पिछली
शताब्दी में ब्रिटेन में हिंदी को जो थोड़ा-बहुत प्रचार प्रसार
१९६०-७० में आरंभ हुआ वह ब्रिटेन में भारत से आए माइग्रेशन के
स्वभाव पर आधारित रहा है।
जनवरी
२००३ को 'द संडे टाइम्स
ऑफ़ इंडिया' के पृ.
१६ पर आए डॉ. एम. एल. सिंघवी के एक वक्तव्य
के अनुसार यू.के. में तक़रीबन बारह लाख अप्रवासी नागरिक हैं।
मात्र लंदन में ही लगभग साढ़े सात लाख अप्रवासी एशियन नागरिक
हैं, जिनमें से अधिकांश भारत के विभिन्न प्रांतों के भाषा-भाषी
हैं अन्य दूसरे देशों से आए भारतीय से दिखते ऐसे लोग है जिनके
पूर्वज सदियों पहले किन्हीं कारणों से अन्य देशों को गमन कर गए
थे। अब उनके वंशज वहाँ से माइग्रेट कर के ग्रेट ब्रिटेन के
बाशिंदे (वेस्ट इंडीज़ आइलैंड क़ीनिया, युगांडा, मॉरिशस, फ़िजी
आदि) हो गए हैं और उनके रंग-रूप और शारीरिक बनावट में आज भी
भारतीय छवि है। इनमें से काफ़ी कुछ लोग हिंदी फ़िल्में देखना
पसंद करते हैं। वे हिंदी गाने सुनते हैं और साथ ही गुनगुनाते
और गाते भी है। अतः हिंदी उन्हें थोड़ी-बहुत समझ आती है और वे
हिंदी को अपनी धरोहर भाषा मानते और इन्हीं में से कुछ लोग
हिंदी के गीत चटनी और हिंदी के भजन बनाते और गाते हैं। यह भी
सच है कि इनमें से अधिकांश अपने गीत रोमन में लिखते हैं। हिंदी
का ककहरा इनमें से कुछ को आता है क्यों कि ये अवधी में लिखा
श्री रामचरित मानस बड़ी श्रद्धा से पढ़ते हैं। इनमें से बहुत
से लोग बाकायदा पूजा-पाठ और हिंदू संस्कार आदि कराने के लिए
हिंदी पढ़ते हैं।
वास्तव में हिंदी भाषा और
साहित्य के उद्भव, उन्नयन और प्रचार प्रसार का कार्य ब्रिटेन
में उस समय आरंभ हो चुका था जिस समय हिंदी बोलनेवाले यानी
हिंदुस्तानियों का पदार्पण भी इस देश में नहीं के बराबर हुआ
था।
यों हिंदी के अनेक शब्द व्यापार और युद्ध के माध्यम से एशिया,
अफ्रीका और यूरोप के देशों में सदियों पहले आ चुके थे। ऐसे
हिंदी के शब्दों का प्रयोग अंग्रेज़ रोमन और अन्य यूरोपीय देश
अपनी देसी लिपि में अथवा बोल-चाल में भारत में जनसंपर्क के लिए
करते रहे थे। यद्यपि हिंदी का पुरातन रूप अमीर खुसरो एवं संतों
की साखियों दोहों आदि में खड़ी बोली के रूप में मिलता है।
हिंदी की विविध बोलियों में शब्द संपदा प्रायः समान रही है।
सोलहवीं सदी में व्यापारियों
की तरह भारत आए अँग्रेज़ों ने खड़ी बोली को अपनी सुविधा के लिए
इसलिए चुना क्यों कि वह मुग़ल साम्राज्य की राजधानी के आस-पास
की भाषा थी, साथ ही उसकी निकट पहुँच राज दरबार तक थी। दूसरे
दक्षिण में भी दक्खिनी हिंदी प्रचलित थी जो इससे मेल खाती थी।
तीसरे अँग्रेज़ इसे साहबी अंदाज़ में बोलने में शासकीय गर्व का
अनुभव करते थे। चौथी बात यह कि यह उर्दू के नज़दीक भी पड़ती थी।
जो उस समय मुग़लों के राज-काज सिपाहियों और सेना की भाषा थी।
वास्तव में हिंदी भाषा के
उन्नयन का श्री गणेश ब्रिटेन में प्रिंटिंग प्रेस की क्रांति
के साथ सोलहवीं सदी के आरंभ हुआ।
१५६० में देवनागरी में
प्रिटिंग का कार्य ब्रिटेन में आरंभ हुआ। उस समय भारत में
प्रिंटिंग प्रेस की सुविधा न होने के कारण प्रसिद्ध कपाडिया
स्पिरिचुएल क्रिस्टार नामक ग्रंथ सेंटपॉल कॉलेज प्रेस से
प्रकाशित किया गया। उसके पश्चात नागरी लिपि के टाइप के ढलने का
अधिकांश कार्य भी
१५६७ से ब्रिटेन में ही आरंभ हुआ क्यों कि उस
समय भारत में प्रिटिंग प्रेस की सुविधा नहीं थी। इसी समय भारत
में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव पड़नी आरंभ हो चुकी थी।
१८६५ में ब्रिटिश सरकार ने
लंदन से भारत के लेफ्टीनेंट गवर्नर को आदेश दिया कि भविष्य में
ब्रिटिश शासनाधीन भारत के प्रत्येक क्षेत्र से देशी भाषाओं के
सभी मुद्रित समाचार पत्रों, पुस्तकों और पत्रिकाओं की सूची बना
कर लंदन भेजी जाए ताकि रॉयल एशियाटिक सोसाइटी-लंदन, ब्रिटेन
में उसका उपयोग कर सके। कहने का तात्पर्य यह है कि
१८६५ में भी
ब्रिटेन में हिंदी यानी देवनागरी पढ़ने वाले मौजूद थे भले ही
वे किसी भी समुदाय के रहे हों।
प्रसिद्ध शब्द संयोजक मिस्टर
पिंकाट के बारे में आप सबने सुना ही होगा वे कभी भारत नहीं गए
