जब
धानी के जीवन में बाली का प्रवेश हुआ तो एक टीस थी कि सखी बहुत
दूर जा रही है पर उसकी चमकती आँखें इस बात का संतोष देतीं कि
वह बहुत खुश है इस रिश्ते से। वैसे भी देश-विदेश में कोई दूरी
नहीं थी अब।
“देख, यहीं से दिख जाता है अमेरिका”
“कहाँ” धानी आँखें मिचमिचाती पूछती।
“अपने मन की आँखों से देख, वो दिखाई तो दे रहा है!”
और सचमुच धानी देख लेती। पानी के किनारे अट्टालिकाओं का झुरमुट
दिख जाता जो सस्नेह आमंत्रित कर रहा होता। राजस्थान की अपनी
बेटी को सपने दिखाता। वह पहुँच जाती वहाँ, बगैर किसी ना-नुकुर
के। कुँवारी कल्पनाएँ कितनी मासूम थीं! जीवन एक ऐसा सुंदरतम
अहसास देता कि हर पल अनूठा हो जाता। उम्र के उस दौर के बेहतरीन
और खुशनुमा पल जो छुई-मुई से मिले-जुले भावों की सिहरन होते,
अंग-अंग से छलकती कल्पनाएँ अपने शीर्ष पर होतीं। मन मचल-मचल
जाता, संभाले नहीं संभलता।
अपनी लाड़ली का दमकता चेहरा माँसा-बाबासा को चिंतामुक्त करता,
अपार खुशियाँ देता। धानी की बोलती हुई आँखें इशारा कर देतीं कि
बिटिया वह सब कुछ पा रही है जो पाना चाहती थी। एक टीस-सी उठती
इतनी दूर भेजने की पर जल्दी ही कहीं गुम भी हो जाती। जब धानी
को चहकता देखते सब कुछ भूल कर खुश हो जाते।
एक-दूसरे को सांत्वना देते – “सुना है कि राजस्थान के घर में
बैठे-बैठे अब तो अमेरिका में बात हो जावे। सबका मुँह देखकर
बातें कर लो।”
“हाँ, रोज सवेरे उठकर चेहरा देख लो।”
“हम भी रोज सुबह उठकर पहले लाडो से बात करेंगे।”
मन को आश्वासन देते। दूर-दूर के रिश्तेदारों के कई उदाहरण देते
जिनके बच्चे अमेरिका में बसे हैं पर हर साल एक महीने के लिये
घर आ ही जाते हैं। दूरियाँ रहीं कहाँ अब! सब एक दूसरे से ऐसे
जुड़े हुए हैं कि पल-पल की खबर मिलती रहती है। तकनीकी जाल ऐसा
बिछा हुआ है कि सब एक दूसरे से दूर होकर भी बहुत करीब हैं। बस
यही एक संतोष था जो बेटी के दूर जाने की व्यथा को कम कर देता।
और फिर इस ज़िंदगी की साँझ में कब उनका दीपक बुझ जाए, बेटी को
अपने स्वार्थ के लिये जीवन में आगे बढ़ने से रोक नहीं सकते थे।
उसे अपने आसपास रखने की इच्छा तो होती पर दोनों एक दूसरे को
समझाते - वह इतनी खुश है, बस इसी में उनकी सबसे बड़ी खुशी है
और किसी बात की कोई अपेक्षा नहीं है।
सगाई का ढोल बजने वाला था।
“सुण लो बाबासा-माई,
लाडो थारी हो गई पराई
अब तो देनी होगी विदाई।”
आँसू टप-टप टपकते पर, हँसते हुए, मुस्कुराते हुए। खुशी के आँसू
थे जिनमें झिलमिलाती, जगमग करती, खन-खन खनकती थी बेटी की हँसी।
घर-चौबारा सूना करके जाएगी। जो घर उसकी किलकती आवाज से गूँजता
था, अब तरस जाएगा उसकी आवाज सुनने को। लेकिन यही तो रीत है।
माता-पिता खुशी से भेजते हैं अपने जिगर के टुकड़े को। उस
परिवार में भेज देते हैं जो बिल्कुल पराया है उसके लिये, पर
उसे अपना बनाने की ताकत भी तो वे ही देते हैं। माँसा-बाबासा को
