इंग्लैंड
सदा से कम उन्नत देशों के लिए 'प्रॉमिस लैण्ड' और
विस्थापित लोगों का आश्रयदाता रहा है। जब कभी
योरोप के पूर्वी देशों में कोई उथलपुथल या क्रांति
हुई तो भागे हुए असुरक्षित लोग सुरक्षा की दृष्टि से
समुद्री रास्तों से आ कर लंदन के पूर्वी इलाकों में
बस गए और वे उन मेहनतकश कामों को करने लगे
जिसे ब्रिटेन के मूल निवासी अंग्रेज़ नस्ल के गोरे
लोग नहीं करना चाहते थे। आवागमन के इस चक्र को
यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रथम और द्वितीय
महायुद्ध के बाद इंग्लैंड में आइरिश, यहूदी, पोलिश
और इटैलियन मेहनतकश शरणार्थी एक बड़ी संख्या में
आए और स्थानीय लोगों से दूर खस्ताहाल ईस्ट लंदन के
इलाके में गैटोज़ यानी बस्तियां बना कर रहने लगे।
ब्रिटिश दूसरे देशों से आए लोगों की भाषा और
संस्कृति न जानने के के कारण उन्हें अच्छी दृष्टि से नहीं
देखते थे और उनसे दूरी बनाए रखने के लिए वह बस्ती
छोड़ कर चले जाते थे। ये छोड़ी हुई जगहें विस्थापित
लोगों के रिहाइश के काम आती जो सस्ती और गिरती
हुई हालत में थी।
विस्थापित
यहूदी और पोलिश अपने विस्थापन और संघर्ष के
दिनों में ईस्ट लंदन के पेटीकोट लेन और वेस्ट लंदन
के पोर्टोबेलो मार्केट तथा अन्य भागों में चमड़े के
कपड़ों और अन्य उपयोगी वस्तुओं का व्यापार करते। इस
तरह ये लोग ब्रिटेन के टूरिस्ट चोरबाज़ार और सस्ते
इलाकों में स्टॉल लगा कर मेहनतकश काम करते हुए
धीरेधीरे धनाढ्य होते हुए नार्थ लंदन के गोल्डर्स
ग्रीऩ हैम्पस्टेड़ फ़िन्चले वेम्बले आदि जैसे अपमार्केट
क्षेत्रों में अपनी जगह बनाते चले गए। आज गोल्डर्स
ग्रीन और अपमार्केट लंदन के बड़े रिहाइशी क्षेत्र है।
अधिकांश यहूदी आज बर्तानिया के प्रमुख रईसों में
गिने जाते है। इसी तरह भारतीय भी ब्रिटेन में अपने
पैर जमाने के लिए यहूदियों और पोलिश आप्रवासी के
बनाए नक्शेक़दम पर चलते हुए़ पेटीकोट लेन और
पोर्टोबेलो मार्केट से धन अर्जित करतेकरते आगे
बढ़ते रहे। आज हमारे भारतीय मूल के लोग लाखों
और करोड़ों के मालिक है और ब्रिटेन के हर क्षेत्र में
अपना विशेष स्थान बना कर उच्चवर्ग में शामिल हो
रहे हैं।
इस प्रकार अपनी
बस्ती बना कर अपने लोगों के साथ 'गेटोज़'्र में
रहना जहां एक ओर आप्रवासियों को अंदरूनी मजबूती
और अपनापन देता है वहीं दूसरी ओर नए देश में आकर
अपनी अलग बस्ती बना कर उस देश के निवासियों से
अलग रहने से उस देश को समझने और उस देश के
साथ मिल कर रहने में दिक्कतें पैदा करता है। कई बार
यही नस्ली भेदभाव का कारण भी बन जाता है। इनॉक
पावेल जैसे सिर फिरे राजनीतिज्ञों को ज़हर
घोलने का मौका देता है। ब्रिटेन के मूल निवासी
कॉरकेसियन यानी अंग्रेज़ इस तरह के बसाव को अच्छी
दृष्टि से नहीं देख पाते है। अतः जब कभी देश में आर्थिक
गिराव आता है तो स्थानीय लोग आप्रवासी समुदाय
को ही उसके लिए दोषी ठहराते है। यही कारण है कि
जहांजहां पर इस तरह के बसाव हुए हैं वहांवहां
नस्ली दंगे हुए है। परंतु इस तरह के दबाव और तनाव ने
प्रवासियों में जुड़ाव और अपनी सभ्यतासंस्कृति