थे। वे ब्रिटेन में ही रहते थे और
१८३६-१८९६ तक एक साधारण
छापेख़ाने में कंपोज़र का काम करते हुए कंपोज़िंग और प्रूफ़
रीडिंग करते-करते वे भारतीय भाषाओं में रुचि लेने लगे। बाद में
वे प्रसिद्ध एलन कंपनी के मुद्रणालय में मैनेजर हो गए। उनके ही
प्रयास से उन दिनों हिंदी से संबंधित अनेक लेख ब्रिटेन के
अख़बारों में छपे। यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि पिंकाट जी
की हिंदी की पुस्तकें अपने समय में ब्रिटिश सिविल सर्विस के
पाठयक्रम में सम्मिलित थीं। पिंकाट जी के द्वारा की गई श्रेष्ठ
हिंदी पुस्तकों की आलोचनाएँ ब्रिटिश अख़बारों में उन दिनों छपा
करती थीं। बनारस के बहुत से हिंदी साहित्य शास्त्री पिंकाट जी
के मित्र थे जिनसे उनके विचार-विमर्श पत्रों द्वारा चलते रहते
थे। आगे चलकर पिंकाट जी हिंदी भाषा साहित्य के विषय में
ब्रिटिश सरकार की दृष्टि में एक प्रामाणिक विद्वान के रूप में
प्रतिष्ठित हुए। पिंकाट जी ने उस सदी में व्यापार जगत के लिए
इंग्लैंड से हिंदी और उर्दू में ऐसी कई पत्रिकाएँ निकाली जिसका
वितरण भारत में किया जाता था। इस तरह पिंकाट जी जब तक जीवित
रहे हिंदी को इंग्लैंड में भाषा और साहित्य के रूप में
संवर्धित करने का महत्वपूर्ण कार्य करते रहे।
इसी तरह डॉ. एल.एफ़. रूनाल्ड
हर्नली जिनका जन्म तो भारत में हुआ था किंतु उनकी
शिक्षा-दीक्षा इंग्लैंड में हुई थी। रूनाल्ड जी ने संस्कृत का
अध्ययन लंदन विश्वविद्यालय में किया। काशी में आपने अपने हिंदी
और संस्कृत के ज्ञान को परिमार्जित किया। फिर उन्होंने उस समय
अपने अध्ययन काल में वैज्ञानिक एवं तर्क पूर्ण ढंग से यह सिद्ध
कर दिया कि संस्कृत अनार्य भाषाओं से नहीं बल्कि प्राकृत से
उपजी हुई भाषा है जिसे विश्व भर के विद्वानों ने स्वीकार किया।
१८७३-१८७७ तक उन्होंने भारतीय भाषाओं का गहन अध्ययन कर उसके
व्याकरण को समझा और फिर हिंदी के व्याकरण को परिमार्जित कर एक
पुस्तक लिख कर उसका प्रकाशन लंदन से कराया। इस तरह से उन्होंने
हिंदी एवं संस्कृत के महान भाषाविद एवं महापंडित की ख्याति
अर्जित की।
१८७५ में रूनाल्ड जी ने डॉ. ग्रियर्सन के साथ
बिहारी भाषा का शब्द कोश आरंभ किया परंतु वह किन्हीं कारणवश
पूरा नहीं हो सका।
१८९६ में रूनाल्ड जी ने पृथ्वीराज रासो के
कुछ अंशों के साथ-साथ बाबर पोथी को भी संपादित किया।
आयरलैंड के डॉ.गियर्सन ने भी
भारत आकर संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया। अपने
अध्ययनकाल में ही उन्होंने अनुभव किया कि ग्रेट-ब्रिटेन में
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने का कोई ऐसा प्रबंध नहीं
है जिसके अध्ययन से भारत की उन्नत एवं सारगर्भित संस्कृति को
गहराई से पढ़-समझकर उसका आकलन किया जा सके। उनका विचार था कि
भारतवासियों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करने के लिए उनकी
भाषा और संस्कृति को जानना और समझना अतिआवश्यक है।
श्री गिर्यसन ने नागरी
प्रचारिणी सभा के हिंदी शब्दसागर के प्रकाशन के लिए लंदन से
आर्थिक सहायता भेजी। उन्होंने भारत की कचहरियों में देवनागरी
के प्रवेश के आंदोलन का सशक्त समर्थन किया। गियर्सन जी की
सेवाएँ हिंदी भाषा एवं साहित्य के लिए जहाँ भारत में दिशा
निर्देश थीं वही विश्व के मंच पर हिंदी को स्थापित करने में
उनका योगदान ऐतिहासिक महत्व का है। केंद्रीय हिंदी संस्थान-
आगरा ने गियर्सन पुरस्कार की स्थापना कर गियर्सन जी को उनकी
हिंदी सेवा के लिए जो विशेष सम्मान से नवाज़ा है वह वस्तुतः
गर्व की बात है। गियर्सन जी की तरह ही सर एडविन ग्रीव्स थे जो
अँग्रेज़ों के धर्म-जगत में हिंदी के सशक्त प्रवक्ता थे। वे
तुलसीदास और मध्यकालीन हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ थे साथ ही
हिंदी के पक्षधर भी थे।
इन्हीं दिनों फर्ग्युसन जी ने
हिंदुस्तानी-अँग्रेज़ी शब्दकोश तथा अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश
संपादित कर रोमन लिपि में लंदन से प्रकाशित कराया। सन
१८७० में
गिलक्राइस्ट जी का शब्दकोश एडिनबरा से प्रकाशित हुआ। इसी तरह
