रहमकुमारी संस्था, नारायण स्वामी आश्रम,
इस्कान मंदिर, अष्टांग योगा सेंटर, राम चंद्र मिशन का
सहज मार्ग, मेडिटेशन सेंटर, हरे कृष्णा मंदिर, बुद्ध
टैम्पल, सिद्धि विनायक मंदिर। हैं। लोग मंदिरों में
व्रत त्योहार का आयोजन करते हैं, लंगर का खाना खाते
हैं। दीपावली- जन्माष्टमी मनाते हैं। भारत से भजन
मंडलियाँ बुलाते हैं। संघ, शाखा, मंदिर, डेनिश- इंडियन
सोसायटी आदि भारतीय संस्कृति को जीवित रखने के उपक्रम
ही हैं।
नीना पॉल के ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ में ब्रिटेन
में धार्मिक आयोजनों के लिए कम्यूनिटी सेंटर और
मन्दिर- सब हैं। ‘कुछ गाँव गाँव कुछ शहर शहर’ में ‘बोन
फायर नाइट’ और ‘क्रिसमस’ को ‘दीवाली’ की तरह पटाखे
चलाये जाते, रोशनी की जाती हैं। भारतीयों और
पाकिस्तानियों में चाहे कितनी भी असमानताएं हों, लेकिन
उनमें एक सौहार्द और भाईचारा है। दीवाली और ईद मिलजुल
कर मनाते हैं। ‘हैलोवीन’ और ‘गाय फॉक्स नाइट’ बहुत कुछ
भारतीय ‘लोहड़ी’ और ‘दशहरे’ जैसे त्योहार है।
हंसा दीप
के उपन्यास ‘केसरिया
बालम‘ की धानी राजस्थान से अमेरिका के एडीसन
पहुँचने के बाद भी आँगन की रंगोली और दीवाली के पटाखों
के बीच जगमगाती रोशनियों को याद करती है- जब वह माँ-
बाबा के साथ जयपुर खरीददारी जाया करती थी, बड़े होटलों
में खाना खाया जाता था। कामगार मन से पूरे घर की
सफाइयाँ करते थे। माँ पुरस्कार स्वरूप उन्हें कपड़े,
मिठाइयाँ और उनके बच्चों को पटाखों का इनाम देती थी।
यह त्योहार मन के दिये प्रज्ज्वलित करता है। रंगोली के
रंग जीवन में बिखेरता है।
भारतवंशियों ने विश्व में जहाँ- तहाँ मिनी भारत का
सृजन कर उसे भारतीय संस्कृति के भिन्न त्योहारों होली,
नवरात्र, दीवाली, जन्माष्टमी के रंगों से सराबोर कर
दिया है। इला
प्रसाद के उपन्यास ‘रोशनी आधी अधूरी सी’ में बनारस
और मुंबई आई. टी. के परिसर में, अमेरिका में शिव,
विष्णु, लक्ष्मी के मंदिर का उल्लेख है। नवरात्रि के
दौरान डांडिया रास के आयोजन का वर्णन है।
यह श्रद्धा और पवित्रताबोध से जुड़ा पर्व है। दीपावली
के दिये हमारी सांस्कृतिक मान्यताओं, धार्मिक भावनाओं
से जुड़े हैं। दीपावली के दीपक मन के दिये तो जलाते
हैं, लेकिन मन में एक चाहत रहती है कि आसपास, धरती-
आकाश सब जगमग कर रहा हो और यह कमी भारतीय प्रवासी को
उदास कर जाती है। दीपकीय प्रकाश के साथ– साथ आतिशबाज़ी
करके खुशियों को दुगुना करना भारत में ही संभव है।
विदेश में इस कमी को महसूस किया जाता है। आतिशबाज़ी का
जिक्र प्रवासी कथासाहित्य में नहीं मिलता। बहुत पैसा
है वहाँ, किन्तु सारी संपन्नता के बावजूद मन में
जीवनपर्यन्त एक इच्छा तो कसमसाती है कि अगली दीवाली
अपने देश में मनाई जाये, भले ही अपने देशी- विदेशी
मित्रों और परिवार का साथ आलोक पर्व को उल्लासों से,
आशावाद से, जीवन और जीवट से भर देता हो।
१ नवंबर २०२३ |