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समकालीन कहानियों में अकेलापन
-राहुल देव
समकालीन कहानियों में अकेलापन कई तरह से व्यक्त हुआ
है। बुढ़ापे का अकेलापन जब बच्चे घर से दूर हों,
जीवनसाथी की मृत्यु हो जाने के कारण जन्मा अकेलापन जब
मन की बात कहने वाला कोई न हो, तलाक या अविवाहित रह
जाने पर जन्मा अकेलापन जब परिवार साथ न हो, विदेश में
अकेलापन जब अपनी संस्कृति और समाज का साथ न मिले। सबसे
अधिक कहानियाँ पहले प्रकार के अकेलेपन के विषय में
हैं। सुविधा के लिहाज से इस विषय को दो हिस्सों में
बाँटा जा सकता है- बुढ़ापा और अकेलापन तथा अन्य तीनों
प्रकार का अकेलापन।
सुप्रसिद्ध
कथाकार शेखर जोशी की कहानी ‘कोसी
का घटवार’ गाँव के एक सैनिक की कहानी है जो जीवन भर
अविवाहित रहता है। फौज से अवकाश प्राप्त करने के बाद वह इसलिये
एकाकी जीवन बिता रहा है क्यों कि “जिसका कोई नहीं और जो स्वयं
परदेश में अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है” उसे अपनी बेटी का
हाथ देना उसकी प्रेमिका लछमा के पिता को स्वीकार नहीं था। एक
दिन पिसान पिसवाने के लिए आयी हुई लछमा से एकाएक उसकी पुनः
भेंट होती है। प्रारंभिक संकोच के बाद दोनों का भावपूर्ण संवाद
शुरू होता है। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा भाव
विह्वल हो अपने वैधव्य की दुखद कहानी उसे सुनाती है। अनाज पिस
जाने के बाद लछमा जाने को उद्यत होती है। वह जाती हुई लछमा से
कुछ कहना चाहता है परन्तु उसके मुँह से आवाज़ नहीं निकलती।
घटनाक्रम का पूरा वातावरण तमाम सारे मूर्त-अमूर्त बिम्बों के
साथ दोनों प्रेमियों की मौन और मुखरता को संवेदनात्मक भावभूमि
पर विकसित होकर कहानी को पठनीयता के चरम तक पहुँचाता है। इस
कहानी में गुसाईं चरित्र के अकेलेपन की स्थिति के साथ साथ कोसी
अंचल की तमाम सामाजिक आर्थिक समस्याओं का भी चित्रण किया गया
है। इस कहानी को एक श्रेष्ठ आंचलिक प्रेम कहानी की श्रेणी में
रखा जा सकता है।
यू.के. से प्रसिद्ध कथाकार तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘पासपोर्ट
के रंग’ ऐसे प्रवासी भारतीय परिवारों के बुजुर्गों की मानसिक
स्थिति की पड़ताल करती है। जिनकी देखभाल करने वाला भारत में कोई
नहीं बचता है। भारत में वे अपने बेटे की याद के कारण अकेलापन
महसूस करते हैं और इंग्लैंड में अपनी सांस्कृतिक विरासत व देश
से दूर रहने के कारण। इस कहानी के ‘बाउजी’ का चरित्र इस मामले
में और भी विशिष्ट है कि वे भारतीय स्वतंत्रता सेनानी हैं। इस
कारण भारत की नागरिकता छोड़ने और ब्रिटेन की नागरिकता लेते समय
ब्रिटेन की रानी के प्रति वफ़ादारी की कसम खाने के बाद बाउजी
यानि गोपालदास बड़े उन्मन हो जाते हैं। वे भारतीय नागरिकता के
लिये छटपटाते हैं और दोहरी नागरिकता का समाचार सुनकर खुश होते