श्री एम.डब्ल्यू. फेलन ने वाणिज्य और अर्थशास्त्र के पारिभाषिक
शब्दकोशों की रचना की। हिंदी के व्याकरण और शब्दकोश को पुस्तक
का आकार देने में ब्रिटेन के विद्वानों और भाषा-शास्त्रियों का
महत्वपूर्ण योगदान है।
स्वतंत्रता से पूर्व ब्रिटेन
में रहते हुए मुल्कराज आनंद, सद्दाक ज़हीर और उनके साथियो ने
प्रेमचंद को प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना का विचार दिया था।
यह वह समय था जब फ्रेंच रेवोल्यूशन हो चुका था और हिंदी कई और
दबावों के बीच अच्छी तरह अपने ही देश में स्थापित होने का
प्रयास कर रही थी।
इसी तरह संस्कृत एवं हिंदी के
विद्वान श्री स्टुअर्ट मग्रेगर का हिंदी साहित्य के उन्नयन में
महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वे पहले लंदन के स्वास और फिर
केंब्रिज विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक रहे हैं। इस
समय वे सेवा निवृत हैं। उनका लिखा गया आउट लाइन ऑफ़ हिंदी
ग्रामर विद एक्सरसाइजेज़ एक प्रामाणिक ग्रंथ है जो शोध और
संदर्भ आदि के लिए प्रयोग में लाया जाता है। श्री मैग्रेगर जी
ने क्लासिकल हिंदी साहित्य और आधुनिक हिंदी साहित्य का
प्रामाणिक इतिहास लिखा, साथ ही आपकी लिखी थीसिस इंद्रजीत आफ़
ओरछा हिंदी साहित्य की बहुमूल्य संपदा है।
१९६० से पहले ब्रिटेन में
इक्का-दुक्का धनाढय छात्र ही भारत से ब्रिटेन में वकालत,
अँग्रेज़ी साहित्य अथवा मेडिकल साइंस जैसे विषय पढ़ने आया करते
थे, पर इनका ध्यान हिंदी के प्रचार प्रसार की ओर नहीं गया।
साठवीं के दशक में एक बार फिर जार्ज हैरिसन, रिंगो स्टार, पॉल
मेकाथी- हरे रामा हरे कृष्णा तथा अन्य वैदिक संस्थाओं ने हिंदी
के उन्नयन में जाने-अनजाने बड़ी सहायता की। इन भारतीय
संगीत-प्रेमियों के प्रभाव से ब्रिटेन में रहने वाले विभिन्न
समुदाय के लोग काफ़ी संख्या में भारतीय संगीत और संस्कृति को
जानने और सीखने के लिए भारतीय विद्या-भवन, मंदिरों,
विश्वविद्यालय आदि संस्थाओं में जाने लगे। कुछ लोग तो हिंदी
सीखने के लिए दिल्ली, बनारस और इलाहाबाद भी गए।
वस्तुतः
६० वीं के दशक के
अंतिम चरण में पहला मेहनतकश अप्रवासी भारतीय समुदाय यानी पंजाब
का सिख ब्रिटेन पहुँचा जिनकी प्रादेशिक भाषा पंजाबी थी। ये
प्रवासी अपनी रोज़ी-रोटी की व्यवस्था में अत्यंत व्यस्त रहे,
फिर भी उस दशक में विभिन्न समुदायों के लोगों ने मिल कर अपनी
सभ्यता और संस्कृति को संजोए रखने के लिए मानस चतुष्पदी समारोह
समिति का गठन किया। इसके कार्यकारिणी सदस्य थे श्री निरूपमदेव
शास्त्री, जगदीश कौशल, राम जी, श्यामनोहर पांडे, क़ृष्ण कुमार
खरे, पुरुषोत्तम भारद्वाज, हरि जोशी आदि। इन्हीं
हिंदी-प्रेमियों ने
१९६९ में बच्चों के लिए हिंदी शिक्षा का भी
प्रबंध किया जो मंदिरों और घरों में सप्ताहांत पर दी जाती थी।
ऐसे में ही कवि गोष्ठियाँ और साहित्यिक चर्चा भी सीमित ढंग से
हो जाती थी।
८ अगस्त
१९७० में साउथ हॉल
में जगदीश कौशल और उनके साथियों द्वारा एक विशाल हिंदी सम्मेलन
आयोजित किया गया जिसमें उस समय के भारतीय उच्चायुक्त श्री आपा.
बी. पंत मुख्य अतिथि थे। इस समारोह को एक घटना के रूप में उन
दिनों मुख्य धारा के टेलिविजन कार्यक्रम नया जीवन, नई ज़िंदगी
पर कई बार प्रसारित किया गया। यह वह समय था जब एक बार फिर
हिंदी-भाषा प्रेमियों की छोटी-छोटी संस्थाएँ बनने लगीं। कुछ एक
संस्थाओं का आपस में थोड़ा बहुत जुड़ाव भी था किंतु अधिकांश
संस्थाएँ दूरियों के कारण एक दूसरे से संबद्ध नहीं हो सकीं।
उस समय लंदन के स्वास,
कैंब्रिज और ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षण और
शोध का कार्य हो रहा था लेकिन मुख्य धारा के स्कूलों में हिंदी
का प्रवेश कभी भी नहीं रहा। विश्वविद्यालयों में आज भी हिंदी
में विशेष रुचि रखने वाले अधिकांशतः वयस्क छात्र ही हिंदी
पढ़ने जाते हैं। उनकी हिंदी की शुरुआत वर्णमाला से ही होती है
क्यों कि ब्रिटेन के स्कूलों में हिंदी पढ़ने-पढ़ाने की कोई
व्यवस्था नहीं है। हिंदी का मूलभूत ढाँचा न होने के बावजूद
लंदन विश्वविद्यालय में सदा की तरह इस समय भी पंद्रह-बीस छात्र
