सुबह से ही
सुम्रित्रा के घर में चहल पहल हैं । बड़ा बेटा अक्षय जो आ रहा
है अमेरिका से, बहू आरती‚ और पोते अक्षित के साथ! हर साल की
तरह‚ इस साल भी भारत में परिवार के साथ छुट्टियाँ मनाने।
छोटा बेटा अर्जुन‚ बहू माधवी और पोती साक्षी यहीं सुमित्रा के
साथ रहते हैं। सभी खुश हैं‚ कुछ ही दिनों में फिर पूरा परिवार
एक साथ होगा। सुमित्रा के पैरों में पंख लग गये हैं …! उम्र दस
साल कम हो गई हो जैसे। फुर्ती से भागा–दौड़ी कर रही हैं वे।
पैरों का दर्द‚ सर दर्द, रक्तचाप, मधुमेह सब बीमारियाँ जैसे
हवा में उड़ गई हैं …! सुबह से दवाई खाने तक का होश नहीं हैं।
सच ही तो है — खुशियाँ जब पास आतीं हैं तो दुख दर्द अपने आप
गायब हो जाते हैं। वर्ना तो सुबह होते ही‚ सब से पहले सुमित्रा
दवाई का डिब्बा हाथ में लेती है और रोज़ की सात आठ गोलियाँ खाने
के बाद ही सब काम शुरू करती है। पर . . . आज देखो, आज तो
उन्हें किसी दवाई की ज़रूरत ही नहीं जैसे… लगता है इंसान को अगर
अपनों के साथ जैसा मानसिक सुख‚ शांति‚ और खुशी मिलती रहे तो
उसे किसी भी बीमारी से और दवाई से छुटकारा मिल सकता है …!
यों भी घर
में यह चहल–पहल पंदरह दिन पहले से ही शुरू हो जाती है‚ जब भी
अक्षय आने वाला होता है…
घर की साफ
सफाई शुरू हो जाती है‚ दो नौकर और ज़्यादा रखने की तैयारी‚ किस
दिन क्या खाना बनेगा उस की सूची भी तैयार हो जाती है। अक्षय को
क्या पसंद है‚ आरती को क्या पसंद है‚ और पोते अक्षित की पसंद
को भी ध्यान में रखा जाता है। कुछ खास भारतीय पकवान तो उन्हें
यहीं आकर नसीब होते हैं। और हाँ‚ खाना बनाने वाली भी खास
ढूँढ़नी होती है।
खाना बनाने का समय आरती के पास कहाँ होगा? उसे तो साल भर के
ज़रूरत का सामान खरीदने बाज़ार आना जाना होगा। दरजी का काम‚
सुनार के यहाँ जाना‚ और अमेरिका के दोस्तों के लिये छोटी बड़ी
भेंट सौगात खरीदना‚ इतने सब काम निपटाने के साथ साथ
रिश्तेदारों से मिलने जाना‚ आस पास के पड़ोसियों से मिलना…! और
वैसे भी‚ साल में एक बार आना होता है‚ तो जितना हो सके उतना
बचा हुआ समय घर वालों के साथ बैठ कर बिताना ही सब को पसंद आता
है। ऐसे में आरती अकेली खुद के कामों में व्यस्त रहे और माधवी
व सुमित्रा रसोई घर में काम करते रहें ये बात ठीक नहीं लगती
है। फिर माधवी को भी कहाँ फुर्सत रहती है। वह आरती के साथ हर
जगह भागी भागी फिरती है। आरती को गियर वाली कार चलाने की आदत
नहीं रही और फिर अहमदाबाद की भीड़! माधवी तो चौबीस घंटे की
ड्राइवर बन जाती है।
सुमित्रा अकेली क्या–क्या करें? इसीलिये बीच का रास्ता निकाला
जाता कि एक महीने के लिये खाना बनाने वाली को रख लिया जाए।
सब कुछ ठीक ठाक ढँग से निबट गया है तो अब सुमित्रा का समय काटे
नहीं कट रहा हैं‚ वे कुछ अनमनी सी हैं। ...ये घड़ी भी इतनी
धीरे–धीरे क्यों चल रही हैं? दो तीन बार दीवार पर लगी घड़ी के
पास खड़े होकर देखा कि कहीं बंद तो नहीं हो गई? नहीं‚ घड़ी तो
ठीक चल रही है… सुइयाँ भी हिलती हुई दिख रहीं हैं… आगे बढ़ रहीं
हैं... पर फिर भी मन को संतोष नहीं हो रहा है‚ वे कलाई की घड़ी
