आम
पढ़ेलिखे अमेरिकन और ब्रिटिश आप्रवासी भारतीयों
के लिए दशकों प्रवासी जीवन व्यतीत करने के बाद अंततः
हिन्दी पूर्ण रूप से मातृभाषा नहीं रह जाती है क्यों कि
धीरेधीरे उनकी सोचने की प्रक्रिया बहुत कुछ
अंग्रेज़ी में होने लगती है। और जब बात होती है
दूसरी पीढ़ी की मातृभाषा की तो निश्चय ही हिन्दी उनकी
द्वितीय भाषा होती है क्यों कि उनका अनुभवात्मक
भाषाई परिवेश तथा भावात्मक (कॉन्सेप्चुएल
डेवलेप्मेंट) भाषाई विकास अंग्रेज़ी में ही होता है
भले ही हमें यह सत्य कड़ुआ लगे। ब्रिटेन में पैदा
हुए और पले बढ़े ये भारतवंशी सूरीनाम, त्रिनिदाद
और मॉरिशस में पलेबढ़े बच्चों से मूल रूप में
भाषाई भावनात्मक स्तर पर भिन्न होते हैं।
प्रवासी भारतीय (ब्रिटिश) बच्चों के लिए पाठ्यक्रम
निर्धारण करने से पूर्व हमें यह समझना होगा कि हम
उन्हें हिन्दी क्यों पढ़ाना चाहते हैं और साथ ही हमें
यह भी जानना चाहिए कि प्रवासी भारतीयों की दूसरी
और तीसरी पीढ़ी हिन्दी क्यों पढ़ना चाहती है। सर्वेक्षण
के पश्चात् निष्कर्ष यह निकलता है कि हिन्दी वे इस लिए
सीखना चाहते है क्योंकि हिन्दी उनके प्रियजनों की
भाषा है, वे भारत में रह रहे अपने दादादादी
चाचाताया तथा सगेसंबंधियों से उनकी भाषा
में आत्मीयता के साथ बातचीत करने के साथ ही अपने
मार्तापिता के पीछे छूटे हुए देश और सभ्यता को समझ
सकने में सक्षम हो सकें। यदि मनोवैज्ञ्ाानिक
दृष्टि देखें तो आप्रवासी भारतीयों के लिए हिन्दी स्नेह,
प्रेम और आत्मीयता की भाषा है न कि अर्थोपार्जन की
काम काजी भाषा है। आप्रवासी भारतीयों की संताने
आमतौर पर कर्तव्यबोध, भावबोध और सौंदर्यबोध
के लिए हिन्दी पढ़ना चाहती हैं, रोज़गार या डिग्री
पाने लिए नहीं।
अतः आप्रवासी भारतीय बच्चों के लिए पाठ्यक्रम
निर्धारित करते समय उपरोक्त बिन्दुओं को ध्यान में
रखना अति आवश्यक होगा। हमें उनके भाषा सीखने के
उद्देश्यों यानी लिखनापढ़ना, बोलना, समझना
एवं भारतीय सभ्यता को समझने आदि क्रियाओं का
समन्वय इस प्रकार करना होगा कि पाठ्यक्रम उन्हें रूचिकर
लगे और साथ ही उनके अंदर बोलने और समझने के
अतिरिक्त लिखने की प्रवृत्ति भी पैदा करे। पाठ्यक्रम
निर्धारित करने से पूर्व हमें छात्र के आयु वर्ग को भी
जानना चाहिए साथ ही यह भी कि उनका शिक्षक कौन
होगा, देसी अथवा विदेशी, उनका हिन्दी शिक्षण किस
भाषा के माध्यम से होगा, हिन्दी, अंग्रेजी अथवा
कोई अन्य भाषा! विद्यार्थी का पूर्व हिन्दी ज्ञान किस
स्तर का है, और प्राप्त हिन्दी ज्ञान के संप्रेषण में
हिन्दी भाषा के प्रयोग की क्या स्थितियां हैं,
आदिआदि।
यदि देखा जाए तो ब्रिटेन में हिन्दी पढ़ने वालों में
सबसे अधिक संख्या आप्रवासी भारतीयों के उन बच्चों
