''यह
तुम वहाँ कोने में बैठी क्या कर रही हो?'' बाहर निकलने
के लिए तैयार राजन पूछते हैं।
''मैं सोच रही की कि...''
''यह
तुम वहाँ कोने में बैठी क्या कर रही हो?'' बाहर निकलने
के लिए तैयार राजन पूछते हैं।
''मैं सोच रही की कि...''
''क्यों? पीठ का दर्द कम हो गया है क्या जो सिर में दर्द
की तैयारी कर रही हो?'' मेरी बात पूरी सुने बिना ही राजन
ने अपना फिकरा चिपका दिया। एक और वन लाइनर! कभी इतना
कुठाराघाती कि एक ही बार में अच्छे ख़ासे रिश्ते की नींव
डाँवाडोल कर दे। कभी ऐसा सहलाता हुआ कि दिनों तक घुमड़ते
हुए उलाहनों पर नरम से मरहम का लेप लगा दे। बढ़ती हुई
उम्र के साथ मेरी याददाश्त में भी कोई ऑटोमॅटिक स्पंज
आकर फिट हो गया है। कभी इतना फूल जाता है कि बड़े से
बड़े कुठाराघात की चोट का शॉक एब्सॉर्ब कर ले। कभी ऐसा
सिकुड़ता है कि मरहम लगाते छोटे से पलों की धूल पोंछ कर
उन्हें फिर से सहलाने लायक बना दे।
कोलंबिया युनिवर्सिटी न्यूयार्क में पोस्ट-डॉक्टरल
फैलोशिप का एक साल बिता कर नई दिल्ली लौटी थी। कनाट
प्लेस में रिवोली सिनेमा और हनुमान मंदिर के बीच पुराने
बरगद की ओट में एक छोटा-सा शिव मंदिर है जिसमें एक बड़े
शिवलिंग के सिवा कोई मूर्ति या उपासना का स्थल नहीं।
अपनी छब्बीसवीं सालगिराह पर वहाँ जाकर प्रणाम किया तो
पुजारी ने सफ़ेद मोतिया के फूलों की एक माला थमा कर
कुमकुम का तिलक लगा दिया मुझे। माला बालों में लपेट कर
जूड़ा बनाती, पिछले कदमों से चलती हुई मंदिर की दहलीज़
छू रही थी कि किसी ने पूछा, ''एक बार और मंदिर में जाना
चाहोगी?''
सिर
उठाकर पीछे मुड़ी तो राजन की बरगद के तने से लगा पाया।
सवालिया बनी मेरी भवें पूछ बैठी, ''क्यों?''
''जाकर पूछ आओ कि तुम्हें कैसे इंसान से शादी करनी
चाहिए?''
''पूछ लिया है...'' कहने वाले मेरे मुस्कराते होठों ने
यह ऐलान करने से पहले मेरी इज़ाज़त माँगी हो ऐसा मुझे
कतई याद नहीं।''
''तो क्या सलाह मिली?''