को कान से लगा कर परख रही हैं…बराबर आवाज़ आ रही है, एक–एक क्षण
की टिक–टिक सुनाई दे रही है …पर लगता है जैसे आज इन क्षणों की
गति भी धीमी हो गई है...लगता है भगवान भी सुमित्रा के धीरज की
कसौटी ले रहे हैं।
समय किसी के रोके रुकता नहीं…! वह निरंतर अपनी गति से आगे बढ़ता
ही रहता है‚ यह तो सिर्फ संजोग हमें इस भ्रम में डालते हैं कि‚
समय जल्दी कट रहा है या धीरे–धीरे आगे बढ़ रहा है‚ और इंतज़ार के
क्षण तो वैसे भी काटे नहीं कटते…उसी तरह जब खुशी हमारे साथ
होती है तब लगता है समय जैसे पंख लगाकर एकदम तेज़ गति से उड़ रहा
है‚ जबकि इन खुशी के क्षणों को हम थाम कर रखना चाहते हैं… पर
कहाँ रुकता है समय किसी के लिये भी…!!
दस साल हुए हैं…अक्षय को अमेरिका गए हुए…पर लगता है जैसे कल की
ही बात हो…! सुमित्रा की नज़र के सामने बीते हुए साल आने लगे…और
पुरानी यादें ताज़ा हो उठीं…! दोंनों बेटे छोटे–छोटे से लेकर वह
इस शहर में आई थी… पिता का साया बेटों ने बहुत कम उम्र में खो
दिया था…। सुमित्रा ने बेटों को अच्छे से अच्छी शिक्षा दी… और
साथ ही साथ अच्छे संस्कारों का सिंचन भी किया था। दोनों की
शादी की और बेटी जैसी बहुएँ घर में आई— आरती और माधवी। इस तरह
अकेले होते हुए भी अपने फ़र्ज को सुमित्रा ने बखूबी निभाया था।
इस बात का बेटों को भी गर्व था!
अक्षय को अमेरिका में
बहुत अच्छा काम मिल गया। बेटे के दूर जाने का गम था‚ पर साथ ही
साथ इस बात की खुशी भी थी कि उसका भविष्य उज्वल हो जाएगा।
अक्षय आरती अमेरिका गए और अर्जुन माधवी यहाँ सुमित्रा के पास
रहे। दोनो परिवार अपनी अपनी तरह से सुखी थे‚ दुख बस इस एक बात
का था कि वह सब एक साथ नहीं रह पाए थे…। साल बीतते गए… अक्षय
और आरती की चिठ्ठियाँ आती रहतीं थी‚ सो मन बहल जाया करता था और
छुट्टियों में मिलना होता था …! हर साल सुमित्रा इन छुट्टियों
की आस में बैठी रहतीं कि कब छुट्टियाँ आएँ और कब सब मिलकर साथ
रहें…यह एक महीना साथ रहने की अवधि बाकी के ग्यारह महीनों को
यादों का एक खज़ाना दे जाती थी… उन यादों के सहारे…और
चिठ्ठियों के सहारे सुमित्रा अगली छुट्टियों तक का समय बिता
लेती थी…यही क्रम बना हुआ था!
पहले साल जब अक्षय अमेरिका से आया तब उस में कोई बदलाव नही आया
था, ना ही आरती में। सुमित्रा बहुत खुश थी कि उसके दिये हुए
संस्कार अभी भी जीवित हैं उनमें। अक्षय और आरती दोनों का ही
आग्रह था कि देर सवेर माँ और अर्जुन–माधवी भी अमेरिका आ जाएँ
और एक बार फिर पूरा परिवार एक साथ रहने लगे।
दूसरे साल जब वे लोग आए तब भी इसी बात की ज़िद्द की कि साथ
चलो…! अर्जुन से ज़्यादा माधवी को अमेरिका जाने की इच्छा थी
क्योंकि वह जब भी आरती को देखती मन ही मन खुद की तुलना आरती से
करती, काश वह भी आरती की तरह अपने हर शौक पूरे कर पाए… और आरती
की तरह हाथ खुला रखकर खरीदारी कर पाए…यह छोटी–छोटी बातें थी जो
उसे ललचाया करतीं थीं। आरती किस तरह आराम से कह देती कि चलो
बाज़ार जा रही हूँ‚ न पैसे की चिन्ता न भविष्य की चिन्ता न घर की...
