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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में प्रस्तुत है
भारत से मृदुला सिन्हा की कहानी- एक दिये की दिवाली


गणेश किसी से हार मानने वाला नहीं था। मधुबनी के छोटे से गाँव के कोने में बसी दस झोपड़ियों में से एक झोपड़ी उसकी थी। उसका जीजा उसे शहर उठा लाया था। उमर होगी पन्द्रह-सोलह की। यह तो हमारा अनुमान था जब उसकी माँ को ही बेटे के जन्म की न तिथि, न महीना, न साल याद थे तो बेटे को क्या पड़ी थी अपना जन्मदिन याद रखने की। उसे कौन सा अपना जन्मदिन मनाना था और हर जन्मदिन पर मोमबत्ती की एक संख्या बढ़ानी थी।
"गणेश तुम कितने साल के हो?" मेरे बेटे ने पूछा था।
"हम... हम दस साल के हैं।"
"चल हट मूछ निकल आई और दस साल का है, झूठा कहीं का।"
वह रोनी सूरत बनाकर मेरे पास आ गया-
"मम्मी मैं दस साल...
"हाँ हाँ तुम नौ साल के ही हो। जाओ काम करो, डस्टिंग कर लो, गमलों में पानी डालो।"

वह भी हँसता हुआ अपने काम में जुट जाता उसकी हाँ में हाँ मिलाने के लिए मैं ही तो अकेली थी इस घर में। दिल्ली आए छह महीने हो गए। जिस दिन उसका जीजा उसे मेरे पास लेकर आया था उसे उठने बैठने का भी शऊर नहीं था। अक्सर बाहर बालकनी में जाकर खड़ा हो जाता। आसमान या सामने पार्क की हरी-भरी धरती पर निगाहें टिकाए पता नहीं क्या सोचता रहता।

"गणेश क्या कर रहे हो?" चौंक उठता गणेश। उसके हाथ में घर की सफाई करने का जो भी हथियार उस वक्त रहा होता उसे चलाने लगता। कभी पोंछा लगाते-लगाते बीच में ही खो जाता। पोछा पकड़े अन्यमनस्क बैठे गणेश को मेरे घर का कोई सदस्य टोंक दे- "गणेश सो गए क्या?" तो उसका हाथ चलने लगता। काम के बीच में स्वेच्छा से मारे मध्यान्तर के समय की क्षतिपूर्ति में हाथ की रफ्तार भी तेज हो जाती। एक माह तक तो हम घर वाले अक्सर आपस में चिंता व्यक्त करते- "गणेश कुछ बोलता क्यों नहीं?"

स्वाति नक्षत्र की बूँद धरती पर पड़ते ही गणेश कठोर हो गया और प्रतिदिन दो चार पाँच शब्दों से बढ़कर शहर में अपनी आयु के दूसरे महीने में प्रवेश करते ही जिस दिन पाँच सौ शब्द बोल गया, मेरे बेटे ने डाँटा- "क्या बात है हर समय बक-बक करते रहते हो।"
वह हाथ मटका कर सिर हिलाकर कहता- "हम कहाँ बक-बक करते हैं।"

हम कह रहे थे और उसका कहना कोई दूरदर्शन पर दिखाए गए सार्थक दृश्यों की तरह अल्पायु का नहीं होता था। गणेश का हर कथन कई-कई दिन चलने वाली लोक कथाओं की तरह जारी रहता। हमें इतना अवश्य मालूम पड़ गया था कि छह महीने में, छह क्षण के लिये भी गाँव, खेत, खलिहान, झोपड़ी और माँ से उसका बिछोह नहीं हुआ था। अपने पीछे छोड़ आए गाँव और परिवेश के प्रति कोई हीन भाव भी नहीं था उसके मन में। उस दिन बड़े मनोयोग से खीर बनाई थी मैंने। पूछा- "गणेश खीर खाई कैसी लगी?" इस विश्वास के साथ कि गणेश की जिह्वा पर चार लीटर दूध में सौ ग्राम चावल और मेवे वाली खीर शायद पहली बार पड़ी होगी।

मेरी खीर के प्रशंसा कहाँ करता वह, वह तो अपनी माँ द्वारा बनाई एक पाव दूध, आधा किलो चावल, दो लीटर पानी और आधा किलो गुड़ में बनी खीर के स्वाद में डूब गया। हे मम्मी हमरो माई खीर बनाईत है, बड़ा मीठा, मुँह से ना छूटे।

हे हमार बाबू खूब खात रहे खीर पूरा थाली भर के। फगुआ के दिन थाली भर खीर देले हमर माँ। उसकी माँ ने भी होली के दिन अवश्य खीर बनाई होगी पर मेरी खीर और उसकी माँ की खीर के रूप रंग स्वाद में अंतर का अनुमान तो मुझे था। गणेश ने हल्के से भी मेरी खीर की प्रशंसा नहीं की। लगता है मेरे द्वारा दी गई एक छोटी-सी कटोरी में चार चम्मच खीर थामे वह अपने अतीत में पहुँच माँ द्वारा पूरी थाली भरकर परोसी गई खीर के स्वाद में डूब गया। मेरी खीर का स्वाद उसकी जिह्वा पर उतरा ही कहाँ?

