मैंने
इतनी लंबी सांस छोड़ी कि मनु कुछ घबरा ही गया।
"ममा। आप सुन रही हैं न!"
"सुन रही हूँ? नाच रही हूँ, गाने को जी चाहता है। समझ
नहीं आ रहा कि इतनी खुश मैं पिछले पाँच सालों में कब हुई
हूँ।"
"सही नहीं है, ममा। लीना और शान्तनु कल ही तो आए थे आपके
पास।"
"तो तुम्हें पता है।"
"हम यहाँ आने से पहले मिले थे उन्हें। और फ्लाइट पकड़ने
से पहले घर आकर आपको बताना चाहते थे कि आप निश्चिंत हो
जाएँ। लेकिन जब दोनों ने खुशखबरी सुनाई तो मैंने सोचा कि
हर ख़बर आपको अछूती मिलनी चाहिए।"
"लीसा कहाँ है?"
"यहीं बैठी है मेरे पास। आपसे बात करना चाहती है।"
"हैलो," लीसा की सैंकड़ों मील दूर से आती आवाज़ में कुछ
वैसी ही मंदिर की घंटियों की खनक थी जो कोई चालीस बरस
पहले दिल्ली के पुराने शिवमंदिर के सामने खड़े होकर
मैंने सुनी थी।
"मैं कबसे यही सुनने के इंतज़ार में हूँ लीसा।"
"मैं भी।"
हम दोनों खिलखिलाकर टेलीफोन पर हँस दी।
"कैसी हो?" मैंने पूछा
"टाप आफ द वर्ल्ड। सातवें आसमान पर हूँ। वहाँ हम दोनों
के लिए जगह है न?"
"एब्सो-ल्यूटली!" हम इस शुक्रवार न्यूयार्क लौट रहे हैं।
शनिवार को आपके पास आना चाहते हैं।"
"हमें बेसब्री से इंतज़ार रहेगा।"
"इस जज़ीरे की चौड़ी तिकोने वाले छोर की एक नीची पहाड़ी
की सपाट चोटी पर है यह रेस्तरां।" लीसा रुक-रुक कर बात
कर रही थी," उसकी एक बाल्कनी खुले आसमान के नीचे पड़ती
है, फर्श पथरीली है और तीन ओर पुराने खंडहरों के आदम कद
खम्भों के बीच मद्दम रोशनी वाली जलती हुई मशालें हैं,"
उसके चेहरे की चमक कुछ और बढ़ गई थी।
"मशालों के बीच बड़े-बड़े धुंधले पत्थर के गमलों में रंग
बिरंगे फूलों वाली लटकती हुई बेले हैं। उपर बिना बादल के
घोर नीले आसमान में टिमटिम करते खूब से सितारे। इधर शांत
समंदर को सफेद झाग से धोती हुई लहरें। उधर कहीं धीमा
धीमा पार्श्वगीत।" लीसा अब पूरी तरह वापस वहीं पहुँच गई
थी जहाँ की बात वह बता रही थी।
"पूरी बाल्कनी में बैठने के लिए सिर्फ़ दो आमने सामने
रखी मखमली कुशन वाली कुर्सियाँ और उनके बीच ज़मान तक
लटकती झालर वाले दो मेजपोश से ढकी एक गोल तिपाही।"
लीसा का हाथ अब खुद-ब-खुद अंगूठी वाली उँगली को सहलाने
लगा था।
"मुझे वहाँ पहुँच कर देखने में बहुत वक्त लगा और एक ही
विचार मन में आया। मनु ने कभी मुझे प्रपोज़ करना है तो
हाऊ वुड ही बीट द प्लेस! उसे इससे ज़्यादा तिलस्मी माहौल
कहाँ मिलेगा?"