तथा भाषा को बचाए रखने की प्रेरणा की अग्नि भी दी।
यूं देखा
जाए तो ब्रिटेन सदियों से एकल भाषी, एकल संस्कृति,
एकल सभ्यता और एकल धर्म वाला देश रहा है। पचासवीं
और साठवीं के दशक में यायावर और बौधिक लोगों
को छोड़ कर यहां की सामान्य जनता को बाहरी दुनिया
के बारे में बहुत कम पता था। वस्तुतः आम अंग्रेज़ों
को भारत जैसे देशों के बारे में बड़ा ही उथला और
विचित्र प्रकार का नकारात्मक ज्ञान था। 196070 के दशक
में हमारी मुलाकात कई ऐसे श्वेतवर्ण लोगों से
हुई जिन्हें यह भी नहीं पता था कि अंग्रेज़ी भाषा और
सभ्यता के अलावा दुनिया में और भी कोई विकसित
भाषा और सभ्यता है। इंग्लैंड में हज़ारों और लाखों
ऐसे लोग थे जिन्होंने लंदन और स्कॉटलैंड तक नहीं
देखा था तो भारत जैसे देशों की तो बात ही और थी।
राजनीतिज्ञों और व्यापारियों को छोड़ कर आम
अंग्रेज़ी जनता सहजसरल छलप्रपंच से दूर लॉ
अबाइडिंग और सीधीसाधी है। साठवी के दशक में
जब मैं शुरूशुरू में यहां आई थी तो हर रोज़
मुझे विचित्रविचित्र से अनुभव स्थानीय अंग्रज़ो
के संपर्क में आने से होते रहते थे।
जिस तरह के
नस्ली रंगभेद का वर्णन मैंने फ़िल्मों, पुस्तकों
वगैरह में देखा और पढ़ा था उस तरह का खुला और उथला
भेदभाव देखने का सौभाग्य मुझे अपने अंग्रेज़
पड़ोसियों और साथियों से कभी नहीं मिला। हां,
उन्हें हमारे रीतिरिवाज़ और पारिवारिक संबंधों को
समझने में बहुत दिक्कत और आश्चर्य होता, विशेषकर
अरेन्ज मैरिज़, पितृसत्तात्मक पारिवारिक नियम और
स्त्रियों के अविकसित भाग्यवादी सोच पर। हांलाकि
इंग्लैंण्ड बस अभीअभी पितृसत्तात्मक विक्टोरियन
सभ्यता से उबरा था। बस अभी थोड़े दिनों पहले ही
तो 'विमेन्स लिब' का आंदोलन आरंभ हुआ था, 'ब्रा
बर्निंग' हुई थी, स्त्रियों को समान अवसर और वोट
देने का अधिकार मिला था। उपनिवेश से आए धन से
ग्रेटर लंदन और अन्य स्थानीय परिषदें सामान्य जनता
को बिना भेदभाव के बड़ेबड़े बेहतर घर खरीदने
और व्यापार के लिए सहायता दे रही थीं। हर मुहल्ले में
अस्पताल, स्कूल और कल्याण केन्द्र स्थापित हो चुके थे।
इंग्लैंड उन्मुक्त और विकसित समाज का रंगरूप ग्रहण कर
चुका था। नौजवान लोग मस्ती में थे। नौकरियों
की कोई कमी नहीं थी। लेबर सरकार का लक्ष्य था कि हर
परिवार के पास अपना मकान हो।
दुनिया के
हर देश में जहां भी दूसरे नस्ल और जाति के लोग आ
बसते हैं उस देश के कुछ अतिवादी लोग हमेशा कोई न
कोई कारण दंगा करने के लिए निकाल ही लेते है। इसी
तरह इंग्लैंड में भी छुटपुट ग़ैर कानूनी नस्ली दंगे
और तनाव समयसमय पर होते रहे हैं। ख़ासतौर पर
197178 के बीच (अफ्रीकन, एशियन और गोरे स्किनहेड
के बीच) ल्यूशम, न्यूक्रास, न्यूहम, ब्रिक्सटन,
बेडफोर्द, बर्मिंगघम, कॉवेन्ट्री आदि में। दंगों की
खबरें हम एशियाइयों को अक्सर भयभीत कर देती और हम
वापस अपने देश जाने की सोचने लगते पर हम वास्तव
में कभी वापस नहीं जाते। हमारे लोग अक्सर एक तरह के
वापस जाने की मनःस्थिति से पीड़ित होते। देसी लोग
औपनिवेशिक मानसिक दासता के कारण कई बार
