''क्या
आप कल यहाँ बाकी सबके पहुँचने से कुछ पहले आ पाएँगी?
सूज़ाना ने पूछा।
''मैं चाहती हूँ कि कल यहाँ स्फ़टिक शिला पर दो धार्मिक
प्रतिष्टापन हों- एक ज्यूइश, एक हिंदु। मुझे बहुत
प्रोत्साहन मिलेगा यदि हिंदु प्रतिष्ठापन आप के हाथों से
हो।''
मेरे
हाँ कहने पर उसने कहा, ''मनु ने आपको बताया होगा कि कल
होने वाली विवाह-पद्धति का हर चरण, हर प्रथा, हर विशिष्ट
पाठन मनु का अपना चुनाव है। उसकी लिखी पटकथा में कोई
वाक्य तो क्या एक शब्द भी बदलने के लिए उसकी अनुमति लेनी
होगी।''
अगले
दिन जो हुआ वो कम से कम मेरी कल्पना से कहीं परे था।
वैसे मेरी कल्पना का दायरा इतना संकीर्ण भी नहीं है।
राजन, मनु और शांतनु तो इस मामले में बिल्कुल एकमत है कि
मुझे कल्पना की उड़ान भरने में किसी टिकट या रिज़र्वेशन
की ज़रूरत नहीं पड़ती। इन तीनों के साथ एक बार पंडित
जसराज की कॉन्सर्ट पर गई थई। इंटरवल में जब चाय-ठंडा
पानी लॉबी में पहुँचे तो मैंने कहा, ''कमाल का है
नियंत्रण इनका अपनी आवाज़ पर! ऐसा लगता है कि समंदर की
गहराइयों से उठ कर पर्वतों के शिखर बिना दम साधे छू लेती
है और फिर बादलों के साथ तैरती हुई वादियों में उतर आती
है।''
''पापा, डू यू नो व्हॉट शी इज सेइंग?'' शांतनु ने पूछा,
''आपको कुछ समझ आई कि ये क्या कह रही हैं।''
''मुझे तो लगता है पापा, कि ममा किसी और जगह हैं और हम
तीनों कहीं और।'' मनु ने कहा।
''बेहतरी इसी में है कि हम सब अब वापस हॉल में चलें
वर्ना तुम्हारी माँ कहेंगी कि हमारी ही वजह से यह ज़मीन
पर बनी रहीं और पंडित जसराज बादलों तक पहुँच गए।''
अब इन
हक़ीक़त-परस्तों को यह कौन समझाए ताकि मौका-ए-वारदात की
पहली रपट एफ.आई.आर. लिखवाना एक बात है और मौका-ए-माहौल
का मौजू बयान करना कुछ अलग होता है। बहरहाल, हक़ीक़त यही
है कि मनु की रिहर्सल से पहले भी दो-चार बार इसी चैपल
में आ चुकी हूँ मैं। किसी विशिष्ट ग़ैर-राजनैतिक नेता का
व्याख्यान सुनने या उसके सम्मान में आयोजित
अंतर्राष्ट्रीय सभा में सम्मिलित होने, तब यह एक सौम्य
समारोह स्थल होता है जिसकी ख़ासियत और पहचान होती है वो
व्यक्ति जिसे हम यहाँ सुनने या सम्मानित करने इकट्ठे
होते हैं।
आज इस
चैपल की बजाते खुद एक अपनी शख़्सियत है- ज्यूइश और हिंदु
विवाह पद्धतियों की पृथकता से उपजा हुआ एक अनूठा समागम।
इसका आकर्षण केंद्र है हमारी विवाह-वेदिकाओं जैसा चारों
ओर से खुला चौकोर मंडप-नुमा ज्यूइश विवाह स्थल- 'हौजा'।
हौजा
के चारों खंभों औऱ चारों बल्लियों को पूरी तरह ढकती हुई
नसवारी टहनियों से लिपटी ताज़ा सफ़ेद फूलों की बेलें।
उनके बीच-बीच लटके हुए अपनी हरी पत्तियों समेत बैंजनी
आर्किड के गुच्छे। ऊपर अधखिली सफ़ेद कलियों की जालीदार
चादर में बँधी उँची-नीची भूरी सुतली के कसोटों में से
झाँकती हुई आकाशदीपों-सी छोटी-छोटी मोमबत्तियाँ। नीचे
स्फटिक शिला के एक हिस्से में प्रतिष्ठापित खुले पन्नों
वाला ज्यूइश पवित्र पुराण- ''वोराह''। विवाह मंडप
से बाहर लंबी तिपाई पर दीयों जैसी पचासों अनजली
मोमबत्तियाँ।
वोराह
के दूसरे छोर वाले स्फटिक शिला के हिस्से को गंगाजल से
धो कर मैंने वहाँ गणपति का प्रतिष्ठान किया। भोर के उगते