भी वही ताकत देना है अपनी लाडो को।
धानी के बालपन की बातें तो अंदर तक पैठी हुई हैं, एक नहीं
हज़ारों बातें। छोटी से बड़ी होने तक की, बरसों पुरानी बातें
पर आज भी उतनी ही ताज़ी। कल की ही बात तो लगती है जब रोज सुबह
उठकर बाबासा उसे घुमाने ले जाते थे। रास्ते भर कई छोटी-छोटी
बातें समझाते थे। कोई शराब पीकर निकल रहा होता तो धानी उसे
देखकर डर जाती थी।
वे कहते – “डरना नहीं बेटा। कोई बुरा नहीं होवे, अभावों में
जीकर आदमी बुरा हो जावे है।”
“हर आदमी गुणों की खान होवे है। बस कोई थोड़ी-सी खुदाई कर दे,
वे गुण निकलते जावे हैं, एक के बाद एक।”
जिस बच्ची को अपने जीवन का सार समझाते रहते थे बाबासा, आज वही
बच्ची उन्हें समझाती है। फोन के बारे में, फेस टाइम करने के
बारे में, व्हाट्सएप के बारे में। कितना कुछ सीख लिया है इस
बच्ची ने! वे हैरान होते। बच्चा बन जाते जब वह उन्हें सिखाती।
“तेरा तुझको अर्पण” की तर्ज में आपने जो दिया उससे बिटिया की
ऋणमुक्ति हो जाती। कस्बे का ऐसा रौबदार आदमी जिसकी एक आवाज पर
कई लोग इकट्ठा हो जाते थे, आदर और सम्मान के साथ। सदा ही सफेद
इस्तरी किए हुए कपड़ों में रहते बाबासा जिनमें उनका सौम्य
व्यक्तित्व और निखर आता था। लोगों पर ऐसी धाक थी कि रास्ता
चलते कई लोग उन्हें हाथ जोड़ कर अभिवादन करते। वे ही बाबासा
अपनी बिटिया के सामने एक अज्ञानी बन जाते। एक उत्सुक छात्र की
तरह सीखने लगते। धानी भी उन्हें फोन पकड़ा कर यह पक्का कर लेती
कि अभी-अभी जो पाठ पढ़ाया है वह सीख लिया है या फिर ऐसे ही
गर्दन हिल रही थी।
परम्पराओं के पाठ तो उसने स्वयं पढ़ लिये थे पर ऐसे कई पाठ थे
जो बाबासाने पढ़ाए थे, माँसा ने पढ़ाए थे। जाने-अनजाने ही,
अपने जीवन से, अपनी बातों से और अपने कार्यों से। दुनिया की
यही तो रीत है कि बेटी को जाना ही है एक दिन और अपना घर बसाना
है। माँसा-बाबासा की उँगली पकड़ कर चलना सीखा था। अब उसकी बारी
है अपने बच्चों की उँगली पकड़ कर चलना सिखाने की। जिस छत के
नीचे उसने रौनक फैलायी थी अब वहाँ उसकी यादें धरोहर रहेंगी।
बीते सालों के समय के पैरों तले चलते रहेंगे घर के चौबारे,
यादों की जुगाली करते, उन्हें अपने में समाते हुए।
याद हैं वे दिन जब दीवाली के पटाखों के बीच जगमगाती रौशनी में
बाबासा उसे शहर की रौनक दिखाने ले जाते थे। रंगोली के वे रंग
उसे बेहद पसंद थे। अपनी बनायी रंगोली की तुलना कस्बे भर की
रंगोलियों से करती तो निराश हो जाती। लगता कि उसे अभी बहुत कुछ
सीखना है। उसकी अपनी रंगोली तो बड़ी फीकी-सी लग रही है। कहीं
लकीरें तिरछी हैं तो कहीं रंग फैल गए हैं।
“बाबासा, इन सबकी रंगोली तो मेरी रंगोली से बहुत अच्छी है।
मेरी तो बहुत खराब बनी है। मुझे तो कुछ आता ही नहीं।”
उसे उदास होता देख बाबासा कहते, “ये सारी रंगोलियाँ कितनी भी
अच्छी क्यों न हों, मेरे लिये तो सबसे अच्छी रंगोली मेरी धानी
लाडो की ही है।”
“सच्ची?”