कितनी व्यवस्थित सी थी उसकी ज़िन्दग़ी!
माधवी सोचती कि वे लोग भी अगर अमेरिका चले जाएँ तो‚ उसकी
ज़िंदगी भी आरती की तरह आरामदेह हो जाए… उसे ज़िंदगी का एक ही
पासा नज़र आता…और वह सोचती कितनी अच्छी ज़िंदगी है इन लोगों
की…और हमारी देखो? वही सुबह शाम एक सा ही क्रम… छोटी छोटी
उलझनें…छोटी छोटी तंगियाँ! सो मन के कहीं किसी एक कोने में‚
अमेरिका जाने की लालसा‚ माधवी के मन में घर कर गई।
तीसरे साल जब वे लोग आए
तब प्यारा सा पोता अक्षित सुमित्रा को मिला। सुमित्रा तो धन्य
हो गई… पूरा दिन पोते के साथ बिताती…सुबह नहलाना‚ फिर थोड़ा
बहुत कुछ उसको खिलाना‚ रात को लोरी गा कर सुलाना… यह सब उस के
लिये नित्य–क्रम हो गया था। सुमित्रा को तो जैसे दोंनों बच्चों
का बचपन वापस मिल गया था‚ वह अनायास ही अक्षय और अर्जुन के
बचपन को अक्षित के बचपन में तलाशने लगती। अक्षित के साथ की यह
खुशी एक महीने ही उसे मिल पाती थी‚ जब अक्षित चला जाता तब
सुमित्रा घंटों सोच में डूबी रहती‚ अक्षित की शरारतें याद करती
रहती और अपना मन बहलाती रहती। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक
अर्जुन और माधवी के यहाँ प्यारी सी बेटी साक्षी का जन्म हुआ।
अब तो सुमित्रा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था‚ जब दोनों
परिवार साथ रहते तब सुमित्रा को तो जैसे साँस लेने की फुरसत
नही होती थी। पोते–पोती में इतनी व्यस्त रहती वह…! पोता कहता
दादी मेरी है‚ पोती कहती दादी मेरी है‚ और दादी कहती तुम दोनों मेरे हो।
इस तरह चार साल निकल गए। शुरू शुरू में आरती माधवी मिलकर
नित–नए पकवान बनातीं और सब घर वाले साथ मिलकर खाते। एक अलग ही
खुशी का माहौल होता था। एक–एक क्षण की खुशियाँ बटोरने में लगा
होता था घर का हर सदस्य। जितना भी समय हाथ में होता था उसका
भरपूर उपयोग साथ मिलकर कैसे किया जाए इसी होड़ में लगे रहते थे
सब। सबसे ज़्यादा खुशी की बात तो यह थी कि अक्षित को दादी से
रात को सोते समय नित नई कहानी सुनने को मिलती थी। वह दिनभर
खेलते समय रात आने का इंतज़ार करता रहता कि कब रात हो और कब
सोते समय दादी की प्यारी कहानी सुने…!