सूरज की लाली जैसी ताज़ा गुलाब की पंखुड़ियों और साँझ की
पहली बादामी चाँदनी जैसे क्रिसथैमम के फूलों से बनाया एक
बृहद गोलाकार- सकल ब्रह्मांड की दसों दिशाओं का द्योतक।
उसके भीतरी हाशिये से जुड़े नौ अर्धगोलाकारों में
विभिन्न अन्न के अनपके दानों से बनी सपाट छोटी छोटी
ढेरियाँ बनी नवग्रह की प्रतीक। बीच में पाँचतत्वों का
प्रतिनिधित्व किया उपयुक्त धातुओं ने। चाँदी की छोटी-सी
चौकी पर, पत्थर के चकले से घिस कर बनाए चंदन की लकड़ी के
लेप का तिलक किए, शुभ और मंगलदायक गणपति की सोने के महीन
तार में सुसज्जित, काँच की वरद मूर्ति, नारियल, शंख
केसर, रोली, मौली, नैवेद्य, चरणामृत समर्पित किया।
धूप-दीप पास ही रख दिया और हाथ जोड़ कर शीश नवाया- इसकी
सुगंध, इसकी दीपशिखा बिना जलाए स्वीकार करें।
इसी
विवाह-स्थल में खड़े होकर, यहाँ से वहाँ चलते कदमों के
साथ, सूज़ाना ने संपूर्ण विवाह का अनुष्ठान किया। धर्म,
दर्शन और संस्कृति के हवाले देते हुए विवाह पद्धति के हर
चरण पर अपनी प्रेरित, मुखरित टिप्पणी दी। और इसी
पृष्ठभूमि में सजीव हुई मनु की पटकथा। निर्णित भूमिका
अदा करने वाले तत्पर और निहाल, साग्रह आमंत्रित गण सुहृद
और अभिभूत! पटकथा के निर्धारित चरणों की बीच कुछ ऐसे
अंतराल जिसमें खचाखच भरे चैपल की सामूहिक, संवेदनशील,
सुखद भागीकारी।
मैं
कोशिश भी करती तो इस पटकथा को ऐसे कभी न सिख पाती। मैं
कहना भी चाहती तो कोई वाक्य तो क्या, एक शब्द भी बदलना
गवारा न करती। और करती भी क्यों? मैं एक बैड टेकर भले ही
सही। हाथ पसरना नहीं आता मुझे, लेकिन बिन माँगे जब मन
चाही मुराद मिले तो दामन फैला कर उसे सहेजना बखूबी आता
है।
मनु की
बाहें थामे जब राजन और मैंने उसे विवाह-स्थल तक पहुँचाया
तो उसने सिर झुकाकर अपने पापा को 'थैंक्स' कहा और मेरा
माथा चूम लिया। एक हाथ में खुली मूँठ वाली घड़ी के सहारे
चलते आइसाक हैकाफ़ की बाँह थामे परियों जैसे दूधिया
लिबास में हौले-हौले कदम उठती लीसा जब विवाह-स्थल पर
पहुँच अपने पापा के गले लगी तो कुछ पल लगी रही।
अगला
पल सब के लिए भारी था। लीसा के इकलौते भाई फिलिप और मेरे
छोटे भाई उमेश की पुण्य स्मृति में उनको ख़ामोश
श्रद्धांजलि देते वर-वधू की छवि देखने वाली न जानें
कितनी जोड़ी आँखें धुँधला गई। इस पल से उबरने के लिए
लीसा के ममेरे भाई गिल ने वाल्ट व्हिटमैन के अमर-काव्य
''ऐ पैसेज टू इंडिया'' की पंक्तियाँ पढ़ी-
''ऐ आत्मा! तू पहले से ही ईश्वर के उद्देश्य को देख पाती
है क्या? वो पड़ोसी, वो जातियाँ, जिनसे विवाह करने हैं,
विवाह करवाने हैं? वो समुद्र जो लाँघने है, वो फ़ासले जो
तय करने है? वो देश जिन्हें दूरी से करीब लाना है?''
इसके
बाद शुरू हुआ विवाह का प्रारंभिक आह्वान-लीसा की चहेती
ताई जी इलैनोर द्वारा। पहले आस्था, फिर आराधना, फिर
आमंत्रण और फिर आशीर्वाद की प्रार्थना- उससे जो हम सब का
पिता, पालक, पोषक है।
फिर
सस्मित, आह्लादित स्वर में जलालुद्दीन मोहम्मद रुमी की
कविता सुनाती लीना ने पूरे माहौल में शादी के शादमानें
खिला दिए,
''मेहर बरसे इस शादी पर, खुद हँसने और हँसाने की
हर रोज़ दुआएँ जन्नत दे, नेकी से नाम कमाने की!