“सच्ची” तब वह उनके गले में हाथ डाल कर ऐसे झूमती थी कि उन्हें
कहना पड़ता था कि – “थारी या मुस्कान पे तो थारे बाबासा सब कुछ
करे है।”
“थारी माँसा ने भी पूछ ले।”
माँसा भी सिर हिला कर, आँखों से उनकी बात का समर्थन कर देतीं
और बाबासा के साथ उसे गले लगा लेतीं। तीनों लोगों के शरीर अलग
होते थे लेकिन साँसें मिल कर एक हो जाती थीं। ऐसे जुड़ते आपस
में कि बीच में कहीं कुछ न रहे। वे तो एक दूसरे से ऐसे जुड़े
थे जहाँ कभी कोई दुराव-छिपाव हो ही नहीं सकता था। उस आँगन में
पली-बढ़ी थी, जहाँ प्यार और स्नेह का सागर था। स्नेहिल रिश्तों
में पलते-बढ़ते कभी ऐसा नहीं लगता कि कहीं कोई रिश्ता मन को
तोड़ भी सकता है।
दीवाली का उत्सव कई खुशियों को लेकर आता था। खरीददारी के लिये
सब जयपुर जाते। बड़ा शहर अच्छा लगता धानी को। बड़े-बड़े होटलों
में खाना खाते, बड़ी-बड़ी दुकानों से कपड़े खरीदते और खूब सारा
सूखा मेवा लेकर घर आते। काजू, अखरोट, बादाम, पिस्ता और दाख।
सूखे मेवे से भरी हुई घर की काँच की बरनियाँ दीवाली के आने का
आभास देतीं। मेवा-मिष्ठान्न से भरपूर घर। अपने घर के काम करने
वालों को भी दीवाली पर खूब इनाम दिया जाता। अच्छे कपड़े,
मिठाइयाँ और उनके बच्चों के लिये पटाखे ताकि वे भी अपने परिवार
के साथ दीवाली मना सकें। यही तो वजह थी कि सारे काम करने वाले
भी इस घर के हर सदस्य को चाहते थे। मन से काम करते, मन से सेवा
करते और उतने ही मन से पुरस्कार पाते।
पीढ़ियों पुराने इस घर के जर्रे-जर्रे से हँसी खनकती थी, कभी
माँसा की तो कभी बाबासा की पर सबसे ऊँची आवाज में होती धानी की
खिलखिलाहट। आँगन में धानी की गूँजती किलकारियों से वैसे ही
रौशनी रहती, उत्सव की महक उनकी रसोई से आती, और तब दीवाली के
दीयों की जगमगाहट दोगुनी हो जाती। घर की हर चाहत उसी के
इर्द-गिर्द होती। उसी की खुशियों के लिये घर का हर कोना ऐसा सज
जाता कि लगता दीवाली के त्योहार की जगमगाहट सिर्फ रेत-मिट्टी
में या दीयों में ही नहीं, सबके मनों में भी है।
दीयों को घर की हर पार पर रखा जाता। हर दीये के पास बार-बार
झाँक कर, देख कर आती धानी कि कहीं तेल कम तो नहीं हो रहा। हर
घंटे फिर से तेल डाल दिया जाता ताकि देर रात तक रौशनी रहे।
दीयों की ऐसी देखरेख करती कि उसके सोने तक कहीं एक दिया भी न
बुझने पाए। जलते दीयों के साथ ज्ञान की रौशनी भी की जाती,
माँसा-बाबासा समझाते – “देखा लाडो, दीये के नीचे अंधेरा होवे
है पर औरों को तो उजाला ही मिले है उससे।”
“किसी के जीवन में रौशनी लाने की कोशिश करना बेटा।”
“ये दीये भले ही मिट्टी से बने हों, पर ये सदा अंधेरों को दूर
भगावे हैं।”
“इनकी रौशनी से घर-घर रोशन होवे है, इनके उजाले से घर की हर
ईंट बोलने लग जावे है।”