बिलावजह भी गोरों से डरते और उन्हें अपने से ऊंचा,
बड़ा और साहब समझते जिससे कई प्रकार की समस्याएं
और गलतफ़हमियां खड़ी हो जातीं।
साठ के दशक
में भी (आज तो समय बदल चुका है) बसों,
दुकानोंं, ऑफ़िस आदि में कहीं भी उस तरह का छुआछूत
या भेदभाव देखने को नहीं मिलता था जैसा कि हम
किताबों आदि में औपनिवेशिक समय के बारे में
पढ़ते हैं। आम अंग्रेज़ मिक्स मैरिज के ख़िलाफ़ नहीं
है। एकता और शांति के लिए वह इसे अच्छा ही समझता है।
फ्लावर पीपुल और हिप्पी आंदोलन एक तरह से नस्ली
भेदभाव मिटाने का ही आंदोलन था। 1976 के हिप्पी
फेस्टिवल के उत्सव में मैं स्वयं शामिल थी। मैं और
मेरे साथ की बहुत सी कामकाजी एशियन महिलाओं के
बच्चे अंग्रेज नैनी या चाइल्ड माइंडर द्वारा ही पले है।
अंग्रेज़ स्वभाव से आक्रमक नहीं है। ब्रिटिश समाज
में व्यक्तिगत संबंधों में रेसिज़म नहीं है। पर यह
कहना कि इंग्लैंण्ड में रेसिज़म नहीं है गलत होगा,
इंग्लैंड में रेसिज़म है और 'इंस्टीट्यूशनल
रेसिज़म' की खबर हमें आए दिन रेडियो, अखबारों और
टेलिविज़न के माध्यम से मिलती रहती है। परंतु
इंग्लैंड में अमेरिका वाला हाल कभी नहीं रहा।
कभीकभी
टीवी, थिएटर या दीवारों पर व्यंगात्मक वाक्य,
चुटकुले, मज़ाक या नस्ली नारे जैसे 'ब्लैक्स गो
बैक', 'पाकी' आदि शब्द ग्रफ़ीटी की
शक्ल में दिखाई और सुनाई देते है। ये सब बातें
ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय समाज को उद्विग्न करने
में सहायक होतीं परिणाम स्वरूप हिन्दी लेखकों ने
आप्रवासी समुदाय के प्रति हो रहे इस तरह के व्यवहार
और अन्याय के विरोध में आवाज़ उठानी शुरू कर दी।
हिन्दी लेखन भी इससे अछूता न रह सका। निखिल कौशिक की
'तुम लंदन आना चाहते हो', उषा राजे की 'सियासत
खबर' (199192 नस्ली दंगों पर प्रतिक्रिया), गौतम
सचदेव की 'हव्वा का बयान' आदि कविताएं इस बात
का प्रमाण हैं। हिन्दी लेखकों ने भारत के प्रति अपनी
नॉस्टैल्जिक भावनाएं तो व्यक्त की ही साथ ही ब्रिटेन
में हो रहे रंगभेद को भी आड़े हाथ लिया 'ले कर
हाथ में दार्जिलिंग का प्याला' तितिक्षा शाह,
'ज़ख्मों का आंगन'सोहन राही, 'परदेस' (कहानी)
प्राण शर्मा, 'रॉॅनी' (कहानी) उषा वर्मा अदि कृतियां
इन्हीं परिस्थितियों में लिखी गईं।
पिछले
तीनचार दशकों में ब्रिटेन के रहनसहन,
खानपान, फैशन आदि की संरचना प्रवासियों के
आने से बदली है। आज मात्र लंदन में ही 4000 इंडियन
रेस्ट्रां है। पहले आम अंग्रेज़ अक्सर स्वाद बदलने के
लिए 'फ़िश और चिप्स' खाता था आज वह 'इंडियन
टेकअवे' खाता है। पहले वह अपनी प्रियतमा के साथ पार्क
या कंट्रीसाइड में रोमांस करता था और अब वह चिकन
बिरियानी और चिकन टिक्का के साथ 'कैंडललाइट' में
इंडियन रेस्टोरेन्ट में प्रणय निवेदन करता हैं। वस्तुतः
आज गोरे कई माइने में सिमट रहे हैं और हम फैल
रहे है। अब यह वह ब्रिटेन नहीं रहा जो 196768 के
समय में था। 1945 में अश्वेत ब्रिटेन में मात्र
हज़ारों की तादाद में थे और 1970 में यही संख्या ढाई
लाख को पार कर गई। आज तीस लाख से ऊपर अश्वेत यू के