जो फल भी दे और साया भी, ऐसा खजूर हो यह शादी,
रहमत लुटाएँ और खुशियों का बढ़ता सरूर हो यह शादी!''
इस
खिले माहौल में मनु और लीसा ने एक दूसरे को दूधिया फूलों
की जयमालाएँ पहनाई। जयमालाएँ उनको थमाती ममता रिहर्सल के
बाद अबतक एक दिन में कई बार हमें बता चुकी थी कि अपने
भांजे की शादी में उसकी कितनी खुशीदा ज़िम्मेदारी है।
जयमालाएँ पहने विवाह मंडप से बाहर आकर मनु और लीसा सामने
की पंक्ति में बैठे लीसा के पापा और हमारे सम्मुख खड़े
हो गए। मनु ने राजन और मुझे नई मालाएँ पहना कर हमारी
आशीष ली। लीसा ने अपने पापा को ऐसे ही सम्मानित कर ली
उनकी शुभाशंसा।
विवाह
होम के लिए अग्नि प्रज्जवलन किया लीसा और हमारे परिवार
के बीसियों युवक-युवतियों, बड़े-बुज़ुर्गों ने, हौजा के
नीचे स्फ़टिक शिला पर रखी लकड़ी की मूँठवाली लंबी
मोमबत्तियों की लौ से रोशनी लेकर पासवाली तिपाई पर सजी
पचासों दीयों जैसी मोमबत्तियों को दीपशिखाओं का
ज्योतिपुंज बना दिया।
गणपति
के चरणों में पड़ी मौली उठाकर मैंने और राजन ने वर-वधू
का गठ-बंधन किया। मौसी का एक छोर मनु की कलाई में बाँध
कर दूसरा छोर ढीला लटकाया राजन ने। लीसा के लिए मैंने,
फिर हम दोनों ने मिलकर इन दोनों की कलाइयों से लटके छोर
आपस में बाँध दिए।
विवाह-मंडप और ज्योति-पुँज के गिर्द हाथ पकड़ कर मंगल
फेरे लिए वर-वधू ने। मंडप के नीचे सप्तपदी हुई।
अंगूठियों की अदला-बदली के बाद सुज़ाना ने वहीं मनु और
लीसा को ज्यूइश रस्म के मुताबिक सात आशीषें दी- विश्व,
समाज, परिवार का हिस्सा होने की, अपने व्यक्तित्व के
सम्मान की एक-एक, औऱ फिर नए जोड़े को दोहरी-दोहरी।
''सबान्न'' के दिन मदिरा को पवित्र करने की प्रथा निबाही
गई- छः दिन तक विधाता की बनी सृष्टि का काम चला कर
सातवें दिन पूर्णतया उपासना करने के लिए।
विवाह
संपन्न हुआ दोनों परिवारों की पारंपारिक प्रार्थनाओं के
साथ जिसमें मनु और लीसा ने एक नई स्तुति जोड़ दी अपनी ओर
से। पचासों देशों में गई हूँ मैं। अंतर्राष्ट्रीय,
अंतरधार्मिक अनेकों अवसर देखे हैं मैंने। मगर अपनी पसंद
से हमारे आदिपुरान ऋग्वेद के चरम सूक्त को अपने लिए
पारिवारिक प्रार्थना बना कर चुनते किसी नए वर-वधू को
नहीं देखा। एक सौ इक्कासी ऋषियों द्वारा रचित विश्व के
इस प्रथम लिखित पुराण के एक सौ इक्यानवे सूक्त को किसी
हिंदु वर और ज्यूईश वधू को अपने गृहस्थ जीवन की पहली
प्रार्थना बना एक साथ कहते नहीं सुना। मनु और लीसा ने
ऐसा किया।
''इस
वेद के सभी सूक्तों में एक मंत्र है जो साँझा है,
इस मंत्र में साँझेदारी है, इस वेद के सभी रचनाकारों के-
संजोग की, मन की, ज्ञान की।
उनकी तपस्या, उनके अर्पण, उनके बलिदान की।
और इस आशीष की-
हम अपनी प्रेरणा, अपने अनुभव, अपनी विद्या की बाँटे एक
दूसरे से
और इस साझेदारी में अपनी विशिष्टता बनाए रखे। हमारा
सहचर्य बना रहे।''
मनु ने
ज्यूईश परंपरागत काँच के टुकड़े किए- अपने पाँव से।
''मज़लटौक'' की समवेत गूँजकार हुई। गुड-लक, शुभाशंसा,
खुश रहो।
लीसा ने बताया कि सत्रह जनवरी दो हज़ार नौ वाले दिन
सुबह-सुबह न्यूयार्क शहर में कुछ घंटे बर्फ़ गिराने की
अर्ज़ी उसीने ऊपर भेजी थी, वो चाहती थी कि बोट-हाउस के