“देखो, कैसी गुणवत्ता है मिट्टी की, जिस आकार में ढालो उसमें
ढल जावे लेकिन फिर भी अपने अस्तित्व को बचा कर ही रखे।”
माँसा कहतीं – “बेटियाँ भी तो वैसी ही होवे हैं मिट्टी जैसी,
पराए घर में जाकर वैसे ही ढल जावे हैं। दीयों सी जगमगावे, जहाँ
जावे हैं उजालो फैला देवे।”
बाबासा सोचते, अपनी लाड़ली धानी बिटिया को कैसे भेजेंगे किसी
पराए घर में। मन छोटा होता कि कोई लड़का ऐसा हो ही नहीं सकता
जो बिटिया का ध्यान रख पाएगा। कोई उनके मन को न भाता, हर लड़के
में खोट ही खोट नज़र आती। बाबासा के बगैर रहेगी कैसे, बाबासा
के मन का मोर है उनकी लाडो। अपने पंख फैलाकर रंगों की मनभावन
तस्वीर की तरह मुस्कराती रहती है। इन नाजुक पंखों को कोई न
सम्हाल पाया तो? कौन उसे ऐसी छाया दे पाएगा जैसी उसे इस घर में
मिली है? माँसा के पल्लू में छुप कर बड़ी हुई है वह। कैसे
रहेगी उनके बगैर?
लेकिन बाली के आने के बाद इन सारे सवालों का जवाब बिटिया की
आँखों में मिल जाता जिनमें तैरते सपने अपनी कल्पनाओं का अनुवाद
कर देते कि अब वह तैयार है किसी और के साथ जाने के लिये। तैयार
है अपनी दुनिया बसाने के लिये। तैयार है अपनी जिम्मेदारी खुद
उठाने के लिये।
बाहर दीपों की लड़ियाँ अंधेरों को दूर कर रही थीं और भीतर बेटी
का प्यार, स्नेह और ममत्व की कड़ियाँ जगमगाहट फैला रही थीं।
धानी की बनायी रंगोली के फैले रंग एक दूसरे से मिलकर जमीन पर
इन्द्रधनुष रच रहे थे।
धीरे-धीरे सगाई का दिन आ पहुँचा। धूमधाम से सगाई हो गयी।
सगाई के साथ ही धानी के चेहरे की रौनक दोगुनी हो गयी थी। ऐसा
लगता जैसे अभी-अभी कोई ताजी कली खिल कर फूल बनने वाली हो। सगाई
के दिन बाली जिस तरह से देखता रहा धानी को, वह नज़र कैद हो गयी
उसके मन में। उठते-बैठते-सोते-जागते बाली की आँखों का वह नशा
धानी की रग-रग में बहने लगा था। कई लोगों के सामने होते हुए भी
नज़र ने नज़र को पहचाना था। आँखों से आँखों की बातें हुई थीं।
जीवन की सबसे अच्छी बातें जो मौन थीं, खामोश थीं। अनगिनत शब्द
जो एक लंबी किताब की तरह छप चुके थे धानी के मन में। और बस उस
किताब को पढ़ते रहना चाहती थी धानी।
मेहमानों की भीड़ में उन मौन संदेशों को सुनती रही थी जो
सुरमयी स्वर बनकर कानों में गुनगुना जाते थे। सोचने लगती,
क्यों बाली की याद उसकी देह में हलचल छोड़ जाती है, क्यों रोएँ
खड़े हो जाते हैं उसके प्रति प्रेम के भाव भर से! क्या प्रेम
इतना सिहरन भरा होता है! बाली से मिलने से पहले किसी अपरिचित
अज्ञात के बारे में सोचते हुए कभी उसे ऐसा महसूस नहीं हुआ।
नियति भी समय आने पर कैसे-कैसे अबूझ संकेत दे देती है।
प्रेम का यह भाव जब दूरियों में है तो मिलने पर क्या होगा।
कहीं यह भाव ही खत्म हो गया तो, या यह भाव कहीं बहक गया तो!