में रिहाइश कर रहे हैं। आज अंग्रेज़ो की शब्दावली में
सैकड़ो हिन्दी शब्द समाहित है। इस वर्ष निकला 'न्यू
आक्स्फ़र्ड डिक्शनरी' इसका जीताजागता उदाहरण हैं।
अंग्रेज़ी उपन्यासों और कहानियों में सैकड़ों हिन्दी
के रोमानाइज्ड शब्द मिलते है। पहले अंग्रेज भारतीयों
को नौकरी देता था, आज भारतीय उन्हे नौकरी देता है।
यही कारण
है कि पिछले बीस वर्षो में हिन्दी भाषा धीरेधीरे
ब्रिटेन में मुखरित होने लगी। वस्तुतः हिन्दी की मुखरता
ने विभिन्न रूप लिए। पहले वह घरों में बोलीपढ़ी
और लिखी गई, फिर मंदिरों और भवनों में
गीताभागवत और रामायण के रूप में पढ़ीपढाई
गईं। हिन्दी आगे बढ़ी तो बच्चों को साप्ताहांत के
स्कूलों में समर्पित शिक्षकों द्वारा पढ़ाई गई। जब और
आगे चली तो वयस्क शिक्षा संस्थाओं में सरकारी
अनुदान से डाक्टर इंजीनियर, टीचर आदि को भारतीय
जनता से सम्पर्क स्थापित करने के लिए पढ़ीपढ़ाई गई।
फिर पढ़ाई गई ट्रेनिंग कॉलेजों में छात्रों के
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को समझनेसमझाने के लिए।
आगे फिर सामुदायिक भाषा के तहत स्कूलों के पाठ्यक्रम
में लगाई गई और फिर विश्वविद्यालयों में तो
सदियों से पढ़ाई जाती रही है विश्व बाज़ार की खातिर।
अब आज हिन्दी पढ़नेपढ़ाने वालों का, हिन्दी
प्रेमियों का, हिन्दी भाषियों का, हिन्दी शिक्षकों का,
हिन्दी लेखकोंकवियों का, तथा संस्थाओं आदि का
नेटवर्क सा बन गया है। विश्वजाल यानी इंटरनेट पर
आने से हिन्दी लेखकों, कवियों और पाठकों की संख्या
बढ़ी है। आज अधिकांश हिन्दी प्रेमी संस्थाओं,
गोष्ठियों और सम्मेलनों द्वारा एक दूसरे के संपर्क
में आते हैं। पत्रिका 'पुरवाई', 'हिन्दी समिति', 'नेहरू
सेन्टर', 'कथा यू के', 'गीतांजलि बहुभाषीय
समुदाय', 'कृति यू के' एवं ब्रिटेन की अन्य संस्थाए
लेखकों, कवियों और हिन्दी पाठकों को जोड़ने का एक
सशक्त माध्यम बन रही है।
आज
ब्रिटेन में हिन्दी का कार्य दबेछुपे नहीं हो रहा है
बल्कि खुले आम साहित्यिक गोष्ठियां, राष्ट्रीय,
अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, हिन्दी की परीक्षाएं, हिन्दी ज्ञान
प्रतियोगिताएं आदि हो रही है। बाजारो में, पार्को
में, गलियों में, सिनेमाओं में, नाट्यशालाओं में, इंटरनेट पर, रेडियो पर,
टेलिविज़न पर, अखबार में, पोस्टरों में हिन्दी खुले
आम बोलीलिखी और समझी जा रही है। हिन्दी
बोलनालिखना अब टैबू नहीं है। आज हिन्दी प्रेमी
और हिन्दी भाषी ब्रिटेन में हिन्दी को सम्पर्क भाषा के
रूप में खुल कर प्रयोग में ला रहे हैं। आज दफ्तर,
अस्पताल, पुस्तकालय, पुलिसचौकी, बैंक, ट्रैवेल
एजेन्ट आदि के यहां आपको हिन्दी में पैमफ्लेट मिल
जाएंगे। यदि आपको अंग्रेज़ी नहीं आती है तो भी आप
ब्रिटेन में आराम से रह सकते हैं। यात्रा कर सकते हैं।
आपको कोई न कोई हिन्दी बोलने या समझने वाला
मिल ही जाएगा।
अब ब्रिटेन
के पुस्तकालयों के एथनिक सेक्शन में प्रसिद्ध भारतीय
लेखकों के अतिरिक्त ब्रिटेन में रहनेवाले हिन्दी लेखकों