"और अब आप मेरी भी सुनिये, पापा," मनु ने डाइनिंग रूम की
मेज़ पर अपनी निर्धारित कुर्सी पर बैठे हुए बात आगे
चलाई।
"यह सब प्लैन करने के बाद, मैंने जब लीसा को वहाँ बुलाया
तो वो आने को तैयार नहीं थी। दिन भर स्कूबा डाइविंग और
हैंडग्लाइडिंग के बाद कमरे में ही खाना खा लेना चाहती
थी।" आपने मनपसंद टमाटर वाले आलुओं की तरकारी का एक
चम्मच मुँह में डाल कर मनु ने मेरी तरफ़ देखा।
"खूब अच्छे बनाए हैं ममा। थैंक्स!" और फिर वापस उसी
बालकनी पर जा पहुँचा जहीँ लीसा अब गोल तिपाही के पास रखी
कुर्सी पर बैठी अपने चारों ओर देख रही थी।
"मैंने उपर आते वक्त अंगूठी वाली डिबिया को अपनी जीन्स
की पीछे वाली जेब में डाला था। लीसा के बिना देखे उसे
वहाँ से निकाल कर अंगूठी हाथ में लेना काफी बड़ा चैलेंज
था।" मनु अब अपने गालों पर पड़ते हुए गड्डों सहित आँखों
में मुस्करा रहा था।
"और मुझे आपको यह बताते हुए बड़ा गर्व है कि मैंने इस
चुनौती को जीत लिया।" मनु ने बेहद नाटकीय ढंग से अपना
सिर ज़रा-सा झुकाकर कनखियों से बार बार हम सब को देखा
जैसे रंगमंच पर कोई सधा हुआ नायक पर्दा गिरने से पहले
तालियों की गड़गड़ाहट सुनने के लिए करता है। हमनें उसे
निराश नहीं किया।
कुछ देर में अपने घर में बैठे बिठाए मनु और लीसा हमें
किसी तिलस्मी दुनिया में ले गए थे। मैं कुछ देर तक वहीं
टिके रहने वाली थी कि मनु ने मेज के दूसरे कोने पर घर के
मुखिया वाली कुर्सी पर बैठे राजन से पूछा,
"अब इसी बात पर पापा, क्या आप शैम्पेन खोलना पसंद
करेंगे?"
"कौनसी खोलूँ?" राजन ने कुर्सी छोड़ने में काफी वक्त लगा
दिया। "वो जो तुम दोनों लाए हो? या वो जो तुम्हारी माँ
ने चिल्ल करने के लिए फ्रिज में रखी है?"
"ममा वाली ही खोलिए, पापा। हमने देख ली है। बढ़िया है।
हमारे वाली आप दूसरे मेहमानों के साथ खोलिएगा।"
"शान्तनु से बात हुई तुम्हारी?" मैंने पूछा।
"हाँ, उसको भी वहीं से फ़ोन किया था।"
"क्या कहा उसने?"
"कहा कि तुम जल्दीबाज़ी में तो यह फ़ैसला नहीं कर रहे हो
न! चार-पाँच साल और सोच लेते।"
यह सुनकर दोनों भाइयों ने जो ठहाका लगाया होगा, मेरे कान
उसकी गूँज पकड़ने को तैयार थे लेकिन न जाने कहाँ से
आँखों में एक धुंधली-सी तस्वीर चली आई। दिल्ली में लेडी
श्री राम कॉलेज के राजनीतिक विभाग की अध्यक्षा मिसेज
विमला लूथरा वसंत विहार में हमारी पड़ोसन थीं। मेरा उनका
काफ़ी उठना-बैठना था। बम्बई से अपने बेटे की शादी के बाद
लौटीं तो मैं मुबारक देने गई। उन्होंने तस्वीर दिखाई,
मिठाई खिलाई और मनु-शान्तनु की उम्र पूछी। कुछ बेमौका-सा
लगा मुझे यह सवाल। मनु सात साल का है और शान्तनु दो साल
का, मैंने बताया।
"हेमन्त और दीपक की उम्र में भी इतना ही फ़र्क है।"
उन्होंने कहा।
"तो अब आप दीपक की शादी की तैयारी कर रही हैं! बहुत खुशी
की बात है। आप और लूथरा साहिब बड़े नसीब वाले हैँ दोनों
बेटे इतने काबिल और सुंदर हैं।" मैंने किसी तरह कुछ ठीक
ठाक कहना चाहा क्योंकि अपनी अनुशासन प्रियता के लिए
प्रख्यात मिसेज लूथरा मुझे कुछ उखड़ी-उखड़ी लग रही थीं
"आप ठीक तो हैं न?" मैंने पूछ ही लिया, "शादी की भाग
दौड़ और लंबा सफ़र। मैं चलती हूँ फिर किसी दिन आऊँगी।"
उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया।
"नहीं बैठ तू!" उनकी आवाज़ में एक अजीब-सी कंपकंपी थी।
"मुझे यह बता कि बेटी पराई करके माँ खुले आम रो दे तो ये
रिवाज़ है, कुदरती है। और बेटा पराया करके माँ रोना चाहे
तो कहाँ जाए?"
