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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
डॉ. सूर्यबाला की कहानी- दादी और रिमोट


चूँकि इसके सिवा कोई चारा न था
गाँव से दादी ले आई गई।
हिलती, डुलती ठेंगती, ठंगाती।
लाकर, ऊँची इमारतों वाले शहर के सातवें माले पर पिंजरे की बूढ़ी मैना-सी लटका दी गई।'
नीचे झाँकी तो झाँई आए और ऊपर देखो तो एक पे एक, डब्बा पे डब्बा से घेरे, आसमान पे लटके घर। इतने कि आसमान नजर आता ही नहीं। पूरब वाली खिड़की से दिखता सिर्फ बालिश्त भर आसमान का नुचा सा टुकड़ा। उसी में रात-बिरात झाँक जाते, कुल जमा, चार छ: तारे।
न सप्तर्षि, न सुकवा (शुक्रतारा)।

और सबेरा? जैसे जंग छिड़ी हो कहीं। भोर हुई नहीं कि भागम-भाग। अड़ाक-फड़ाक खुलते, बंद होते दरवाजे। जूते-चप्पल, कंघी, इस्त्री, अफड़ा-तफड़ी। और अपने-अपने थैले, बकसियाँ लटकाए सब दरवाजे से बाहर।

बाप दफ्तर चलाने, माँ कॉलेज पढ़ाने और बेटे-बेटी इस्कूल।
दरवाजा भेंड़ती मालकिन, हर रोज बाहर निकलते हुए जंगबहादुर से वहीं एक हिदायत दुहराती क़ि वह दादी के लिए रोटियाँ, दाल और सब्जी मेज पर ढाँक कर, दरवाजा पूरी चौकसी से बंद करता जाए।

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