उसके द्वारा यही गति मेरे घर में बने अन्य व्यंजनों की भी होती। किचन में बेसन की सब्जी, मक्के की रोटी, सूजी का हलवा बनना प्रारंभ होते ही गणेश शुरू हो जाता- हे हमरो माई बनावत है...
और फिर अपनी माँ द्वारा उस व्यंजन के बनाने की कथा का श्री गणेश कर वह इतिश्री भागवत कथा प्रथम अध्याय के लिए कहाँ थमता था।

निश्चय ही उसकी झोंपड़ी और दिल्ली में मेरे तीन कमरे के फ्लैट की तुलना में कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली कहावत का कद भी ओछा पड़ जाता। पर गणेश तो गणेश था मेरे मार्बल पत्थर लगे फर्श पर पोंछा फेरता अपनी माँ के गोबर सने हाथों को समेट हृदय से लगा सराबोर हो जाता- हे हमरो माई घर लिपता है रोज-रोज गोबर से।
चुपकर शुरू हो जाता है

अपने को कम आँकने की उसकी औकात नहीं थी मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता था गणेश की उम्र के बच्चों द्वारा अपनी माँ को सर्वोत्तम साबित करना मुझे सुखकर लगता। पर मेरे बारह वर्षीय बेटे से उसकी अकड़ बर्दाश्त नहीं होती दोनों में अक्सर ठन जाती। मुझे बीच बचाव करना पड़ता उसकी मैथिली में हिंदी घुलती जा रही थी मेरे बेटे ने उसे पराजित करने के लिए अंग्रेजी बोलना प्रारंभ कर दिया।
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गणेश मुँह बिचकाता बोला- "हुँह हमरो माई..."
हम सब ठहाका मार कर हँस पड़े। वह चुप हो गया, पर चेहरे पर शर्मिंदगी नहीं थी। हम जैसे ना समझों को अपनी न समझा पाने की बेबसी अवश्य थी।
जबरन हँसी रोकती मैं बोली- "क्या तुम्हारी माँय भी अंग्रेजी बोलती है?" हम सबके बीच हँसी का एक और ज्वार उठा, पर गणेश हँसा नहीं। पहली बार गंभीर हो गया। एक दिन गंभीर ही रहा शाम को उसे सहज बनाने के लिए मैंने पूछा- "गणेश क्या बात है?"
"कुछ नहीं।"
मुँह फेर कर वह बालकनी में चला गया मैं उसके सामने जाकर खड़ी हो गई। वह निर्निशेष आकाश निहार रहा था। आकाश ने भी निराश नहीं किया उसे। जल की दो बूँदें तैर उठीं उसकी गर्वीली आँखों में। नयन नम हुए थोड़ी देर के लिये ही सही।

"गणेश, माँ की याद आई क्या?" फिर स्नेह के दो बोल उसे आश्वस्त कर गए। सदा की तरह अपनी बत्तीसी चमकाते हुए बोला- "हमार माय अँग्रेजी नहीं बोलती। हम जब दिल्ली आ रहे थे हमार माय बोली अंग्रेजी पढ़ लेना तभी दिल्ली में टिक पाओगे। वही हम कह रहे थे कि भैया से हम भी अंग्रेजी सीखेंगे।"
"ठीक है, ठीक है, अभी हिंदी पढ़ना शुरू किया है। हिंदी पढ़ लो फिर अंग्रेजी भी सिखा दूँगी। अब झटपट दूध ले आओ और कपड़े सब उठाओ। मेरे स्नेहिल दो बोल से अधिक उसके मन की बात निकल जाने से उसके मन का मलिन धुल गया था और मेरा मन निश्चित हुआ था कि वह हर्षित होता दूध का डिब्बा उठा किचन में चला गया था।

नवरात्रि के दिनों में भी दिल्ली का दशहरा, देवी पूजन तथा रामलीला की विधि विधानों के ऊपर चढ़कर बोलता रहा उसके गाँव का देवी पूजन मेला। लाल चमकउआ साड़ी पहनकर उसकी माइ का मेला देखने जाना, मेले में पचास पैसे का गुब्बारा और एक रुपए का बताशा खरीदना, माँ के ललाट पर बड़ी-सी टिकुली का चमकना, उसके पाँव में पहली बार हवाई चप्पल का पड़ना और न जाने क्या क्या।