हैं। वे दिलोजान से उसे पाने की कोशिश करते हैं लेकिन उसे पाने
से पहले ही परलोक की नागरिकता ले लेते हैं। इस प्रकार यह कहानी
केवल बुढ़ापे के अकेलेपन की कहानी नहीं है बल्कि देश से प्रेम
करने वाले एक ऐसे व्यक्ति की कहानी भी है जो सब सुख सुविधाओं
के बीच भी भारतीय नागरिकता न होने के कारण बेचैनी का अनुभव
करता है। कहानी ढीले-ढाले वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर भी
तीखा प्रहार करती है।
यूएसए से सुषम बेदी की कहानी
‘गुनहगार’ साठ वर्षीय विधवा की
कहानी है, जो पुनर्विवाह नहीं करना चाहती लेकिन उसके बेटी
दामाद उसे विकसित संस्कृति का हवाला देते हुए दूसरी शादी के
लिए इश्तहार दे देते हैं। इस उम्र में उसकी दुबारा शादी की बात
पर उसकी बेटी उसे सलाह देते हुए कहती है कि, ‘ममी आपको बुढ़ापे
में अपना कोई साथी ढूँढ़ लेना चाहिए। यहाँ सब ऐसे ही करते हैं।
मेरी सहेली की माँ तो अस्सी की होने वाली हैं और वे छयासी साल
के अपने एक पड़ोसी के साथ जुड़ गई हैं। दोनों मज़े से रहते
हैं, एक दूसरे का साथ भी रहता है एक दूसरे की देखभाल भी करते
हैं।' परिवार के लगभग सभी लोगों के दबाव के बाद रत्ना की कुछ
हिम्मत बँधती है। शायद इसमें खेल का सा मज़ा भी था और कुछ पा
लेने की उम्मीद भी लेकिन वह अपने पति की छवि इश्तहार वाले किसी
व्यक्ति में नहीं पाती, न ही अपने पति की स्मृति से मुक्त हो
पाती है। अपने परंपरागत भारतीय संस्कारों से लड़ती हुई उसकी
आत्मा इस अंतर्द्वंध में पराजित हो जाती है और वह इश्तहार वाले
अखबार को अपने हाथों से फाड़ देती है। यह कहानी अपनी कथावस्तु
के साथ एक भारतीय महिला के मनोविज्ञान को बड़े पठनीय तरीके से
हमारे समक्ष रखती है।
कथाकार
तरुण भटनागर की कहानी ‘धूल
की एक परत’ में राजसी परिवार के अकेलेपन की एक अलग भावभूमि
है। एक पुरानी रियासत ‘चंदई’ की रानी साहेब महारानी विक्रम
कुमारी राजशाही समाप्त हो जाने और पति कुँवर जी की मृत्यु के
कारण अपने उजड़े हुए वैभव के साथ शाही शानोशौकत बनाये रखने के
प्रयास में आर्थिक रूप से काफ़ी कमज़ोर और मानसिक रूप से अकेली
हो जाती हैं। खंडहर होते जा रहे उनके महल में अब कोई नहीं आता।
वह कहती हैं, ‘कौन आता है, इतिहास के अधकचरे पन्ने को
समेटने...।' वह इस सब पर भी अपने स्वामिभक्त नौकर हरी का बहुत
ध्यान रखती हैं। उन्हें चिंता होती है कि उनके बाद हरी की
रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी? वह नायक से उसे उसके ऑफिस में खाली पड़ी
चौकीदार की एक नौकरी दे देने का आग्रह करतीं हैं। लेकिन नायक
सरकारी नौकरी के नियमों के अंतर्गत उसे नियुक्त करने में स्वयं
को असफल पाता है। आखिर रानी का फ़ोन आने पर उसे उन्हें साफ़
शब्दों में मना करना पड़ता है। कथानायक और रानी की इस अंतिम