हिंदी में बी.ए. ऑनर्स अथवा मध्ययुगीन साहित्य, सूर, तुलसी और
कबीर आदि पर शोधकार्य कर रहे थे और ऐसा ही आज भी हो रहा है।
साठ और सत्तर के दशक में श्री
वेटमैन लंदन विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे।
स्वर्गीय रामदास गुप्ता जी उनके सहयोगी हुआ करते थे। श्री
वेटमैन छात्रों को आधुनिक हिंदी व्याकरण और मध्ययुगीन साहित्य
पढ़ाते थे। उन्होंने मंझन कृत मधुमालती का अनुवाद किया जिसमें
उनके सहयोगी लेखक थे आदित्य बहल और डॉ. श्याममनोहर पांडे। आजकल
डॉ. पांडे इटली के नेपल्स विश्वविद्यालय में हिंदी के
प्राचार्य हैं। डॉ. पांडे ने सूफी काव्य विमर्श और मध्ययुगीन
प्रेमाख्यान पर शोधग्रंथ लिखे हैं। यही वह समय था जब लंदन
विश्वविद्यालय में हिंदी सभा की नींव रखी गई थी। हिंदी सभा के
जन्म ने यू.के. के हिंदी साहित्य प्रेमी बौद्धिक वर्ग को आपस
में जोड़ा।
वर्तमान में डॉ. स्नेल लंदन
विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राचार्य हैं। एक लंबे अर्से तक
डॉ. कल्सी डॉ. स्नेल के सहयोगी रहे हैं। परंतु आजकल उनके साथ
काम कर रही हैं डॉ. लूसी रोज़ेंटाइन। डॉ. स्नेल ने ब्रज भाषा के
काव्य पर महत्वपूर्ण काम किया है। वह स्वयं कवि हैं। ब्रज भाषा
में उन्होंने सुंदर दोहे लिखे हैं। वह अच्छी हिंदी बोलते हैं।
उन्होंने डॉ. हरिवंशराय बच्चन के आत्मकथा का अंग्रेज़ी में
संक्षिप्त अनुवाद किया है। डॉ. स्नेल ने विदेशी छात्रों के लिए
हिंदी शिक्षण पर कई पुस्तकें ऑडियो टेप के साथ लिखी हैं। उनकी
लिखी टीच योरसेल्फ हिंदी और बिगिनर्स हिंदी स्क्रिप्ट विदेशी
छात्रों के बीच हिंदी सीखने में काफ़ी लोकप्रिय है। ये
पुस्तकें अपनी रोचकता और उपयोगिता के कारण विभिन्न देशों के
स्कूलों और विश्वविद्यालयों में हिंदी शिक्षा हेतु शिक्षकों
द्वारा शिक्षण कार्यक्रमों में प्रयोग में लाई जा रही हैं। डॉ.
रूपर्ट स्नेल ने हित चौरासी पर शोध कार्य किया है। कैंब्रिज
विश्वविद्यालय में आजकल फ्रेंचेस्का आसेनी काम कर रहीं हैं
जहाँ पहले डॉ. सत्येंद्र श्रीवास्तव काम कर रहे थे। डॉ.
सत्येंद्र श्रीवास्तव हिंदी और इंग्लिश, दोनों में लिखते हैं।
आपने हिंदी की बहुत सेवा की है। आपकी 'कुछ कहता है यह समय' और
'टेम्स में बहती गंगा की धार' अपने समय का ऐतिहासिक दस्तावेज़
है। ऑक्सफ़ोर्ड में इमरेबंगा जी प्राध्यापक रहे हैं उन्होने
विश्वभारती विश्वविद्यालय से घनानंद के साहित्य पर शोध करने के
साथ-साथ सूरदास, बिहारी तथा चौरासी वैष्णव वार्ता का अध्ययन
किया है।
७० वीं दशक के आरंभ और मध्य
में अल्प संख्या और मद्धिम गति से हिंदी जानने और बोलने वाले
प्रोफ़ेशनलों का आना ब्रिटेन में आरंभ हुआ जो विभिन्न व्यवसाय
से जुड़े हुए थे। ये हिंदी जानने और बोलने वाले अंग्रेज़ी भाषा
में भी पूरी तरह से दखल रखते थे। ये अप्रवासी विभिन्न
व्यवसायों से संबंध रखते थे अतः इनकी रेहाईश किसी एक शहर या
बस्ती में नहीं थी। ये अप्रवासी भारतीय ब्रिटेन के विभिन्न
शहरों में रहते थे और इनका आपस में कोई नाता-रिश्ता या
जान-पहचान पहले से नहीं रहा था। ब्रिटेन आने का उनका एकमात्र
लक्ष्य था व्यवसाय को बढ़ाते हुए धन अर्जित करना और अपना
व्यक्तिगत विकास करना। लेकिन अपनी संस्कृति को बचाए रखने के
लिए सजग अप्रवासी भारतीय
१९६९ से ही रामायण और गीता के पाठ
द्वारा आपस में जुड़ने लगें। इस जुड़ाव में मातृ-भाषा के प्रति
प्रेम और उत्साह परिलक्षित था।
यह सत्य है कि अप्रवासी
भारतीय जहाँ भी रहें अपनी अस्मिता अपनी भाषा और संस्कृति की
चिंता सदा साथ लिए रहे हैं। डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी जी ने
अपने एक वक्तव्य में कहा है, मैं भाषा को संस्कृति की मंजूषा
मानता हूँ बल्कि वह संस्कृति की मंजूषा ही नहीं उसका वाहन भी
है। यों देखा जाए तो विदेशों में बसा भारतीय नए संदर्भों से
जुड़ता अवश्य है परंतु अपने मूल से कटता नहीं है। वह अपने
संस्कार और अपनी मिट्टी की गंध को सदा अपने सीने से लगाए रखता
है। गगनांचल के अक्तूबर-दिसंबर
२००२ के प्रवासी अंक में पृ.