पर जैसे इन खुशियों को
किसी की नज़र लग गई थी‚ धीरे धीरे यह सिलसिला कम होता गया… अब
जब भी वह लोग आते‚ समय कम होता काम ज़्यादा होते थे… साथ मिलकर
बैठने का मौका बहुत कम होता था।
समय बीतता गया… फिर एक दिन ऐसा आया कि अर्जुन की अमेरिका जाने
की तैयारी होने लगी। सोचा कि कोशिश कर के देखने में क्या हर्ज़
है‚ अभी सिर्फ घूमने के बहाने जाए और जाकर देखे कि कोई अच्छा
काम अगर मिल जाता है तो बाद में बाकी के लोग भी वहीं आ जाएँ और
एक बार फिर पूरा परिवार साथ रहने लगेगा। दोंनों परिवार साथ
रहेंगे तो खुशियाँ फिर लौट आएँगी‚ अलग रहने का गम भी दूर हो
जाएगा। बच्चों की भी एक सी परवरिश होगी‚ कोई भेदभाव नही रहेगा। सब से बड़ी बात यह कि
सब एक साथ रह पाएँगे जो की माँ का सब से बड़ा सपना है।
और अर्जुन लंबी दूरी तय कर के आ पहुँचा शिकागो में अक्षय के दो
कमरे के सुन्दर से फ्लैट में। उस दिन शनिवार था। सप्ताहांत मज़े
में कट गया। लेकिन अगले दिन की ज़िन्दग़ी ने अजब मोड़ लिया।
अर्जुन और आरती काम पर निकल गए। अक्षित स्कूल। उन्हें शाम चार
पाँच बजे तक लौटना था। आरती जाते जाते कह गई, "फ्रिज में खाना
है गरम कर के खा लेना।" जो ज़बरदस्त व्यवस्था भारत में अक्षय और
आरती के लिये वह करता आया था उसका कहीं नाम न था। ठीक है हर
जगह की अपनी व्यवस्था होती है पर व्यस्तता ने सारे माहौल पर
ऐसा रूखापन व्याप्त कर रखा था कि कुछ घंटे बिताना अर्जुन के
लिये मुश्किल हो गया। उसे लगा कि जिस अपनेपन और साथ के लिये वह
तरस रहा था वह कितना वीरान है।
अगले ही दिन आरती बातों बातों में कहने लगी‚ "अर्जुन घूमने आए
हो ठीक है‚ पर कुछ काम करा लिया करो‚ अपना खाना खुद ही बना
लिया करो‚ मुझे काम पर जाना होता है आते आते देर हो जाती है‚
थकान भी लगती है … सो यह सब मुझसे नही होगा‚ मैं तो अपना खुद
का खाना भी मुश्किल से बना पाती हूँ। यहाँ तो नौकर चाकर होते
नही बहुत खर्चा हो जाता
है सो खुद ही सब काम करना होता है।"
भाभी ने कहा, "मैं तो अपना खुद का खाना भी मुश्किल से बना पाती
हूँ।" यानि कि अर्जुन अब पराया हो गया था उनके लिये! उन्हीं के
लिये वह बोझ–सा हो गया जिनके लिये वह अहमदाबाद में हर काम छोड़
माँ और माधवी सहित सेवा में हाज़िर रहता हैं? इसलिये नहीं कि यह
लोग कुछ दिनों के लिये आए होते हैं या कि इनके पास समय नही
होता… पर इसलिये कि उसके दिल में आज भी इनके लिये उतना ही
प्यार है जितना तब था जब ये लोग पहली बार अमेरिका के लिये घर
से निकले थे।
सिर्फ आरती ही नहीं अक्षय भी काम से लौटा होता तो थका–सा होता,
अक्षित अपने में व्यस्त और कभी–कभी भैया भाभी दोनों अक्षित के
साथ व्यस्त। कभी–कभी वे टीवी के सामने लेटे इस तरह थकान मुक्त
होने के मूड में होते कि अर्जुन नितांत अकेला हो उठता। उसके लिये
पंद्रह दिन काटना मुश्किल हो उठा। उसने कभी नहीं सोचा था कि ये
लोग इस तरह बदल जाएँगे‚ इस तरह इनकी सोच भी बदल जाएगी … समझ
नहीं आ रहा था कि हो क्या गया था‚ कहाँ खो गया था अपनापन… मन
में जो जो आशाएँ बंधीं थी अमेरिका के लिये‚ वह सब एक ही क्षण
में उड़. कर हवा हो गई। उसे वहाँ की ज़िंदगी का दूसरा पांसा नज़र
आ गया था अब। क्या व्यस्तता और अकेलापन इस तरह व्यक्तित्व पर
हावी हो जाते हैं कि अपनों का साथ तक उसे दूर नहीं कर पाता?