बातचीत के साथ कहानी पूरी होती है। अपनी ऐतिहासिक विरासत को
सँभाले हुए कुछ वर्तमान स्थिति, आदर्शों व परम्पराओं के साथ
तालमेल बिठाती राजसी महिला के एकाकी जीवन का इस कहानी में
बखूबी वर्णन मिलता है। कहानी अपने कथ्य के साथ पूरा-पूरा न्याय
करने में सफल हुई है।
संयुक्त अरब इमारात से पूर्णिमा वर्मन की कहानी- 'फुटबॉल' में
प्रवासी गृहणियों के अकेलेपन का सूक्ष्म विश्लेषण मिलता है।
कहानी की मुख्य पात्र नीलम किरण विरमानी खाड़ी देशों में बसी
उन तमाम प्रवासी गृहणियों का प्रतिनिधित्व करती है जो विदेश
में कोई नौकरी या व्यवसाय करने के स्थान पर परिवार की
जिम्मेदारियों को ज्यादा महत्व देती हैं। पति के अत्यधिक
व्यस्त रहने और बच्चों के नीड़ छोड़कर उड़ जाने के बाद वे
अकेलेपन की शिकार हो जाती हैं। नीलम विरमानी पिछले ३५ साल से
अपने देश से बाहर दुबई में रह रही हैं। उनके पति व्यस्त
व्यापारी हैं और बच्चे अन्य देशों में। अपने खालीपन की पूर्ति
वह कभी मोबाइल फ़ोन पर एक निश्चित समय पर बच्चों से बात करके तो
कभी किताबें पढ़कर गुज़ारती हैं। कहानी में एक नया मोड़ आता है जब
नायिका के घर के पास उपेक्षित पड़ा मैदान फ़ुटबाल कोर्ट वाले
मैदान में परिवर्तित होने लगता है। इस प्रक्रिया को वे मनोरंजक
पाती हैं, लेकिन मैदान के पूरा बन जाने के बाद वही अकेलापन
उनके जीवन में फिर से उतर आता है। जहाँ पहले उन्हें बच्चों की
धमाचौकड़ी तथा सड़कों पर उनका फुटबाल खेलना पसंद नहीं था वहीँ अब
अचानक वे बेचैन हो उठती हैं कि बच्चे फुटबाल क्यों नहीं खेल
रहे हैं! लेखिका ने इस कहानी में घटित घटनाक्रम, कथानक तथा
देशकाल की सजीव व बारीक परिस्थितियों को बहुत कुशलता से पकड़ा
है।
डॉ सूर्यबाला की कहानी ‘आखिरवीं विदा’ प्रवासी बेटे के बूढ़े
माँ-बाप की कहानी है जो भारत में अकेले रह गए हैं। बेटा सात
साल के एक लम्बे अंतराल के बाद भारत आने वाला है। इतने सालों
बाद उनसे मिलने की ख़ुशी में दोनों वृद्ध पति-पत्नी उनके स्वागत
की तैयारियों में लग जाते हैं। पिता एअरपोर्ट पर बेटे को लेने
जाते हैं, माँ बेटे के पसंद का खाना पकाती हैं, और दोनों जन
मानो मगन, गदगद, रोमांच से विकल, ख़ुशी के अतिरेक से आतुर हो
उठते हैं। लेकिन छह साल की दूरी बेटे को पुराने उन्मुक्त
संस्कारों से जोड़ नहीं पाती। बेटे की ओर से संकोच और
औपचारिकता का व्यवहार माता पिता को खटकता है। उनका यह अकेलापन
और गहरा जाता है जब पुत्र उनसे कहता है, ‘तुम्हारे लिए आसान
हैं माँ, निरंतर पीछे की अतीतगामी यात्राएँ क्योंकि वर्तमान और
सामने आते भविष्य का अकेलापन और सन्नाटा तुम्हें आतंकित करता
है इसलिए तुम निरंतर चहल-पहल भरे अतीत में ही पनाह ढूँढ़ती हो।
ल़ेकिन मैं तो सिर्फ अतीत या वर्तमान में नहीं रूक सकता न!