की है जो ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय मूल के
लोगों की दूसरी और तीसरी पीढ़ी है। इसमें 5 से
लेकर 15 वर्ष तक के आयु के बच्चे ही अधिक होते हैं। ये
बच्चे प्रायः मंदिरों अथवा किसी अन्य सामुदायिक
स्थानों में हिन्दी पढ़ना शुरू करते हैं। साधारणतया इन
बच्चों के मस्तिष्क में 3040 हिन्दी के अत्यंत साधारण
रोज़मर्रा के शब्दों और वाक्यों के धूमिल बिम्ब
होते हैं, (हिन्दी के वे शब्द जो उनके मांबाप अक्सर
आपस में बातचीत करते हुए प्रयोग में लाते हैं
जैसे उठो, जल्दी करो, खाना खाओ, रोटी सब्ज़ी के
साथ खाओ, चावल में दाल मिलाओ, नमस्ते करो,
पूजा में हाथ जोड़ो, ओंम जय जगदीश हरे आदि)
जो ये अपने साथ स्कूल में लाते हैं। आवश्यकता है
उनके भाव और शब्द अनुभव को लेकर
मनोवैज्ञानिक ढंग से पाठ्यक्रम तैयार करने की। अतः
पाठ्यक्रम और पाठ निर्माण करते हुए इस आयु वर्ग के
विद्यार्थियों उनकी प्रवृतियों, रूचियों, अनुभवों
और मानसिक आवश्यकताओं का समन्वय करते हुए किया
जाना चाहिए।
इन विद्यार्थियों की प्राथमिक आवश्यकता हिन्दी बोलना
और समझना है न कि लिखना सीखना। अधिकांशतः इन
छात्रों की रूचि अपने प्रियजनों से संवाद स्थापित करना
है। ब्रिटेन के इन छात्रों को हिन्दी फिल्मों, और
गानों में विशेष रूचि होती है अतः मनोरंजन के
लिए हिन्दी फिल्मों के 'डायलॉग्स' के अर्थ को समझ
पाना इनकी पसंद है। अक्सर 12 से 15 वर्ष के बच्चों को
मुख्य धारा के स्कूलों में इतिहास अथवा भूगोल के
पाठ्यक्रम के तहत भारत पर अंग्रेज़ी भाषा में प्रॉजेक्ट
आदि करना होता है जिसमें उन्हें अपने पूर्वजों के देश,
भाषा और सभ्यता आदि पर संक्षेप में प्रकाश डालना
होता है। कई बार इंटरनेशनल इंवनिंग आदि जैसे
उत्सवों पर उन्हें कुछ कहना, बोलना अथवा करना होता
है। हिन्दी कक्षा में जाने और हिन्दी पढ़ने से अवश्य ही
बच्चों के मन में अपने पूर्वजों के देश और भाषा
के प्रति सम्मान उत्पन्न होता है अतः इन बिन्दुओं को
ध्यान में रख कर पाठ्यक्रम बनाने से हिन्दी का महत्व
बढ़ेगा। आज इस युग में बिना प्रयोजन बिना लक्ष्य
(टारगेट) आकर्षक पैकेजिंग के कोई माल नहीं बिकता
है। हम अच्छे, सरस, चित्रात्मक, रंगीन और सुनियोजित
पाठ्यक्रम से हिन्दी के लिए एक बड़ा बाज़ार तैयार कर
सकते है।
वर्तमान में जितने भी पाठ्यक्रम हैं वे सब लिखित
पाठ को ही ध्यान में ले कर विकसित किए गए हैं। इन
पाठों की प्रस्तुति प्रभावशाली नहीं है। इन विद्यार्थियों
की आवश्यकता है व्यवहारिक (एक्शन से भरपूर) यानी
बोलचाल वाले नाटक तत्व पर आधारित पाठ्यक्रम की। अतः
जो पाठ्यक्रम बनाया जाए उसे मुख्यरूप से
बोलचाल तथा वर्तमान भारतीय सभ्यता पर केन्द्रित
किया जाना चाहिए। लिखित हिन्दी का एकांगी पाठ्यक्रम आज
के बालकों के मनोविज्ञान के अनुकूल नहीं होता