१२-१३ डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी अपने लंदन प्रवास में
प्रवासियों की मनःस्थिति का विवरण देते हुए लिखा हैं, जो लोग
अपनी धरती पर नहीं लौट पाते हैं वे जहाँ रहते है वहाँ अपनी
धरती का टुकड़ा अपने लिए रच लेते हैं। आदमी सब चीज़ों के अनुकूल
अपने को बना लेता है, लेकिन उसका अपना कुछ जातीय स्वाद होता
है। आदमी भले ही अपने को विदेशी चाल-ढाल में ढालने की कोशिश
करे, ढाल भी ले, पर वह कहीं-न-कहीं स्वदेश के लिए तड़पता ही
रहता है। यही तड़पन उसे कभी देश वापस लाती है तो कभी मित्रों
के बीच संवाद कराती है तो कभी लेखन और अन्य सांस्कृतिक कार्यों
में उभरती है।
वक्तव्य के पूवार्ध में मैंने
चर्चा की है कि ब्रिटेन और यूरोप में हिंदी का प्रचार-प्रसार
और उससे जुड़े छिटपुट कार्यक्रम स्वतंत्रता से पहले और बाद में
भी किसी-न-किसी रूप में होते रहे हैं। वस्तुतः हिंदी और
संस्कृत साहित्य का प्रथम मूल्यांकन हिंदी प्रेमी विदेशी
साहित्यकारों ने ही किया है। ग्राम्य गीतों का संकलन, भागवत
गीता, कालीदास के शाकुंतलम, ग़ालिब की शायरी, प्रेमचंद और
बांगला के तमाम साहित्य का अंग्रेज़ी अनुवाद मुख्यतः इंग्लैंड
के विद्वानों ने ही किया। ब्रिटेन से प्रसारित होने वाले
बी.बी.सी. हिंदी सेवा का उत्कृष्ट रेडियो कार्यक्रम तो हिंदी
के प्रति अपने योगदान के कारण विश्व प्रसिद्ध है ही।
वस्तुतः अन्य भारतीय भाषाओं
और हिंदी में बी.बी.सी. हिंदी सेवा- लंदन का प्रसारण द्वितीय
महायुद्ध
१९४० के दौरान मोर्चे पर लड़ रहे हिंदुस्तानी
सिपाहियों की भाषाई आवश्यकताओं को मद्दे नज़र रखते हुए किया गया
था। उस समय बी.बी.सी. हिंदी सेवा-लंदन के प्रसारण से मिस्टर
आर्वेल के साथ सुप्रसिद्ध अभिनेता बलराज साहनी, उनकी पत्नी
संतोष साहनी, कपूरथला की राजकुमारी इंदिरा, इकबाल बहादुर सरीन
और मुल्कराज आनंद आदि जुड़े हुए थे। बी.बी.सी. लंदन से
प्रसारित होने वाले फौजी भाइयों के लिए प्रसारित आधे घंटे के
उस हिंदुस्तानी कार्यक्रम की शुरुआत इकबाल की पंक्ति सारे जहाँ
से अच्छा हिंदोस्ताँ हमारा से हुआ करती थी जिसमें सभी प्रसारक
स्वर मिलाते थे। श्रोताओं के पत्र पढ़े जाते थे और फ़रमाइशी
गानों के रिकार्ड बजते थे। उन दिनों ब्रिटेन में आज की तरह
हिंदी सिनेमाघर नहीं होते थे पर हिंदुस्तानी खाना वीरा स्वामी
रेस्ट्राँ में मिल जाया करता था जिसमें चिकन टिक्का और
बिरियानी खाने वाले अधिकांशतः अंग्रेज़ ही होते थे। इस तरह
हिंदी का विस्तार बी.बी.सी. प्रसारण के अंतर्गत नाटकों के
रेडियो रूपांतर, लंदन या आसपास होने वाले सांस्कृतिक और कला
महोत्सव, क्रिकेट टेस्ट मैच, पुस्तक समीक्षा आदि के साथ भारत
से आए राजनीतिक, साहित्यिक और फ़िल्मी मेहमानों के साक्षात्कार
आदि के द्वारा होता रहा। यह कहना अनुचित न होगा कि ब्रिटेन में
हिंदी के प्रचार प्रसार और उन्नयन का कार्य दशकों पहले
बी.बी.सी. रेडियो के प्रसारण द्वारा भी हुआ।
छठवें, सातवें और आठवें दशक
में जिसकी मैं स्वयं साक्षी हूँ बी.बी.सी. हिंदी वर्ल्ड सेवा
निदेशक श्री कैलाश बुधवार, स्वर्गीय डॉ. ओंकारनाथ श्रीवास्तव,
डॉ. गौतम सचदेव, नरेश भारती, ज्ञान कौशिक आदि जैसे प्रख्यात
लेखक बी.बी.सी. में हिंदी सेवा करते हुए ब्रिटेन में बस गए और
छिटपुट लेखन के साथ भारतीय यायावर और अतिथि साहित्यकारों के
साथ गोष्ठियाँ आदि भी रेडियो प्रसारण के द्वारा करते रहे। आज
भी बी.बी.सी. हिंदी वर्ल्ड सर्विस साहित्यकार अचला शर्मा के
कुशल निर्देशन में हिंदी में समाचार और अन्य विभिन्न प्रकार के
साहित्यिक कार्यक्रम देते हुए हिंदी का उन्नयन कर रही है।
बी.बी.सी. हिंदी सेवा-लंदन हिंदी में विश्वस्त समाचार देने के
साथ-साथ भारत से आए अतिथियों का रेडियो प्रसारण द्वारा स्वागत
करते हुए नाटक, कवि सम्मेलन आदि जैसे साहित्यिक एवं सांस्कृतिक
कार्यक्रमों को प्रसारित करती रहती है। हालाँकि बी.बी.सी.