किसी तरह प्रवास के पल पूरे हुए और एक नया अनुभव मन में समेटे
अर्जुन भारत लौट आया।
अक्षय और माधवी हर साल भारत आते रहे‚ और हर साल… यहाँ
सुमित्रा, अर्जुन व माधवी अपने संस्कारों को छोड़े बिना‚ मन के
संयम को बरकरार रखते हुए उनका स्वागत प्यार से करते रहे। सब
कुछ सामान्य सा नज़र आता था। … बस ज़रा अक्षित का यहाँ मन नहीं
लगता… वह अलग माहौल में पैदा और बड़ा हुआ है सो उसे समझाना
मुश्किल होता। सुमित्रा भी धीर–धीरे समझने लगीं कि जब उसका
अपना ही बेटा उस माहौल में जाकर बदल गया है‚ तो इस बच्चे का
क्या दोष? इसका तो जन्म
ही उस माहौल में हुआ है और फिर एक महीने की ही तो बात है, समय
यों ही गुज़र जाता।
पहले की बात अलग थी‚ जब तक सिर्फ बातों में मतभेद होते थे… पर
अब तो लगता है जैसे दौनों परिवारों के मतभेद दिख जाते… कभी कभी
अक्षय बातों बातों में कह देता है हमारे घर तो ऐसा नही चलता‚
या कि मैं तो ऐसा खाना नहीं खाता… चाय इतनी कड़क क्यों बनाते
हो? आरती कहती कि खाना बनाने वाली अच्छी न मिले तो माधवी तुम
ही खाना बना लिया करो‚ इस में हर्ज़ ही क्या हैं? हमें तो यह
देखना है कि कोई ऐेसी वैसी खाना बनाने वाली न आ जाए‚ क्योंकि
अक्षित यहाँ आकर बीमार हो जाए यह हमसे सहन नहीं होगा और अब तो
इतने सालों से अमेरिका में हैं तो गंदगी तो बिलकुल भी सहन नहीं होती हमसे।
सुमित्रा और अर्जुन व माधवी बस सुनते ही रह जाते। रिश्ता बस
काम से काम तक का रह गया था। साथ मिलकर खाना‚ खुशियाँ मनाना‚
ज्यादा से ज्यादा समय किस तरह एक साथ बिताया जाए उस होड़ में
दौड़ना… वह सब एक सपना सा हो गया था‚ क्या इंसान में इतना बदलाव
आ जाता है, कि मन में प्यार ही ना रहे एक–दूसरे के लिये? अब
अक्षय और आरती की चिठ्ठियाँ भी आनी कम हो गई थीं‚ एक दो बार
सुमित्रा ने अक्षय से शिकायत भी की और अक्षय बोला‚"माँ मैं फोन तो कर ही लेता
हूँ ना? हमारी बात तो हो ही जाती है।"
सुमित्रा ने कहा था‚ "बेटा‚ चिठ्ठी तो जब मन चाहे‚ जितनी बार
चाहे …पढ़ सकते हैं ना!" इस बात का अक्षय के पास कोई उत्तर नही
था! और सर से पानी तब गुज़रा जब सुमित्रा के बीमार होने पर‚
उसकी तबीयत पूछने के बजाय अक्षय ने यह कहा कि‚"अर्जुन‚ माँ की
बिमारी में जो भी खर्चा होगा वह मैं दे दूँगा‚ बता देना कितने
पैसों की ज़रूरत रहेगी…पर माँ यह कहे कि कुछ दिन वहाँ आकर मैं
उनकी सेवा करूँ तो यह मुझसे नहीं होगा।
कहाँ चला गया था स्नेह? कहाँ थी वो अपनों से मिल कर दर्द बाँट
लेने की कसक? हर बात की तुलना पैसों से होने लगी थी…! बरस बीत
रहे थे और कई बरसों से आना जाना भी बस एक क्रम सा बन गया था…
हर साल वे लोग आते… सब से मिलते… खुद के काम निबटाते… और महीना
पूरा होने पर चले जाते। पहले जब जाने वाले होते थे तब दस दिन
पहले से सब के मन भर भर
आते थे सब के… पर अब तो ऐसा गहरा रिश्ता ही नहीं रहा था जैसे!