हालाँकि उसे पक्का विश्वास था कि प्रेम का यह आवेग क्षणिक नहीं
है, मिलने पर यह और बढ़ जाएगा।
छुपी हुई उन लकीरों को पढ़ने की कोशिश करती जो नज़रों के
आदान-प्रदान से उकेरी गयी थीं। अनकही बातें, अनसुने संदेश
कानों में गुनगुनाते रहते। यहाँ से जाने के बाद, उसके फोन पर
फोन आते रहे थे। बहुत कुछ कहता था बाली। वह ज्यादा कुछ न कह
पाती, बस सुनती ही रहती। फोन रखते ही उन शब्दों को वह कागज के
टुकड़ों पर सहेज लेती। अपनी ही चिट्ठी को अपने हाथों से लिखती
तो उन शब्दों में बाली का चेहरा नज़र आता। वैसे ही बोलता हुआ।
बाली सुनता तो मुस्कुराता हुआ कहता – “तुम क्यों ऐसा करती हो,
धानी? कहो तो कागज पर लिखकर ही भेज दिया करूँ।”
“नहीं, फोन पर ही ठीक है। इस तरह दोहरा आनंद मिलता है। पहले
कानों को अच्छा लगे, फिर आँखों को अच्छा लगे, दोनों की मिठास
को कागज पर सहेजने की अनुभूति अलग ही है।”
“पागल लड़की।” कहते हुए फोन रख देता बाली। और वह इसी मतवाले
पागलपन में सोने की कोशिश करती।
रात में फोन की टिक-टिक सुनाई देती तो लगता जैसे संदेश पर
संदेश आ रहे हैं उसके लिये। आँखें गड़ाती फोन पर, मगर वहाँ कुछ
नहीं होता। एक राहत की साँस लेती कि बाली सो गया होगा और अब
उसे भी सो जाना चाहिए। आँखें मींचकर नींद के आगोश में जाने की
कोशिश करती। करवट लेते-लेते कई कल्पनाएँ साकार होतीं और अगली
सुबह के इंतज़ार में नींद आ जाती।
सगाई के बाद से शादी तक के वे दिन इतने चुलबुले, इतने बेताब
करने वाले थे कि लगता युगों-युगों से जानती है वह बाली को।
जाने कितना इंतज़ार और करना होगा। कभी तो समय काटे नहीं कटता,
कभी ख्यालों में यूँ खोयी रहती कि कब दिन ढला, कब रात हुई, पता
ही न चलता।
धानी को लगता, मन तो वैसा ही है, आकाश में बहता हुआ। उसकी देह
से निकल गया है शायद। शायद बाली का मन भी ऐसे ही निकल कर आ गया
हो उसके पास। एक बात निश्चित लगी उसे, प्रेम देह के लिये रुकता
नहीं। दैहिक होने के बहुत पहले ही प्रेम अंकुरित होने लगता है।
और फिर वह दिन आया जब शादी के ढोल बजने लगे। गीतों के मधुर
स्वर ढोल की थाप से ताल मिलाने लगे। शादी की हर रस्म का अपना
अलग महत्व था। मन की अनुभूतियों-अभिव्यक्तियों का चरम बिन्दु
था। ढोल की ढम-ढम व लोकगीतों की मिठास के साथ पहली रस्म
गणेशपूजा संपन्न हुई।
“चालो गणेश आपणे मालीड़ा रे चालां तो आछा आछा फूलड़ा मोलावाँ
गजानन...”
“चालो गणेश आपणे अमेरिका चालां तो आछा आछा बनड़ा मोलावाँ
गजानन...”