है। वर्णमाला की नकल, सुलेख की ज़बरदस्ती इन
बालकों को हिन्दी पठन से जल्दी ही विरक्त कर देती है।
मेरे अपने परिवेक्षण के अनुसार अभी तक जितने भी
पाठ्यक्रम देखने को मिले हैं उनमें व्यवहारिक
बोलचाल की प्रक्रिया मात्र पांच से दस प्रतिशत है।
हिन्दी बातचीत, गानों और सिनेमा के प्रेमी छात्रों
को यदि वर्णमाला लिखने के एकांगी अभ्यास में लगा
दिया जाएगा तो निश्चय ही उनकी रूचि धीरेधीरे क्षीण
हो जाएगी। विदेशो में रहनेवाले भारतीय बच्चों का
हास्य (सेन्स ऑफ़ ह्यूमर) काफ़ी विकसित होता है। इन
बच्चों को पाठ्यक्रम में महाभारत, रामायण और
पुराण के साथ 'देवदास' और 'शोले' जैसे जनप्रिय
फिल्मों आदि के 'कॉमिकस्टि्रप्स' भी रखे जा सकते हैं।
आज आवश्यकता है ऐसे गतिशील पाठ्यक्रम की जो
प्रवासी भारतीय परिवेश को संबोधित करे ना कि भारत
के केवल ग्रामीण और अर्धशहरी जीवन को जिसका
संदर्भ ब्रिटेन और अमेरिका में पैदा हुए छात्र के अनुभव
संसार के बाहर का है। यद्यपि ये विषय भी कहानी आदि के
माध्यम से पाठ्यक्रम में छात्रों के अनुभव संसार को
विकसित करने के लिए सम्मिलित किए जा सकते हैं।
अभी तक विदेशों में प्रयोग होने वाली जितनी हिन्दी
पाठ्यक्रम की पुस्तकें देखने को मिली हैं वे सभी भारत
के ग्रामीण या अर्धशहरी परिवेश के विद्यार्थियों को
ध्यान में रखकर लिखी गईं है। अतः उनमें भाव, विचार,
शिक्षासंकल्प, घटनाएं, परिवेश सब उनसे ही
संबंधित है। इसी प्रकार बच्चों के लिए लिखी गई
नीतिकथाएं भी पुरातन कृषिव्यवस्था पर आधारित
परिवेश को ही संबोधित करती हैं। आवश्यकता है इन
पाठ्यक्रमों और पाठों में वर्तमान भारतेतर समाज के
अधिक समसामयिक चित्रण का। कहने का तात्पर्य यह है कि
आज के पाठ्यक्रमों में वैश्विक परिवेश के साथ
वैश्विक शब्दावलियों का समन्वय आवश्यक और
महत्वपूर्ण है। अतः आज के हिन्दी के पाठ्यक्रम में
आधुनिक परिवेश, आधुनिक परिवार, प्रकृति, कम्प्यूटर
के साथ वायुयान, अंतरिक्ष, आधुनिक संचार माध्यम
और कम्प्यूटर जैसे विषय भी आने चाहिए जिसमें
संवाद हों गति हो जिसके साथ बालक खुद को आइडेटिफ़ाए
कर सके। अतः पाठ बनाते समय सबसे पहले छात्र के
अनुभव संसार से शब्दों को उठाना होगा फिर पाठ का
विकास करते हुए नए शब्दो के प्रयोग का। आज हमें
आवश्यकता है ऐसी पाठ्यसामग्री के निर्धारण की जिसका
प्रयोग छात्र दिन प्रतिदिन के जीवन में कर सकें।
हिन्दी के वयस्क छात्रों यानी कर्मचारियो और शोध
विद्यार्थियों के लिए पहले हिन्दी भाषा शिक्षण में
अनुलय पद्धति ही प्रचलित थी। जिसमें शिक्षक व्याकरण के
विभिन्न अंगों को अलग से शिष्यों को सिखाते थे
जो अत्यंत नीरस हुआ करता था। आज वर्तमान में इसका
स्थान संप्रषेण शैली ने ले लिया है। अब संसार की