मेरे लिए तो समय और उम्र चढ़ते हुए सूरज की सीढ़ियाँ
हैं।‘अंतिम दिन वह अपने बूढ़े माँ-बाप की आँखों में एक अंतहीन
इंतज़ार छोड़कर वापस विदेश चला जाता है। बुढ़ापे में माता-पिता
अपने बच्चों के बिना कितना अकेलापन महसूस करते हैं, इस कहानी
में इस बात को बड़े भावपूर्ण ढंग से सामने रखा गया है।
डॉ सूर्यबाला की ही एक और कहानी ‘दादी और रिमोट’ वृद्धावस्था
में स्थानांतरण की एक सार्थक कहानी है जिसमें गाँव से लाकर शहर
में रोपी गई बूढ़ी दादी का दर्द बहुत संवेदनात्मक रूप से रचा
गया है। घर के व्यस्त सदस्य अपने-अपने समय पर आते-जाते। आपस
में थोड़ी बातचीत करते और फिर अपने-अपने काम में मशगूल हो जाते।
ऐसी परिस्थिति में टी.वी. दादी के अकेलेपन को दूर करने का एक
सहारा बनता है। लेकिन दादी टीवी पर जो देखना चाहतीं वह उन्हें
कम ही दिखाई देता। रिमोट का बटन दबाते हुए तमाम चैनलों पर
परोसी गयी फूहड़ सामग्री को देखकर वह ऊब जातीं। समस्या यह भी
होती कि वे कभी-कभी टी.वी. की चीजों को सच भी समझ बैठतीं। कुल
मिलाकर यह आधुनिक उपकरण भी उनके अकेलेपन का साथी नहीं बन पाता।
महानगरों के व्यस्त जीवन में ऐसे बूढ़ों के प्रति उपेक्षा की
स्थिति बनती ही चली जाती है जो परिवार का समय और ध्यान चाहते
हैं। कहानी में अकेलेपन के साथ घिसटता दादी का बूढ़ा शरीर
धीरे-धीरे संज्ञाशून्य होता जाता है। कहानी में आपसी संवेदनाओं
पर आधुनिक जीवनशैली किस कदर हावी है इस बात का लेखिका ने बड़ा
मार्मिक चित्रण किया है।
डेनमार्क
से प्रवासी कथाकार चाँद शुक्ला हदियाबादी की कहानी ‘अंतिम
पड़ाव’ डेनमार्क की पृष्ठभूमि में लिखी गई वहाँ के एकाकी
जीवन का वह कटु सत्य प्रस्तुत करती है, जिसमें मनुष्य के अंतिम
समय में उसकी देखभाल या सहारा देने वाला कोई नहीं बचता। कहानी
में पाठक को यूरोपीय देश डेनमार्क की शहरी जीवनशैली का अच्छा
परिचय प्राप्त होता है। यह कहानी यश मखीजा के जीवन में फैले
हुए अकेलेपन की और उसके घर के सामने वाले फ्लैट में रहने वाली
एक वृद्ध महिला मिस कैप्री के आसपास केन्द्रित है। यश मखीजा की
परिस्थितियाँ उसे इस अनजाने देश में रहने के लिये बाध्य करती
हैं। यहाँ इस देश में उनके पास सब है। धन वैभव! सब कुछ लेकिन
अपना कौन है? अकेलापन और भीड़ का सन्नाटा! कोई संबंधी नहीं।
शादी हुई होती तो... संभवत: कैप्री ने भी शादी नहीं की इसीलिए
अकेली हैं। कुछ दिनों बाद अकेले रहते हुए एक दिन कैप्री की भी
मृत्यु हो जाती है। और कई दिनों तक इस घटना का पता नहीं चलता।
यश मखीजा भी इस घटना से व्यथित हो गहरे अवसाद में डूब जाता है।
मखीजा के चरित्र के माध्यम से कहानी एक ऐसे अकेले प्रवासी की
एकांत मनःस्थितियों का सफल चित्रण करती है, जिनका विदेश में
कोई नहीं है।
भारत से शरद पगारे की कहानी ‘इक्कीसवी
सदी और शंकरदादा’ एक
अवकाशप्राप्त विधुर एकाकीपन की कहानी है। शंकरदादा ने अपनी
दिनचर्या में अपनी उम्र को बाधक नहीं बनने दिया है। इक्कीसवीं
सदी के तमाम मनोरंजन के उपकरणों के बीच शंकरदादा को एक मोबाइल