की हिन्दी में लिखी उपन्यास, कहानी और कविता की पुस्तकें
मिल जाती है। ब्रिटेन के कई लब्धप्रतिष्ठ लेखक वर्षो
से निरंतर लिख रहे हैं और देशविदेश में अपने
लेखन के लिए जानेपहचाने जाते हैं। जैसे डा
सत्येन्द्र श्रीवास्तव जी 1958 से ब्रिटेन में रहते हुए भी
हिन्दी में लिखते आ रहे हैं। उनकी रचनाएं निरंतर
'धर्मयुग' में प्रकाशित होती रही हैं। इसी तरह
कॉवेन्ट्री के प्राण शर्मा जी 1966 से निरंतर लिखते आ
रहे हैं। प्राण जी की रचनाए कादम्बनी में प्रकाशित होती
रही हैं साथ ही उनकी कहानी 'पराया देश' 1982 के अगस्त
में अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में पुरस्कृत हुई।
उर्दू के शायर सोहन राही जी हिन्दी के गीतों के लिए
प्रसिद्ध हैं। राही जी का गीत 'कोयल कूक पपीहा बोले'
अत्यंत प्रसिद्ध हुआ साथ ही उन्होंने मुख्य धारा के
इंडिपेन्डेन्ट टेलिविज़न पर गीतगज़ल प्रतियोगिता
जीत कर प्रसिद्धि पाई। इसी तरह 1968 से श्री कैलाश
बुधवार और नरेश अरोरा जी अपने निबंधों और
रिपोर्टिंग के लेखन के लिए जाने जाते है। स्वर्गीय
ओंकार श्रीवास्तव, कीर्ति चौधरी, अचला शर्मा, नरेश
भारती, गौतम सचदेव, उषा राजे, दिव्या माथुर,
रमा भागर्व आदि के नाम ब्रिटेन में हिन्दी लेखन के
लिए विख्यात है।
आज हिन्दी
साहित्य के लेखन का एक बहुत बड़ा हिस्सा भारत से बाहर
हिन्दी में सृजित हो रहा है। मॉरिशस के बाद ब्रिटेन
ही एक ऐसा देश है जहां सबसे अधिक हिन्दी साहित्य
सृजन गतिशील है। इंग्लैंड में आपको हर उम्र के कवि,
कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार, निबंधकार,
व्यंग्यकार, हास्य लेखक, आलोचक, रिर्पोटर आदि सभी
तरह के साहित्यकार मिल जाएंगे। अब तो रॉयल फेस्टिवल
हॉल या किसी बड़े पुस्तकालय के प्रांगण में बैठकर
मित्रों के साथ गोष्ठी या चर्चा कर सकते हैं। मुख्य
धारा के अखबार और टेलिविज़न पर आपका प्रसारण हो
सकता है। आप हिन्दी के कार्यक्रमों के लिए कोई भी हॉल
किराए पर ले सकते हैं।
यहां पर यह
बताना भी प्रासांगिक रहेगा कि यू के से 'पुरवाई' और
'अमरदीप' (इससे पूर्व 'चेतक', 'प्रवासिनी', 'हिन्दी'
आदि) तो प्रकाशित होती ही है, साथ ही अमेरिका से
'विश्वा', 'विश्वविवेक', सौरभ', 'भारती',
नार्वे से 'स्पाईलदर्पण' एवं 'शांतिदूत', फ़िजी से
'लहर' व 'संस्कृति', मॉरिशस से 'आक्रोश', 'मुक्ता',
'जनवाणी', 'रिमझिम', सूरीनाम से 'सेतुबंध,
'सरस्वती', 'भारतोदय', 'वैदिक संदेश', कैनेडा से
'हिन्दी चेतना' और आस्ट्रेलिया से 'चेतना' आदि पत्रिकाएं
निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। ये पत्रिकाएं देशविदेश के
साहित्यकारों को संयुक्त मंच देती हैं साथ ही संसार
के कोनेकोने में हिन्दी के प्रचारप्रसार का भी
कार्य करती हैं। इनमें से कई पत्रिकाएं अत्यंत उच्चकोटि की
साहित्यिक विषय वस्तु प्रस्तुत करती हैं जिन्हें
देशविदेश में बसे हिन्दी भाषा और साहित्य में
रूचि रखने वाले लोग पढ़ते हैं। भारत में भी इन
पत्रिकाओं के असंख्य पाठक हैं।
इस समय
ब्रिटेन में ही लगभग पचासपचपन लेखिकाएंलेखक