अब दीपावली की बारी थी इधर मेरे घर की रंगाई पुताई साफ सफाई प्रारंभ हुई। उधर गणेश की माँ की झोपड़ी के झाड़पोंछ, लिपाई-पुताई का आँखों देखा हाल मेरे घर रूपी आकाशवाणी के इस स्पेशल गणेश कथा चैनल पर प्रसारित होता रहा। मुझे यह तो अंदेशा था ही कि दिल्ली की दीपावली को भी उस चैनल का उद्घोषक फीका ही करार कर देगा समय का इंतजार था। दीपावली के दो-तीन दिन पूर्व से ही प्रारंभ हुए बम पटाके की आवाज उसके कानों में पड़ते ही पूछ बैठा- "ई का होय मम्मी यह कैसी आवाज है?"
"दीपावली आ रही है ना, बच्चे पटाखे और बम फोड़ रहे हैं।"
"अभी क्यों आज तो दिया बत्ती नहीं है ना?"
अब मैं कहाँ उसके साथ झकझक करती, बोली- "यहाँ सब दिन दिवाली होती है। जा अपना काम कर। अभी कितना काम बाकी है।"
"हे मम्मी हमरो माय अपन टीन वाला पेटी धोयते होय। वही पिटारी में मायके चमक हुआ साड़ी और एक दो..."
"चुप कर समझ गई तुम्हारी माँ के पास पिटारी भी है अच्छी साड़ी भी तुम्हारे घर में सब चीजे हैं। अब इन चारों गोदरेज की अलमारी को तो साफ कर। सारी दीवार अलमारियों किचन के ऊपर खाने में पड़े पचासों पीतल काँसे और स्टील के बर्तन बाकी हैं।" मैं स्वयं उसके साथ साफ सफाई में हाथ बटाती काम के बोझ से दबी जा रही थी। पर गणेश था कि न मेरी भरी अलमारी न ढेर भरे बर्तनों के बोझ तले दबने को तैयार। मुझे भी कहाँ पड़ी थी उसकी स्मृतियों को काटने छाँटने की।
"हे मम्मी हमार माय दिया बत्ती की रात..."
"चुप कर ना, अभी दिवाली बीत जाने दे फिर सुनाना अपनी माय द्वारा मनाई गई दिवाली वृतांत आराम से बैठकर सुनूँगी।" वह चुप कहाँ हुआ किचन में मिठाइयाँ बनाती, अल्पना करती, दिया जलाती मैं उसे चुप कराती रही। वह कहाँ मानने वाला था।

रात्रि के दस बजे के बाद वह अचानक चुप हो गया। पटाखे छोड़ने व फोड़ने मेरे बेटे के साथ नहीं गया। मेरे बेटे के अनुग्रह पर भी नहीं। मेरे बेटे ने कहा- "चल ना गणेश, छत पर चल बम छोड़ेंगे। मैं तुम्हारे माय की दिया बत्ती वाली कहानी सुन लूँगा। चल ना..."

उसे मनुहार का कोई असर ना हुआ उस पर। छत के कोने में जाकर खड़ा हो गया। पटाखों की आवाज सुनता रहा। शायद रात भर। सुबह हमारी आँखें भी देर से खुलीं। मैंन आवाज़ लगाई- "गणेश.. गणेश..."
वह नहीं आया। मैं छत पर गयी। वह एक कोने में दुबका बैठा नींद खींच रहा था। मैंने डाँटकर कहा- "क्या जागता रहा रात भर?"

उसका मुँह लटका हुआ था। निस्तेज हारा थका। रात भर जलकर बुझे मेरे पूजाघर के दिये जैसा। सड़कों पर ठंडे पड़कर ढेर हुए बम पटाखों और फुलझड़ियों के अवशेष जैसा। मैंने उसका वह रूप नहीं देखा था। चिंतित होती उसे नीचे उतार लाई। चाय पीते हुए मैंने पूछा- "क्यों गणेश, अब सुनाओ तुम्हारी माय की दिया बत्ती कैसी होती है।"
वह चुप था। सिर नीचा किये हुए। माई का नाम सुनकर भी गणेश का निःशब्द रहना मुझे अचंभित कर गया। मेरे बेटे के झकझोरने पर टंकी में पानी खत्म हो जाने पर टैप खोलने की भाँति उसके कंठ से इकट्ठे रिसने लगा- "हमार माय रात भर एगो दिया जल के छोड़ देत रहे..."

करोड़ों रुपये फूँककर मनाई दिल्ली वालों की दीपावली के नीचे उसकी माय की दिया बत्ती कितनी छोटी पड़ी थी। इसका न आश्चर्य न गम था। मुझे उसकी स्थिति देखकर गम था तो उसकी माय का मम्मी के आगे छोटी पड़ने का। मैं कभी नहीं चाहती थी उसकी माय मम्मी से पराजित हो जाए गणेश की माँय तो माय थी उसके लिए अपराजिता। उसने एक ही दिए की दिवाली मनाई तो क्या ?

१ नवंबर २०२३

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