महिलाएँ चतुराई से बनड़ा-बनड़ी के अनुकूल गीतों में फेरबदल
करने में माहिर होतीं। गणेशपूजा के बाद तीन दिन तक रस्में होनी
थीं। हल्दी, मेंहदी, संगीत, मामेरा से लेकर, आखिरी दिन फेरे और
बिदाई। राजस्थानी लोक नृत्य की टोलियाँ तीन दिन तक रोज आती
रहीं। ढोल के साथ गीत और नृत्य की ऐसी रंगीली शामें होतीं कि
दूर-दूर से लोग देखने के लिये आते। लोकगीत कंठानुकंठ बहते हुए
जब रस्मों की अदायगी में अपनी अनिवार्य उपस्थिति दर्ज करवाते
तो, वे पल “प्रेम” शब्द का सहज सौंदर्य निखार कर प्रस्तुत
करते। डाली के फूल की तरह झरकर भी नये पौधे में अपनी शोभा,
सुरभि अर्पित करते। सभ्यता और संस्कृति की प्रवाहक ये लोक
रीतियाँ कई ऐसे स्मरणीय क्षण दे जातीं जो मन को मुग्ध कर देते।
मामेरा की रस्म करते मामा ने धानी और माँसा के लिये बहुत ही
अच्छे जेवर दिए थे। प्यार और स्नेह का प्रतीक शब्द मामा! दो
बार माँ की आवृति के साथ। मामेरा की रस्म के समय माँसा ने अपना
सबसे महंगा जोड़ा पहना था। इतनी अच्छी लग रही थीं वे कि
एकबारगी तो बाबासा भी देखते रह गए थे। धानी की कई सहेलियाँ
फोटो और वीडियो बनाने में लगी थीं। नथ पहनकर पहली बार माँसा को
“पल्लो लटके, म्हारो पल्लो लटके” गाने पर थिरकते देखा तो धानी
भावुक होकर रो पड़ी थी।
यूँ खाते-पीते-गाते-बजाते तीन दिन चलने वाला शादी का उत्सव
अपने चरम पर था।
फेरे हो रहे थे। अग्नि साक्षी थी। उस रिश्ते को सुरक्षित करती
जो कपड़े की गाँठ से जुड़कर अपने विश्वास और प्रेम की गाँठ को
मजबूती प्रदान करे। लोकगीतों में रिश्ते के अनुकूल बदलाव करती
महिलाएँ परंपरा और वर्तमान को जोड़कर गातीं तो रस्म अदायगी की
निजता के साथ आत्मीयता बढ़ जाती। एक के बाद एक खुशी-खुशी
रस्में निबाहते वह रस्म भी आयी जो फेरों के बाद संपन्न होनी
थी, बिदाई। गाँव भर के लोगों के सामने खूब ठाठ-बाट से उसे बिदा
किया। बिदाई के वे पल बोझिल तो थे पर संतुष्टि से भरपूर थे।
मारवाड़ी लोकगीत के बोल कानों में पड़ने लगे जो हर लड़की की
शादी की बिदाई में गाए जाते थे। महिलाएँ ऊँचे स्वर में गातीं -
“घड़ी दोए घुड़ला थोब जो सायर बनड़ा,
बाबासा सूँ मलवा दो नी हठीला बनड़ा”
आँसू पोंछती-बिलखती घर छोड़ने का दु:ख तो मनाती पर बनड़े के वे
अनकहे शब्द भी मन को सम्भालते जो गीत का अधूरा हिस्सा पूरा
करते।
“बाबासा सूँ मिल कर, कांई करो सायर बनड़ी,
दो नी पालकड़ी ए पाँव, घरे चालो आपणा।”
“घरे चालो आपणा...” अंतिम पंक्ति कहते हुए महिलाएँ नाक
सुड़कतीं, आँखें मलतीं सचमुच रो देतीं। गीत के मीठे बोल शायद
उन्हें अपनी बिदाई की याद दिला देते कि एक दिन वे भी इसी तरह
अपना घर छोड़ कर किसी और के घर आ गयी थीं। उस बीते कल की यादें
जैसे आँखों से पानी के रूप में बहकर रूबरू करातीं उन पलों से,
मन को और भी भिगो जातीं। और तब हर किसी के लिये वह बिदाई अपनी
शादी की बिदाई हो जाती। सालों पहले के वे बिदाई के पल आँखों के
सामने से गुजरने लगते, सबको अपने-अपने बाबासा के घर की याद
दिला जाते।