सभी विकसित भाषाएं संप्रेषण शैली द्वारा सिखाई जाती
हैं। आज व्याकरण को क्रियात्मक रूप देकर सिखाया जाता है।
अभी तक हिन्दी के जो भी पाठ्यक्रम मुझे देखने को
मिले हैं वे सभी संरचनात्मक व्याकरण पर ही आधारित
हैं। जो मूलतः भारत के सरकारी विभागों में प्रयोग
में लाए जाते है। यदि हम इन पुस्तकों की तुलना लंदन
विश्वविद्यालय के हिन्दी के प्राध्यापक डा रूपर्ट स्नेल की
पुस्तक 'टीच योरसेल्फ़ हिन्द्री अथवा 'बी बी सी हिन्दी
बोलचाल या अमेरिका में प्रचलित अन्य पुस्तकों से
करें तो पाएंगे कि ये पुस्तकें संरचनात्मक(स्ट्रक्चरल)
नहीं कार्यात्मक (फंक्शनल) आधार पर तैयार की गई हैं
जैसे एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, रेस्टोरेंट आदि जो
गतिशील, आर्कषक और प्रयोगात्मक दृश्य इनमें
शामिल किए गए हैं। अतः पाठ्यक्रम इस तरह का होना
चाहिए कि विदेशी अथवा प्रवासी भारतीय की दूसरीतीसरी
पीढ़ी जब भारत आए तो हिन्दी ज्ञान का प्रयोग अपनी
सुविधा के लिए कर सके। कहने का तात्पर्य यह है कि हिन्दी
की पाठ रचना को संरचनात्मक़ कार्यात्मक पद्धति में
विकसित करना निश्चय ही आवश्यक है।
ब्रिटेन के द्वितीय भाषा के विभिन्न महत्वपूर्ण
शोधों, सम्मेलनों, चर्चचाओं एवं
परिचर्चचाओं से पता चलता है कि हिन्दी में व्याकरण के
विकास का क्रम अन्य विदेशी भाषाओं के क्रम से भिन्न
है साथ ही यह भी जानकारी मिलती है कि व्याकरण के
विभिन्न अंगों का क्रम क्या है। विद्यार्थी भिन्नभिन्न
क्रमों में व्याकरण सीखने की योग्यता रखते हैं (उदाहरण
के लिए अंग्रेज़ी व्याकरण में 'रिलेटिव
क्लाज्रा किस
क्रम पर आता है आदि।)
आधुनिक अवधारणाओं के अनुसार द्वितीय भाषा ज्ञान
प्रक्रिया को दो भागों में बॉंटा गया है। अवचेतन बुद्धि
सचेतन स्तर
के नीचे होती
है जबकि प्रत्यक्ष बुद्धि सचेतन स्तर पर होती है। ऐसा
माना गया है कि भाषा का निष्पादन प्रायः अवचेतन
बुद्धि .द्वारा होता है अतः
भाषा ज्ञान में प्रत्यक्ष निर्देशन को अब बहुत महत्व
नहीं दिया जाता है। बल्कि सचेतन रूप से ध्यान आकर्षण
जैसी प्रवृतियों को विकसित करने पर जोर दिया जाता
है।
आधुनिक पद्धति में सचेतन ज्ञान को विकसित करने के
लिए विकासक्रम के अनुसार शिक्षण देना आवश्यक है
अन्यथा विद्यार्थी उसे ठीक से ग्रहण नहीं कर पाएगा। अतः
सही विकास क्रम का निर्धारण करना और उसके अनुसार
पाठ्यक्रम और पाठ बनाना हिन्दी शिक्षण के लिए आवश्यक
है।
यदि हम हिन्दी को विश्व के जनप्रिय भाषा के रूप में
देखना चाहते हैं तो हिन्दी के पाठ्यक्रम को सहजसरल
आकर्षक और मनोवैज्ञानिक होने के साथ आधुनिक
और व्यावहारिक भी बनाना होगा जो छात्रों के
मनोविज्ञान को प्रभावित करे न कि शिक्षाशास्त्रियों
के कोरे पांडित्य का प्रर्दशन करे। |