इस तरह का गंभीर साहित्य सृजित कर रहे हैं जो
ब्रिटिशइंडियन जनजीवन और उथलपुथल को
विशेषकर रेखांकित कर रहा हैं। वे एक ही नहीं कईकई
विधाओं में पूरी गंभीरता से स्तरीय लेखन कर रहे हैं।
लंदन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'पुरवाई' आज
अपने प्रकाशन के द्वारा ब्रिटेन, भारत तथा अन्य देशों
में लिखे जाने वाले ऐसे विशेष प्रवासी
साहित्यसृजन को प्रकाश में ला रही है जो विश्व के
हिन्दी लेखन में सहज ही अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाते
जा रहे हैं। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन
के बहुत से लेखक निरंतर भारत की प्रमुख पत्रपत्रिकाओं
में छप रहे है और पसंद किए जा रहे हैं।
इंग्लैंड
में बसे प्रवासी भारतीयों का लेखन फ़िजी़,
मॉरिशस, सूरीनाम और त्रिनिदाद में बसे प्रवासी
भारतवंशियों से सर्वथा भिन्न है। इंग्लैंड में
भारतीय स्वेच्छा और बेहतर भविष्य की खोज में आए
किन्हीं दबावों के तहत नहीं। अतः उनकी रचनाओं में
अरण्यरोदन नहीं है न ही उनके स्वर में आक्रोष है।
ब्रिटेन के लेखकों की रचनाओं में नए समाज की
बुनावट, बदलते परिवेश और बदलती मान्यताओं के
आकलन के साथ धन से आई थकन, ऐश्वर्य और विकृतियों
से आई घबराहट भी है। देश की याद आने पर वे रूदन
नहीं करते वरन देश जा कर घर परिवार से मिल उनकी
बदहाली, बदलती मानसिकता, संवेदना और आपाधापी
वाले परिवेश पर आलोचनात्मक दृष्टि डालते हुए बड़ी
बेबाकी से 'बेघर'(लेखिका अचला शर्मा), 'पुराना
घर नए वासी'(लेखक डा फ़िरोज़ मुखर्जी), 'एक
मुलाकात'(लेखिका उषा राजे) 'फिर कभी सही(लेखिका
दिव्या माथुर) जैसी कहानियां लिख डालते है। संकलन
'मिट्टी की सुगंध' (संपादकउषा राजे सक्सेना) में
पहली बार छपी तेजेन्द्र शर्मा की कहानी 'अभिशप्त' का तो
अभी हाल ही में नाट्य
मंचन भी हो चुका है।
इधर
ब्रिटेन में लिखी जा रही कविताओं में नैराश्य नहीं
बल्कि थर्ड वर्ल्ड के लिए वैश्विक बेचैनी और क्रांति है।
कुछ उदाहरण देखें :
'वे फिर खरीद ले जाएंगे
हमारे बुद्धिजीवियों और नौजवानों को
और हम खुली आंख
विश्व कल्याण का स्वप्न देखते रहेंगे
उषा राजे
तुम्हारी
सलाह हमारी सभ्यता नहीं है
यह (ब्रिटेन) हमारी कर्मभूमि है
हमारे बच्चों की जन्म भूमि है
पुराने रिश्तों की लाश पर नए रिश्ते बनाना
हमारी सभ्यता नहीं है
क्यों कि भारत हमारी मातृभूमि है।
तितिक्षा शाह अक्षरम अंक 25
जैसे भाव
कविता में पिरोए जाते हैं। पद्मेश गुप्त, तेजेन्द्र
शर्मा, स्वर्ण तालवाड़, अनुराधा शर्मा, बृज
गोयल, जया वर्मा आदि की कविताओं में भी
मानवीय संवेदनाएं और बेचैनी मुखरित हुई है।
इस संदर्भ
में प्राण शर्मा की रचना 'वतन को छोड़ आया
हूँ', डा सत्येन्द्र श्रीवास्तव की 'शिल्प गीत',
निखिल श्रीवास्तव की 'मैं लंदन आना चाहता हूं',
दिव्या माथुर की 'कढ़ी', गौतम सचदेव की 'आओ
कपोतों को दाना चुगाएं', अनिल शर्मा की 'अधर का
पुल', उषा वर्मा की 'भटका हुआ भविष्य', तोषी
अमृता की 'सत्यमेव जयते, भारतेन्दु विमल की 'पर
एकाकीपन वैसा है', स्वर्ण तलवाड़ की 'एक टूटा पत्ता',