लेकिन माँ तो माँ होती है! तभी तो आज इतनी अधीर हो रही है
सुमित्रा… बीते हुए सालों के दुख और ग्लानि को भुलाकर एक बार
फिर… बहू बेटे के स्वागत के लिये तैयार हो गई है। हर बार मन
में यही आस कि कभी न कभी अक्षय के ममतामयी भारतीय संस्कार लौट
आएँगे... दूर हो जाएगा यह तनाव...फिर से अहसास होगा अक्षय को
कि मिलकर रहना चाहिये प्यार से। और शायद उसे यह भी समझ आए कि
बड़े भाई का दर्जा है उसका, तो कुछ फर्ज़ उसके भी बनते हैं
परिवार के लिये। सुमित्रा को लगता है कि ऐसा दिन आएगा… और ज़रूर
आएगा… वह आज भी ऐसा मानती है कि दूर रहने से प्यार कम नहीं हो
जाता‚ वह मानती है कि यह सब तो क्षणिक प्रभाव हैं आदतों के। इन
आदतों के बीच जन्म के संस्कार डूब नहीं जाएँगे। इसी भ्रम में
उसने इतने साल निकाल दिये हैं।
बाहर कार रुकने की आवाज़
आई‚ सुमित्रा की धड़कन रुक गई…जैसे! जल्दी से वह बाहर भागी‚
आवाज़ लगाई, "अर्जुन माधवी जल्दी बाहर आओ‚ वह लोग आ गए हैं‚
साक्षी जल्दी से आ बेटा‚ देख अक्षित आते ही तुझे ढ़ूँढेगा। फिर
तुरंत कहने लगी, "नहीं तू कहीं छिप जा‚ देखें तो वह अपनी बहन
को पहचान पाता है या नहीं?" आँखों में पानी भर आया… यह आँखों
का पानी कभी साथ नहीं छोड़ता… चाहे गम हो या खुशी… बरस ही पड़ता
है !
कामवालों से कहा बाहर जाकर सामान निकालो कार में से। साल भर
बाद देखेंगी सब को… अक्षित कितना बड़ा हो गया होगा… और इस बार
तो उसका जी ज़रूर लगेगा भारत में… अब तो वह समझेगा कि दादी का
घर क्या होता है… कितनी हूँफ मिलती है… कितना प्यार और सुकून
मिलता है…! अब वह ज़रूर समझेगा।
पर यह क्या? अक्षित कहीं
नज़र नही आ रहा! अक्षय और आरती आए… आगे बढ़कर माँ के पैर छूए‚
सुमित्रा खुश थी कि इतना मान देना तो वह नहीं भूले हैं अभी
तक…!
सुमित्रा ने पूछा, "अक्षित कहाँ है?"
"माँ‚ वह इस बार नहीं आया …स्कूल में सब वर्ल्ड टूर पर ले जा
रहे थे‚ सो हमने सोचा… भारत तो हर साल जाता है‚ इस बार उसे टूर
पर भेज दें…।" अक्षय ने जवाब दिया।
"माँ‚ हम भी इस साल सिर्फ एक हफ्ते के लिये ही आए हैं...बहुत
से काम अधूरे छोड़ कर आए हैं...जाकर पूरे करने हैं।" आरती बोली।
"पर बेटा‚ साल में एक बार तो आते हो… तो कम से कम एक महीना
छुट्टी तो होनी चाहिए ना?"
"नहीं माँ‚ अब वैसे भी… यहाँ ज़्यादा कुछ काम होता नहीं‚ पहले
की बात अलग थी‚ अक्षित छोटा था‚ अब उसकी भी पढ़ाई है‚ भविष्य
बनाना है उसका हमें‚ तो ध्यान तो देना ही पड़ेगा ना। सो अब यहाँ
के चक्कर कम लगेंगे‚ दो तीन साल में एक बार आ जाया करेंगें…।"
"ठीक है‚ बेटा…जैसा तुम
चाहो…!" सुमित्रा ने शांत चित्त से कहा और चुप हो गयीं।
सुमित्रा ने आजतक उनकी हर बात सुनी है और चुप रही हैं… और
हमेशा यहीं कहा है, "ठीक है बेटा‚ जैसा तुम चाहो…!"
उसकी पीड़ा को अक्षय और आरती… तब समझेंगे जब अक्षित बड़ा हो
जाएगा।
सुमित्रा‚ थके कदमों से अल्मारी की ओर बढ़ गई‚ दवाई का डिब्बा
लेने…! |