बाली ने उसे शक्तिशाली चुंबक की भाँति अपनी ओर खींच लिया। उसे
लगा ही नहीं कि अभी-अभी शादी होकर आयी है वह। न जाने क्यों ऐसा
लगता जैसे वह सदियों से उसे जानती है। अनायास ही खुद हँस देती
अपनी इस सोच पर। वाकई प्यार अंधा होता है। बाली के प्रति उसकी
दीवानगी सगाई से शादी तक इस कदर, इतनी तेजी से बढ़ती गयी कि
लगता इस प्यार का प्रस्फुटन जन्मों पुराना हो। उसके मन को,
उसके तन को, पूरा हक है कि उससे इतना प्यार करे, जितना किसी ने
किसी को न किया हो।
वह चाहती रही लगातार, धरती-सा बन खुद भीगते रहना और बाली का
अनंत आकाश के बीच अनंत बादल-सा निरंतर बरसते रहना।
एक सप्ताह के साथ के बाद बाली उसे छोड़कर चला गया अमेरिका।
शादी की बिदाई से अधिक कष्टप्रद थी यह बिदाई। अभी-अभी तो मिले
थे और अब तो बाली के बगैर एक पल भी रहना गवारा नहीं करता मन।
लेकिन मजबूरियों का क्या किया जाए? यहाँ उन दो युवा प्रेमियों
के रास्ते में एक नहीं, कई मजबूरियाँ थीं। रास्ते के
कंकड़-पत्थर की भाँति चुभती हुईं, दूर तक बिछी हुईं। अब जो काम
शेष थे वे उनके हाथों में नहीं, सरकारी हाथों में थे। उस
शिकंजे से जल्दी मुक्ति मिल गयी तो अपनी किस्मत समझो, देर लगी
तो भी किस्मत अपनी। सबसे पहले जन्म का प्रमाणपत्र बने तब कहीं
पासपोर्ट और उसके बाद वीज़ा। जुदाई लंबी थी लेकिन कितनी लंबी
होगी इसका कोई अंदाज नहीं लगा सकता था। कागजात बनने के पहले वह
जा नहीं सकती थी और बाली इतने दिन यहाँ रुक नहीं सकता था।
मिलन और फिर बिछोह ने प्रेम की पराकाष्ठा को छू लिया। यूँ
महसूस होता कि प्रेम एक नदी की तरह होता है जिसे दिशा और अंश
का भी ढलान मिलता है तो वह बह उठती है पूरे वेग से। बिना यह
सोचे कि वह जिस दिशा में जा रही है वह उसे समंदर में ले जाएगी।
इस कल्पना से वह सिहरती नहीं। उसे लगता है नदी समंदर से मिलने
के लिये ही बहती है। किसी पहाड़ की चोटी से बूँद-बूँद रिसते
हुए उसने खुद को धारा बनते महसूस किया था। पर आज वह नदी हो
जाना महसूस कर रही है। कल वह समंदर हो जाएगी और परसों वह
सृष्टि। उसे लगता है दार्शनिक भी कुछ ऐसे ही सोचते होंगे। कुछ
नया पा लेते होंगे। यह प्रेम है जो अपनी हर लहर के साथ
पुनर्नवा हो उठता है।
वे दिन ऐसे निकले मानो दिन के हर पहर को धक्के मार-मार कर
सरकाया जा रहा हो। समय तो तब इतना अड़ियल हो जाता था कि काटे
नहीं कटता। उस व्यथा को दूर करना किसी के वश में नहीं था।
जितना समय लगना था लगा। रोज़ घंटों बातें करते दोनों। बराबर की
आग थी, इस ओर से उस ओर तक। इस छोर से उस छोर तक।
मन के रिश्ते थे, मन ही समझ सकता था। कई रंगों के इन्द्रधनुष
अपनी छटा बिखेरते। कभी मिलन का, कभी वियोग का, कभी खुशियों का,
सभी अपनों से बिछुड़ने के गम का।
कई रंगों की रंगोली अब धानी के मन पर थी, कभी माँसा की याद में
भावनाओं का दीपक जलता, कभी बाबासा की याद में, तो कभी अपने
बाली की याद में सखियों की चुहलबाजी अनजाने ही गुदगुदा जाती।
इन रंगों पर प्रज्जवलित दीप मालाओं की कड़ियाँ एक चट्टान की
तरह मन को बहुत मजबूत बना देतीं, और समय कट जाता। |