चिरंजीव शर्मा 'गुमनाम' की 'रिश्ते' तथा प्रीति गुप्ता
की 'अनजान राहें' आदि कविताएं तथा पद्मेश गुप्त की
'दूरबाग में सोंधी मिट्टी' काव्य संकलन (संपादक
पद्मेश गुप्त) उल्लेखनीय हैं।
अमेरिका की
सुषम बेदी भारतीय साहित्य के पुरोधाओं को
संबोधित करते हुए प्रवासी भारतवंशी लेखन के बारे
में लिखती हैं, "भारत से बाहर लिखे जा रहे हिन्दी
लेखन का जब अपना नया तेवर नज़र आने लगेगा तो
शायद भारत का हिन्दी संसार भी उन्हें मान्यता देने से
नहीं चूक सकता। फिलहाल यह लेखन कर्म अभी उभर ही रहा
है शायद इसीलिए इधर ज्यादा ध्यान देना जरूरी नहीं
समझा जा रहा या फिर हिन्दी में साहित्य के अवलोकन
अवमूल्यन का काम यूं भी ख़ास देखा नहीं जाता और
जो किया जाता है वह किस आधार पर यह भी साफ़ नहीं
होता।" इसी विषय में इंग्लैंड के डा
गौतम सचदेव अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं,
"ब्रिटेन की कहानियों में कला, कौशल और शिल्प
के मंजाव की अपेक्षा संवेदना और ईमादारी अधिक है।
यहां के कहानीकार मनगढंत या कपोलकल्पित कहानियां
नहीं लिखते। न ही मात्र मनोरंजन के लिए लिखते हैं।
वे जीवन संदर्भों और जीवन अनुभवों से
कहानियां उठाते हैं। उनकी कहानियां सामाजिक सरोकार
की कहानियां हैं। जीवन की दैनंदिन समस्याओं और
अनुभवों की कहानियां हैं। उनमें आत्मीयता है। यहां
के कहानीकार भारत की प्रतिष्ठित पत्रपत्रिकाओं में निरंतर
प्रकाशित हो रहे हैं और सराहे जा रहे हैं, जो उनकी
लोकप्रियता और मुख्यधारा के कहानीकार माने जाने का
जीता जागता प्रमाण है।"('पुरवाई' पृ 38
अक्तूबरदिसंबर 2003)
ब्रिटेन
में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य की अपनी अलग संवेदना
है। उसमें भारतीय मन है और साथ ही उसकी अपनी
विशिष्ट प्रवासी सोच है इसलिए उसका अपना अलग तेवर
है। प्रवासी भारतवंशी हिन्दी लेखक लगातार नई ज़मीन
तोड़ रहे हैं। वस्तुतः ब्रिटिशहिन्दी कहानीकार संवेदन
संस्कार के रूप में अपने परिवेश को ग्रहण करते है। वे
उसी में जीते है, सांस लेते है। अतः प्रवासी लेखक
जब अपने घरपरिवार और मिट्टी से अलग हो कर एक अन्य
देशकाल और परिवेश में चला जाता है तो वहां
उसके नए संस्कार बनते हैं, नए दृष्टिकोण बनते हैं।
माहौल बदल जाने से उसकी जिंदगी में बहुत सी
पेचीदगियां आ जाती हैं। उसकी मान्यताएं बदलने लग
जाती है। यहीं उसके मनमस्तिष्क में द्वन्द्व उभरने लगती
हैं और यहीं उसकी संवेदना उसके कलम़
दिलोदिमाग और सोंच पर कब्ज़ा करने लगती है।
ब्रिटिशहिंदी लेखकों की 'कॉम्प्लीकेटेड्र' सोच,
संवेदना, यथार्थपरक दशर्न के साथ संस्कृतियों की
टकराहट और भूमंडलीयकरण का दबाव उनकी कहानियों को
पठनीय और हृदयग्राही बना देती है। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित
लेखक गौतम सचदेव जी आगे फिर पुरवाई में छपे एक
लेख में कहते हैं, 'ये (ब्रिटेन की) कहानियां जीवन
के उन संदर्भों को बड़ी निकटता से प्रस्तुत करती हैं जो
भारत से बाहर के हैं, उन स्थितियों और अनुभवों