हिंदी प्रसारण सेवा ब्रिटेन में प्रसारित न होने के कारण
स्थानीय श्रोता इसका प्रत्यक्ष लाभ नहीं उठा पाते हैं।
१९६५-६६ मे बी.बी.सी. रेडियो
में काम करते हुए भारतीय अप्रवासी लेखक डॉ. नरेश भारती ने
श्री. आनंद कुमरिया के साथ प्रथम हिंदी की त्रैमासिक पत्रिका 'चेतक'
नाम से प्रकाशित कर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक नया
प्रयोग किया। यह पत्रिका तीन-चार वर्ष तक सफलतापूर्वक चली
किंतु समय और अर्थाभाव के कारण धीरे-धीरे बंद हो गई। उन्हीं
दिनों प्रवासिनी पत्रिका के भी कुछ अंक प्रकाशित हुए। परंतु
बाद में वह भी बंद हो गई।
१९७१ में श्री जगदीश कौशल जी ने
अमरदीप पत्रिका निकाली। हर्ष की बात यह है कि यह पत्रिका पिछले
४० सालों से निरंतर निकल रही है और ब्रिटेन में उसके असंख्य
पाठक हैं। जगदीश कौशल जी ने प्रवासी भारतीय सुश्री विजया नायर
का प्रवासी भारतीयों के दर्द को उभारता उपन्यास 'रिश्तों का
बंधन' अमरदीप न्यूज़ लेटर में किश्तों में प्रकाशित किया। खेद
की बात यह है कि अब इस उपन्यास का कहीं कोई अता-पता नहीं है।
यह किसी को नहीं मालूम है कि यह उपन्यास कभी पुस्तक रूप में छप
सका या नहीं। उन्हीं दिनों ब्रिटेन के प्रवासी भारतीयों के
मानसिक एवं सामाजिक स्थितियों और संघर्षों को चित्रित करती हुई
महेंद्र भल्ला की कई पुस्तकें प्रकाशित हुईं।
सत्रहवें दशक में ब्रिटेन मे
बी.बी.सी. से जुड़े हिंदी के कई लेखक और साहित्यकार लंदन में
बसे किंतु उन्होंने लेखन के क्षेत्र में कुछ विशेष ठोस कार्य
किया या नहीं इसका लेखा-जोखा नहीं मिलता है।
हिंदी साहित्य के प्रकाशन की ब्रिटेन में कभी कोई व्यवस्था
नहीं रही है। बी.बी.सी. के लेखकों और कवियों को छोड़ कर अन्य
छिटपुट लिखने वाले लेखकों और कवियों का आपसी जुड़ाव बिल्कुल
नहीं था। अधिकांशतः लेखकों और कवियों की रचनाएँ डायरी के
पन्नों में ही बंद रह जाती। फिर भी कभी-कभी बात-चीत के दौरान
पता चलता है कि कुछ लेखक और कवि भारत के पत्र-पत्रिकाओं में
समय-समय पर छप रहे थे जैसे- लंदन के सोहन राही, कॉवेन्ट्री के
प्राण शर्मा, कैंब्रिज के सत्येंद्र श्रीवास्तव, डॉ. श्याम
मनोहर पांडे, किशोर वर्मा, सुरेंद्र नाथ लाल, धर्मेंद्र गौतम,
धर्म पाल शर्मा, तोषी अमृता, उषा सिंह (राजे) आदि। उस समय
हिंदी के किताबों की सिर्फ़ एक दुकान होती थी, वह थी विद्यार्थी
जी की, जो पुराने ब्रिटिश म्यूज़ियम के सामने हुआ करती थी।
आजकल स्टार पब्लिकेशन की खूब बड़ी और भव्य दुकान है। अमरनाथ
वर्मा जी पुस्तकें लेखकों के सहयोग से आसानी से छाप देते हैं।
अतः अब आपको कई ऐसे लेखक इंग्लैंड में मिल जाएँगे जिनकी
पुस्तकें छप चुकी हैं। ब्रिटेन की एथनिक लाइब्रेरी में हिंदी
की पुस्तकें, ऑडियो और विडियो टेप, सीडी, अख़बार आदि सब मिल
जाते हैं। वस्तुतः अब दृश्य बदल चुका है। हिंदी खुले में आ
चुकी है। अब तो प्रति दिन हिंदी का कोई-न-कोई कार्यक्रम
ब्रिटेन में होता रहता हैं।
१९६५-१९८२ तक रेडियो लंडन,
एल.बी.सी. और रेडियो केंट जैसे रेडियो प्रसारण से सलीम शाहिद
तथा महेंद्र कौल जैसे प्रसारकों ने बोलचाल वाली हिंदी तथा
हिंदी गानों का खूब विस्तार किया। ऐसे ही एक बार बातचीत के
दौरान टी.वी. प्रेज़ेंटर रजनी कौल ने मुझे बताया कि उन्होंने
स्कॉटलैंड की एक स्कॉटिश बच्ची को 'बॉबी' फ़िल्म का गाना 'और
चाबी खो जाए' गाते हुए सुना तो वह उससे पूछे बग़ैर न रह सकीं
कि यह गाना उसने कहाँ से सीखा, तो उसने बताया, रेडियो से।
बी.बी.सी. का रेडियो कार्यक्रम 'अपना ही घर समझिए'
२२ सालों तक
चला। इस कार्यक्रम के श्रोता केवल हिंदुस्तानी ही नहीं थे।
मुख्यधारा के कमर्शियलस में नयापन लाने के लिए व्यापारिक
संस्थाएँ हिंदी शब्दों के साथ सितार की धुने, तथा तबले की संगत
का प्रयोग लगी थी।
१९७० में तो रेडियो के हिंदी कार्यक्रमों की
जैसे बाढ़-सी आ गई। अस्सी के दशक में साउथ लंदन की रेडियो
स्टार वंदना सक्सेना की आवाज़ को आज भी लोग याद करते हैं।
१९७०
से ८० के दशक में ढेरों हिंदी-उर्दू बोलचाल में पायरेट रेडियो
स्टेशन मशरूम की तरह उगने शुरू हो गए। एक घंटे से लेकर अट्ठारह
घंटों तक हिंदी गानों और फ़ोन इन रेडियो कार्यक्रम प्रसारित
होने लगे थे। साउथहॉल से प्रसारित सनराइज़ रेडियो जो अब लंदन की
पहचान बन गया है उस समय पायरट रेडियो के ही तरह प्रसारित होता
था। आज सनराइज़ रेडियो के हिंदी प्रसारक हिंदी बोलने और सीखने
वालों के आदर्श रोल मॉडल और चहेते कलाकार हैं। रवि शर्मा, राम
भट्ट, निखिल कौशिक और संजय शर्मा की आवाज़ें हिंदी लोगों के
लिए अनुकरणीय हो उठी है।
इसी तरह रेडियो लेस्टर,
रेडियो कॉमेंट्री, बर्मिंघम, मैनचेस्टर आदि से प्रसारित होने
वाले हिंदी कार्यक्रमों ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए
महत्वपूर्ण कार्य किए।
७० वें दशक में लंदन से एल.बी.सी.