कॉकटेल-लाउंज के सामने वाली झील साँझ के घिरते झिटपुटे
में चाँदनी की दूधिया चादर ओढ़ ले। ऐसा ही हुआ। लीसा का
कहना है कि उसी रात को बिन-बदली का शफ़्फ़ाक आसमान भी
उसी ने चाहा था। ताकि बोट हाउस के बाहर, डाइनिंग हॉल के
सामने एब्रीवाइडस के तिकोने पेड़ों की लंबी कतार में
टिमटिमाती रोशनी की नन्हीं-नन्हीं लड़ियों को दूर-दूर तक
ऊपर देखते हुए अनगिनत सितारों का साथ रहे। ऐसा भी हुआ।
मनु का
कहना है कि बोट-हाउस के सारे इंतज़ामात लीसा के सपुर्द
थे, उसी की पसंद थे। दूधिया-बादामी मेज़पोश, मुख़्तलिक
सफ़ेद फूलों को सहेजे पोलिश, चैक, रूसी काँच के गुलदान,
हल्के सलेटी लहरिया रेशम जैसे कालीन, अंग्रेज़ी-हिंदी
संगीत का 'लाइव' और बिना माइक्रोफोन का आर्केस्ट्रा...।
पिछले
छः साल से तीज-त्योहार, मौका-माहौल में मनु के साथ हमारे
घर आने वाली विनम्र, शिष्ट लीसा।
बरस भर पहले मनु के साथ सगाई के बाद पहली बार हमारे घर
आने वाली चहकती, बतियाती लीसा।
सिर्फ़ हफ़्ता भर पहले हमारे घर में मनु के साथ अपनी
शादी की रस्में अदा करती सचेष्ट-तन्मया, कुछ अनमनी, कभी
अपना लहंगा-चुनरी कभी खुद को बड़े यतन से सँभालती लीसा।
और आज!
सहज, स्वाभाविक, उन्मुक्त, आश्वस्त, खिल-खिल करती लीसा।
किसी ने कहा है कि प्यार युक्ति है- लव सैटस् यू फ्री।
ऐंड मैरिज टाइज़ यू- और शादी एक बंधन है। है तो मुक्त
होकर बाँधने की अभिलाषा क्यों? और बँध कर उन्मुक्त होना
क्योंकर? मैंने अपनी ही अंगुली से अपनी ही कनपटी को हलके
से ठीक किया। यह पल पूरी तरह जी लो- इनका विश्लेषण रहने
दो।
किसी
ने मेरा काँधा छुआ। सफ़ेद बालों का छोटा-सा ताज, मेक-अप
विहीन सौम्य चेहरा, सादा स्कर्ट ब्लाउज़ पहने, हल्के से
बदन वाली एक महिला।
''मैं जूडी हूँ। लीसा की माँ मेरे पति की छोटी बहन थी।''
मैं उठकर खड़ी हो गई।
''मनु को हम सब बहुत प्यार करते हैं। बिल्कुल असाधारण
युवक है वो। हमें बड़ी खुशी है कि वह हमारे भी परिवार का
हिस्सा बन गया है,'' उनकी आवाज़ धीमी है, नम भी।
''मैं अपने परिवार की बड़ी हूँ, वह कह रही थीं।'' हम सब
उम्मीद करते हैं कि लीसा आपके परिवार को बहुत-सी खुशियाँ
देगा।''
ऐसा ही
कुछ मैं पहले भी सुन चुकी हूँ न! इसके जवाब में वही कहना
चाहिए न जो कि पचास साल पहले मेरी नानी को मेरी मासी की
सास ने कहा था। मैंने कह दिया- हाथ जोड़कर।
''मिसेज राणा। चल कर देखिए कि मनु के पापा अपनी नई-नई
पुत्र-वधू के साथ कैसे खुश हो कर डांस कर रहे हैं।''
ड्रू कह रहा था। ड्रू मनु के बचपन का दोस्त है। उसने
मेरा हाथ थामा और हाल के दूसरे किनारे तक ले गया। डांस
फ्लोर की भीड़ इतनी घनी कि किसी को सहज ही देख पाना
मुश्किल।
''मे आई?'' ड्रू ने पूछा।
''मे आई?'' निक, गैरिटी, कैन, क्रिस्टीन, सैंडी ने पूछा।
''मेरे साथ भी?'' लीसा के कज़िन गिल ने पूछा।
राजन
अगर डांस फ्लोर पर थे तो मुझे दिखाई नहीं दिए। मगर थे
ज़रूर वही कहीं! अचानक मेरे दोनों काँधे पीछे से एक
चीन्हे पहचाने दायरे के आधे घेरे में आ गए। पूछा भी नहीं
कि ''मे आई।'' मैंने अपनी शियाटिका को घुड़क दिया।
''जी भर के नाच लो। मजाल है मैं चूँ भी करूँ,'' उसने
कहा। |