और वह सचमुच रो दीं।
"बरसों से लूथरा साहिब और मैं हेमन्त और लावण्या की शादी
के इंतज़ार में थे। बड़ी ही प्यारी लड़की है लावण्या।
सुन्दर-सुशील, सुशिक्षित, शिष्ट।" वह बोलती रहीं।
"बड़ी जोड़ी जमती है इन दोनों की। दुल्हा-दुल्हिन बने जब
मंडप पर बैठे तो मेरे जैसी नास्तिक औरत भी भगवान के
उन्हें बुरी नज़र से बचाने की प्रार्थना कर रही थी।"
उन्होने अपने साड़ी के पल्ले से अपनी आँखे पोंछी और फिर
से रो दीं।
"बड़े शगुन मना कर, दुल्हा-दुल्हन को हनीमून पर भेजने की
तैयारी की। लेकिन जब उनकी कार एयरपोर्ट जाने के लिए घर
के आगे से ओझल हुई तो मुझे लगा कि कोई मेरा कलेजा ही
निकाल कर ले गया है।"
"आप किस सोच में पड़ गई ममा?" मनु पूछ रहा था।
"मैं?" ज़रा-सा अचकचाई।
"मुझे याद आ रहा है जब मैं पहली बार लीना और लीसा से
इकट्ठे रेस्तरां में मिली तो ख्याल आया कि मैं इन्हें
छुटकी-बड़की कहूँगी। अब छुटकी को बड़की और बड़की को
छुटकी कह देना होगी क्या?"
अपनी बात खुद ही सरासर बेतुकी लगी। लेकिन कुछेक जज़्बात
इज़हार के नहीं, लिहाज़ के हक़दार होते हैं। उनको परदे
की ओट लेना उनके साथ बेइमानी नहीं हो सकती! मेरा
बेतुकापन मुझे ओट में लेकर बाकी सबके लिए महज़ शब्दों की
अटपटाहट ही बना रहा था। राजन के चेहरे से एक बार फिर
साफ़ ज़ाहिर था कि उन जैसे नाप तौल कर बोलने वालों के हम
जैसे बेतुकों की बेजा ज़्यादतियाँ बर्दाश्त करने की आदत
हो जाती है।
शिष्टतावश लीसा ने अपने खाने की प्लेट पर नज़रें गढ़ा
दीं जैसे कि या उसने कुछ सुना ही नहीं और या उसे समझने
के लिए अनुवाद की उम्मीद नहीं करनी। हमेशा की तरह मनु ही
एक बार फिर मेरी सहजता लौटाने के लिए मेरा साथी रहा,
"मुझे यक़ीन है ममा कि आप इस छुटकी-बड़की का कोई समाधान
खोज ही लेंगी। अभी तो पापा से कहते हैं कि वह अपने ख़ास
अंदाज़ में शैंपेन खोल दें।"
शैंपेन
की बोतल खोलने वाले तकरीबन हर इंसान के चेहरे पर एक सुखद
अपेक्षा होती हैः
अब खुली –अब खुली – लो खुल गई। राजन को पहले तो कार्क के
गिर्द लिपटी तार से जूझना पड़ता है। फिर जब उनका अंगूठा
और उँगली कार्क पर दबाव डालते हैं तो वो बोतल को अपने से
काफी दूर ले जाकर एक किस्म से अपने दाँत भींच लेते हैं-
क्या यह खुलने वाली है- कहीं खुल तो नहीं जाएगी न- यह तो
खुल ही गई।
अपनी
शादी के सभी इंतज़ामात मनु और लीसा ने पूरी तरह अपने ही
नियंत्रण में रखे। लीसा की माँ को गुज़रे बरसों बीत गए
हैं। उसके वरिष्ठ और रिटायर्ड वकील पिता से हम मिल चुके
हैं, बेहद शालीन और दख़लअंदाज़ी से गुरेज करने वाले लगे
हमको। बस एक तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणालियों का
ख़ास जानकार और अपनी सभ्यता, संस्कृति, साहित्य का मुरीद
मनु। दूसरी तरफ़ मानवीय साधनों की परख में दक्ष, सही पद
के लिए सही अधिकारी का चुनाव करने में प्रख्यात
कम्पनियों की सहायक लीसा जिसे दक्षिण एशिया के
इतिहास-भूगोल, रहन-सहन की किताबी जानकारी है।
कभी
लगता है कि मनु और लीसा ने मिलकर चौकोर लकीरों के
ड्राफ्टिंग पेपर पर एकदूसरे को काटते हुए कई चौखाने बना
लिए हैं- कुछ छोटे, कुछ बड़े। सबसे ज़्यादा चौखाने को
मिलाने वाले सबसे बड़े चौखाने में लिखे नाम उनके
आमंत्रित अतिथियों की "ए" लिस्ट होगी। सबसे पहले उन्हीं
की स्वीकृति-अस्वीकृति जानकर वह "बी" लिस्ट बनाएँगे। फिर
"सी" लिस्ट बनेगी। |