रेडियो पर चमन लाल चमन, आसिफ़ गंजालिब और सरिता सब्बरवाल द्वारा
प्रसारित किए गए हिंदी गानों के कार्यक्रमों ने हिंदी को
ब्रिटेन में जनप्रिय बनाया। लंदन के रेडियो पर शैनी बर्नी के
पत्रों का पठन-पाठन, प्रश्न-उत्तर, साउथ लंदन की पाइरेट रेडियो
क्रिस्टल, इंडिपेंडेंट रेडियो आदि ने कुछ ऐसे कार्यक्रम दिए कि
हिंदी घरों में ही नहीं, बाहर और खुले वातावरण में भी
प्रतिष्ठित हो चली।
उन्हीं दिनों रविवार को
ब्रिटेन की मुख्य धारा टेलिविजन बी.बी.सी. ने अपना ही घर समझिए
नामक हिंदी के प्रसारण से हिंदी को विभिन्न समुदाय में
लोकप्रिय बनाया। इनसे जुड़े महेंद्र कौल, स्वर्गीय अशोक रामपाल
और कृष्ण गोल्ड को सुनने और देखने के लिए लोग सुबह जल्दी ही
उठकर चाय और नाश्ता ख़त्म करके अधीरता से टी.वी. कार्यक्रम नई
ज़िंदगी, नया जीवन और घर-बार की प्रतीक्षा करते। ये कार्यक्रम
किसी उत्सव से कम नहीं होते। टेलिविजन पर हिंदी भाषा के
कार्यक्रमों के प्रसारण से हिंदी के प्रति लोगों में और अधिक
सजगता और सक्रियता आई। हिंदी कमरों और घरों से उठ कर बाहर सड़क
और बाज़ार में आई। स्नेह गुप्ता का प्रसारण हिंदी उर्दू बोल-चाल
के कैसेट बायलिंगुएल टीचर्स के ट्रेनिंग के लिए मुख्य धारा के
स्कूलों में इस्तेमाल किए गए, यानी हिंदी को सरेआम पहचान मिली।
इसी बीच लुक लिसन एंड स्पीक
की डिस्क बनाई गई जिसे स्कूलों ने हिंदी सिखाने के लिए प्रयोग
किया गया। भारत से आए अतिथि नेता, अभिनेता गायक आदि टी.वी. पर
साक्षात्कार करते हुए दिखाए जाते। बी.बी.सी. पर दिखाया गया
'वाह रे! भोला' नामक रजनी कौल का नाटक लोग आज भी याद करते हैं।
यह वह समय था जब आम अंग्रेज़ों को समझ आई कि हिंदी एक समृद्ध
भाषा है। और फिर प्रवासियों को पहचान और स्थान देने के लिए
बुलक और स्वान रिपोर्ट आई। फिर उन्हीं दिनों इंडिपेंडेंट
टेलिविजन ने कई बार मुख्य-धारा के चैनल
४ पर नसरीन मुन्नी कबीर
द्वारा निर्देशित मूवी महल के अंतर्गत हिंदी फ़िल्मों का
पंद्रह दिवसीय फ़िल्म महोत्सव मना कर हिंदी को जन-जन तक
पहुँचाया। ये फ़िल्में यद्यपि आधी रात को दिखाई जाती थीं, परंतु
लोग फिर भी बड़ी तन्मयता से उन्हें देखते या फिर रिकार्ड कर के
दूसरे दिन देखते।
१९९२-१९९३ में ब्रिटेन के इंडिपेंडेंट
टेलिविजन ने गीत-गज़ल प्रतियोगिता की, लंदन के प्रतिष्ठित
गीतकार श्री सोहन राही जी की रचना 'बिन गुनाह के गुज़र नहीं
होता' पुरस्कृत हुई। यह कार्यक्रम अर्से तक प्रसारित किया गया
जिससे लोगों के अंदर अपनी भाषा और संस्कृत के प्रति अमिट प्यार
जागा।
इन्हीं दिनों सितारवादक
रविशंकर और तबला वादक अल्लारखा खान अँग्रेज़ों के बीच इतने
जनप्रिय हुए कि भारत के तमाम परकशन वाले वाद्य इंग्लैंड के
आर्केस्ट्रा में शामिल हो गए। स्थानीय लोगों ने भारतीय संगीत
के माध्यम से न केवल हिंदी गीत-गाने सीखे अपितु हिंदी अभिनय और
नाटक की ओर भी झुके। कुछ गोरे लोगों ने तो डान्स स्कूल में जा
कर भारतीय शास्त्रीय संगीत व नृत्य सीखने के साथ हिंदी पढ़ना
लिखना भी सीखा। संगीत के आदान-प्रदान के अतिरिक्त यहाँ पर
अतिथि की तरह से आने वाले धर्म प्रचारकों ने भी अपने
व्याख्यानों और भजनों द्वारा हिंदी का कम प्रचार नहीं किया। इस
तरह के कार्यक्रमों ने हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार कर उस टैबू
को तोड़ा जो आंग्ल देश में आने से हिंदी भाषियों के मन में
जम-सी गई थी। मेरे अपने कई अँग्रेज़ साथियों को इन कार्यक्रमों
से हिंदी सीखने और भारतीय सभ्यता को जानने की प्रेरणा मिली।
मुख्य धारा के स्कूलों और स्थानीय त्योहारों, बाज़ार और मेला
आदि के समय भारतीय भोजन, नाटक, गीत-संगीत और नृत्य नाटिकाएँ
आदि प्रदर्शित होने लगीं जिसे विभिन्न समुदायों के अतिरिक्त
मुख्य धारा के लोग भी बड़ी संख्या में देखने के लिए आते।
अक्सर मुख्य धारा के टेलिविजन
पर प्रसारित हिंदी और हिंदुस्तान से संबंधित कार्यक्रमों को
टेप कर के स्कूलों में बच्चों और शिक्षकों को बहुसांस्कृतिक और
बहुभाषीय ब्रिटेन से परिचित कराने के लिए दिखाया जाने लगा।