फ़ोन मिलता है जिसे चलाना सीखने में उन्हें कई दिन लग जाते हैं।
वे ईमेल का प्रयोग सीखते हैं और बच्चों के साथ तालमेल बैठाते
हुए इन्टरनेट द्वारा दुनिया से जुड़ जाते है। जहाँ उनकी
मुलाकात अपनी बहुत पुरानी कॉलेज की सहपाठिनी कुसुम से होती है।
चैटिंग के दौरान उनकी पहचान निरंतर संवाद में बदलती है। फिर एक
दिन वे दोनों आपस में मिलने का फैसला करते हैं और कुसुम उनसे
मिलने आतीं हैं। कुसुम शीघ्र ही परिवार के अन्य सदस्यों के साथ
घुलमिल जाती हैं और परिवार में स्नेह, ममता और वात्सल्य का एक
नया व सुखद माहौल बन जाता है। जब वे जाने को होतीं हैं तो
शंकरदादा का पोता नयन उनसे रुकने का आग्रह करता है। वह सोच में
पड़ जातीं हैं। सचमुच कभी कभी अपनों से ज्यादा पराए अपने बन
जाते हैं। उनके आने के बाद से शंकरदादा का सूनापन-अकेलापन भी न
जाने कहाँ चला गया था। आख़िरकार वह अपनी स्वीकृति दे देती हैं।
शंकरदादा और कुसुम एक दूसरे के पूरक बन जाते हैं और ख़ुशी-ख़ुशी
एक साथ परिवार में रहने लगते हैं।
भारत से आस्था की कहानी ‘मोहभंग’ उत्तरआधुनिक परिवेश के
वर्तमान हालातों की कटु व सटीक तस्वीर प्रस्तुत करती है। कहानी
की मुख्य पात्र सुमित्रा देवी का बड़ा बेटा दस सालों से सपरिवार
अमेरिका में रहता है और छोटा बेटा उनके साथ भारत में। बड़ा बेटा
हर साल छुट्टियों में एक माह के लिए भारत अपने घर आता है। हर
साल जब भी वह आता है तो पूरे परिवार को एक साथ देखकर सुमित्रा
देवी ख़ुशी से फूली नहीं समातीं। यह एक महीना साथ रहने की अवधि
बाकी के ग्यारह महीनों को यादों का एक खजाना दे जाती थी। लेकिन
धीरे-धीरे उनके बेटों और बहू के स्वभाव में बदलाव आने लगता है
और उसका भारत आना भी बहुत कम हो जाता है। आर्थिक विषमताओं की
वजह से दो सगे भाइयों के मध्य आपसी रिश्ते दरकते चले जाते हैं
जिसका खामियाजा सावित्री देवी को भुगतना पड़ता है। वे बेटों के
मध्य स्नेह व अपनत्व की अपेक्षा रखती हैं जबकि वहाँ फैली होती
हैं व्यस्तताएँ व पैसे की दौड़। अंत में इस सोच के साथ कहानी
समाप्त होती है कि शायद ऐसे लोग रिश्तों व अकेलेपन की अहमियत
तब समझेंगे जब स्वयं उम्र की उस स्थिति से होकर गुज़रेंगे।
दरअसल अकेलापन एक सार्वभौमिक मानवीय भावना है, जो दिनों-दिन
जटिल होती जा रही है। अकेलेपन का कोई एक कारण नहीं होता, यह कई
कारणों की लंबी कड़ी होती है। अभी तक हम लोग अकेलेपन की समस्या
को पश्चिम के देशों से जोड़कर देखते थे। भारत में संयुक्त
परिवार की परम्परा होने के कारण अकेलेपन को कभी समस्या के रूप
में नहीं देखा गया, परंतु जब से एकल परिवार की संख्या में
वृद्धि हुई है यहाँ भी पश्चिमी देशों की तरह अकेलेपन की समस्या
में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। इन कहानियों में विभिन्न प्रकार की
स्थितियों-परिस्थितियों में रचे बसे विभिन्न तरह के पात्रों के
अकेलेपन मनोविज्ञान, तथा उससे उनके जीवन में चलने वाले
ज्वार-भाटों का असर देखा जा सकता है।
१९ मई २०१४ |