को उजागर करती है जो विदेशों में ही देखनेपाने
को मिलतें हैं। इसलिए वे मुख्यधारा के पाठकों को वह
सबकुछ देती हैं, जो उन्हें भारतीय कहानीकारों की
प्रायः परिचित परिवेशवाली कहानियों में बहुत हद तक
उपलब्ध नहीं होता।
यदि हिन्दी
साहित्य को पलट कर देखें तो समयसमय पर
देसीभारतीय लेखक आधुनिक यूरोपीय समाज के
अंतरविरोधों और खूबियों पर निगाह डालते रहे हैं
और लिखते रहे हैं परंतु इधर ब्रिटेन में रहने वाले
उभरते आप्रवासी भारतीय लेखकों ने इसी दिशा में
अपेक्षतया ज्यादा प्रामाणिक और विश्वसनीय कार्य किया
है। साथ ही अपनी मूल भारतीय दृष्टि और पाश्चात्य
समाज के साथ लंबे संसर्ग के फल स्वरूप वे उन
हकीकतों को ज्यादा गहराई से पकड़ पाए हैं, जो
कभीकभार की इक्कादुक्का यात्राओं की पकड़ में नहीं
आतीं।
ब्रिटेन
में दो तरह के लेखक हैं, एक तो वे जो भारत से
प्रतिष्ठत हो कर आए जिनकी लेखन शैली और सोंच भारत
से ही परिपक्व हो कर आई, दूसरे वे जिन्होंने ब्रिटेन
में आकर लिखना आरम्भ किया। दोनों के लेखनशैली,
सोंच और दृष्टि में अंतर है। भारत से आए प्रतिष्ठित
लेखक की सोंच में वह धार, पैनापन और सहज
इमानदारी इंग्लैंण्ड के समाज के प्रति, उसके परिवेश के
प्रति नही हैं जो ब्रिटेन में उपजे लेखक में आई है।
भारत से प्रतिष्ठित हो कर आए लेखक विद्वान हैं पर उनके
कलम से ब्रिटेन में दिनरात बदलते जीवन की धारदार
महीन बारीकियों की खूबसूरती छूट जाती है क्यों कि
उनमें पिछले संस्कारों के दबाव का गहन बोझ
पूर्वाग्रह की तरह पैठा रहता है। अतः वे संस्कृतियों का
सहज समन्वय न कर के ब्रिटेन के नकारात्मक पहलुओं पर
ही दृष्टि डालते हुए अपने पूर्व अनुभव पर नॉस्टैल्जिक
विचारों से प्रभावित लेखन करते हैं। इसमें भी दो
राय नहीं है कि वे लोग अपेक्षाकृत स्तरीय लेखन कर रहे
हैं और उनके लेखन की अपनी पहचान और शैली है।
दूसरे
ब्रिटिश इंडियन लेखक वे हैं जिन्होंने ब्रिटेन में आ
कर लिखना शुरू किया है जो ब्रिटेन में युवा अवस्था
में ही आ गए थे। अतः एक लंबे अर्से से ब्रिटेन में
रहने के कारण वे यहां के परिवेश में सहज ही
घुलमिल गए। ऐसे लेखकों की कहानियां अपने
अल्हड़पन, बेबाकीपन और बांकेपन के कारण भारतीय
शिल्पात्मक चौखटे से भिन्न हैं तो भी सांस्कृतिक आघात,
संस्कृतियों के टकराव और आंतरिक संघर्ष का दोरंगा
जीवन इन कहानियों की अंतः सलिला हैं। इन
कहानियों में शिल्प, रूप और सौष्ठव पर अलग से
सोचा नहीं जाता है, ये कहानियां अपने आप भाव और
शब्दों के सहारे अपना शिल्पात्मक गठन करते हुए आगे
बढ़ती है। इनमें एक तरह का नया अनगढ़ खुरदरा शिल्प
विकसित होता है जो पाठकों से बड़ी जल्दी आत्मीय
संबंध बना लेता है। इन कहानीकारों के लेखन में
ब्रिटेन की भाषाई आंचलिकता है। उनमें व्याकरण और
मानक हिंदी का वह स्वरूप नहीं मिलता है जिसकी आशा
खालिस हिंदी के भारतीय लेखकों से की जाती है। पर फिर
यदि उन्हें ब्रिटिश इंडियन लेखक या प्रवासी भारतवंशी
लेखक माना जाता हैं तो उनको भी पंजाब, गुजरात
और महाराष्ट्र के आंचलिक लेखकों की तरह ही लिया जाना
चाहिए।
|