ब्रिटिश टेलिविजन पर कई महत्वपूर्ण हिंदुस्तानी सीरियल और
फ़िल्में समारोह की तरह अक्सर दिखाई जाती हैं। रामायण,
महाभारत, टीपू सुल्तान, हमलोग जैसे नाटक और सीरियल्स मुख्यधारा
के टेलीविजन पर दिखाए गए। इसी तरह मुख्य धारा के टेलिविजन पर
हर तरह के सांस्कृतिक हलचल यानी बैसाखी, दिवाली, होली आदि
त्योहारों के साथ हरे-रामा हरे-कृष्णा के अनुयाइयों की रथ
यात्रा, रामलीला, रासलीला, गरबा के साथ भँगड़ा, सदाव्रत भोजन
आदि भी कवर किए जाते हैं। आज हिंदी भाषा और संस्कृति से
आकर्षित होकर कई बड़े-बड़े डिपार्टमेंटल स्टोरस, लाइब्रेरीज़,
ऑफ़िसों, स्कूल, इंडिया फेस्टिवल आदि जैसे कार्यक्रम त्योहारों
की तरह आयोजित करते हैं।
हिंदी के प्रचार-प्रसार में
हिंदी सिनेमा का योगदान सबसे अधिक है। फ़िल्म 'शोले' और 'दीवार'
के वाक्य कई विज्ञापनों में प्रयोग किए गए। हिंदी फ़िल्मों का
तो ब्रिटेन में एक फ़ैशन-सा चल पड़ा है। भारत से तो फ़िल्में
इंपोर्ट की ही गई पर ब्रिटेन में भी हिंदी फ़िल्में बनी और
दिखाई गई। यद्यपि अधिकांश फ़िल्में सब टाइटल्ड या डब होती हैं
फिर भी भाषा और संस्कृति का प्रभाव तो लोगों पर पड़ता ही है।
महाभारत और रामायण के विडियो टेप शिक्षित अंग्रेज़ और अधिकांश
भारतीयों के घरों में संग्रहीत हैं।
स्टार टी.वी. और ज़ी टी.वी.
जैसे चैनल हिंदी को खुले आसमान के नीचे ला रहे हैं। अब हिंदी
बोलने में लोगों को झेंप नहीं लगती है। बात सिर्फ़ रह गई है
हिंदी को व्यवसायिक बनाने की। वैसे हिंदी ने लोगों को रोज़ी
रोटी दी है। अशोक रामपाल, महेंद्र कौल, डॉ. मैग्रेगर, डॉ.
स्नेल, ज्ञान कौशिक, कैलाश बुधवार, नसरीन कबीर मुन्नी, अचला
शर्मा आदि की नौकरियाँ इसके प्रमाण हैं।
१९७० के अगस्त माह में अमरदीप
के संपादक श्री जगदीश कौशल, डॉ. श्याम मनोहर पांडे, डॉ.
विष्णुदेव नारायण, कृष्ण कुमार खरे, राम जी, काउंसिलर जोशी जी
आदि ने साउथ हॉल में अपने सहयोगियों के साथ प्रतिमाह क्रम से
श्री राम चरित मानस द्वारा हिंदी भाषा धर्म और संस्कृति संजोने
का कार्य आरंभ किया। इन्हीं लोगों की प्रेरणा से घरों में
बच्चों को हिंदी के पठन-पाठन की ओर भी उन्मुख किया गया। उधर
टेम्स नदी के उस पार साउथ लंदन में कीनिया से आई पंजाबी
महिलाओं ने हिंदी धर्म और संस्कृति के उन्नयन और पठन-पाठन के
लिए कमर कसी। इन महिलाओं में श्रीमती सुषमा बावरी, श्रीमती
टी.एन. थापन, सुनीता राय, श्रीमती स्नेह टंडन, सुश्री राजसूद,
निर्मला संधीर, श्रीमती पुष्पा पाराशर, कांता शर्मा आदि। मैं
स्वयं भी इन लोगों के साथ थी। इन लोगों ने रामायण, गीता के पाठ
और भजन आदि के द्वारा हिंदी पढ़ने-पढ़ाने और उन्नयन का कार्य
आरंभ किया। साउथ लंदन की श्रीमती रेणुका बहादुर, श्रीमती कपलीश,
तारा रामधूनी, वेद मोहला, सी.पी. गुप्ता, ग्लासगो की अरविंद
बाला भसीन, नॉटिंघम की पुष्पा, जया वर्मा, श्रीमती महेंद्रा
आदि ने बच्चों के हिंदी शिक्षण पर अथक परिश्रम किया जिनके
योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। साउथ लंदन के. बी. एल.
सक्सेना ने कई स्वैच्छिक संस्थाओं के साथ हिंदी-भाषा और
संस्कृति के उन्नयन के लिए प्रबंधन का कार्य सँभाला। ग्रीनिच
कम्यूनिटी कालेज में मंजू सक्सेना एक ऐसा नाम है जिसे भुलाया
नहीं जा सकता है। मंजू सक्सेना ने वयस्कों को हिंदी वार्तालाप
की शिक्षा दी जिसमें डाक्टर, इंजीनियर, वकील, नर्स यानी
जनसंपर्क से संबंध रखने वाले सभी व्यवसाय के लोग शामिल थे।
अस्सी और नब्बे का दशक एक ऐसा
दशक था जब पूरे यू.के. में स्कॉटलैंड से लेकर लैंडस एंड वेल्स
से लेकर कैंटरबरी तक जहाँ भी भारतीय रहे, हिंदी के उन्नयन का
कार्य करते रहे। यह दूसरी बात थी कि दूर-दूर रहने से
दुर्भाग्यवश इन संगठनों का आपस में कोई जुड़ाव नहीं हो पाया
था। पहले ये संस्थाएँ आपस में एक दूसरे की गतिविधियों को नहीं
जानती थी क्यों कि उस समय तक आज की तरह अवतार लिट और रवि शर्मा
के सनराइज़ जैसा संचार माध्यम और हिंदी समिति जैसी गतिशील
संस्थाएँ नहीं थीं। |