''यही कि कोई ऐसा हो जिसका हाथ थाम कर हँसा जाए, जिसके
काँधे पर सिर रख कर रो सकें।''
बरगद
के तने से अलग हट कर राजन ने अपनी एक लंबी बाँह के गोल
घेरे में मेरे काँधे समेटे। फिर दूसरी अधखुली बाजू का
हाथ बढ़ा कर पूरा खोल दिया।
''फिलहाल तो हँस दो। वक़्त पड़ा तो काँधा भी हाज़िर कर
देंगे।''
फिर उसके बाद जो मंदिर में बजती हुई घंटियाँ मैंने सुनी
उनको वाकई किसी श्रद्धालु ने बजाया था या मेरे मन ने, यह
फ़ैसला मैं नहीं कर पाई। इतना यकीनन जानती हूँ कि हम
दोनों की शादी का फ़ैसला सुन कर हमारे घरवालों ने
बाजे-शहनाई समेत हमारा गठबंधन करने में कोई दिलचस्पी
नहीं दिखाई। संपन्न, फौजी ज़मींदार जाट परिवार का
पढ़ा-लिखा इकलौता बेटा- उँचा-लंबा, गोरा-चिट्टा, सुशील,
संभ्रांत, सिविल सर्विस, सुशिक्षित, मोहयाल ब्राह्मण
परिवार की मेधावी जेष्ठ बेटी- कद की मंझली, रंग की गंदगी
और उपर से खप्पी, मुखरा। राजन को क्या और कैसे जवाबदेही
देनी पड़ी, उसने मुझे कभी नहीं बताया। मैं सिर्फ़ अंदाज़
लगा सकती हूँ। शादी के बाद इनके गाँव गई थी, काकियों,
ताइयों और नंदों, भौजियों को मुँह दिखाने के बाद चेहरा
ढाँपे एक आराम कुर्सी पर आँखें मूँदे झपकी लेने की कोशिश
में थी कि दो छोटी-सी लड़कियाँ आकर पास खड़ी हो गई।
मैंने साड़ी का पल्ला चेहरे से हटा कर मुस्कराना चाहा,
लेकिन उनकी बात सुन कर खिलखिला उठी। दोनों में से जो
ज़रा उँची थी वो छोटी को फुस-फुसा कर कह रही थी,
''काक्का ने लंदन जाक्कर जो मोइ ब्याहनी थी, तो आड़े
बियाह क्यों न कर लिया!''
राजन
की अपनी डाक्टरल थीसिस की रिसर्च के सिलसिले में एक साल
के लिए लंदन जाना था। उससे पहले अगर हम शादी कर लेते तो
मेरे लिए वीज़ा मिलने में कुछ आसानी हो जाती। लेकिन मेरी
यह बात सुनते ही हमारे घर में तो ग़दर के हालात पैदा हो
गए। माहोल कुछ ऐसा कि जैसे युनाइटेड नेशन्स के सुरक्षा
परिषद का आपादकालीन सैशन, माँ, भाई-बहन, मौसा-मौसी,
फूफा, चाचा, सभी ने कई प्रस्ताव रखे और पापा ने दरेक पर
अपना वीटो ठोक दिया। न उन्होंने राजन के ख़िलाफ़ एक शब्द
कहा, न ही उसके साथ मेरी शादी की कोई दलील सुनी।
''यह
तो आप परशुराम वाली ज़िद कर रहे हैं जीजा जी। न आप को
राम से कोई शिकायत है न सीता से,'' मेरी छोटी मौसी ने
पैरवी की।
''आप तो इसी बात से तुनक गए हैं कि शिव धनुष टूटा
कैसे?''
शायराना मिज़ाज़ और हँसमुख मेरी माँ को राजन बड़ा पसंद
था। पहली बार मिलनें के बाद ही मुझे अकेले में ले जाकर
बोलीं, ''दाद देनी पड़ेगी इसकी। जिस बात के लिए हम बरसों
से राज़ी नहीं कर पाए तुझे, इस शख़्स ने कुछ महीनों में
ही मनवा ली। यह तो वही हुआ कि इकबाल उन्होंने आके सारे
बल दिए निकाल मुद्दत से आरजू थी कि सीधा करे कोई।''
बरसों
बाद पापा ने भी कुछ ऐसा ही कहा लेकिन कभी यह नहीं बताया
कि उनको हमारी विधिवत शादी से ऐतराज़ क्या था? पूछना कोई
ज़रूरी भई नहीं था। उनकी वीटो का मान रखते हुए हमने एक
नितांत अपरिचित गाँव के, निपट अजनबी चेहरों से घिरे,
छोटे-से गुरुद्वारे में चुपचाप शादी कर ली। मेरी बचपन की
दोस्त उषा और उसके ब्रिगेडियर पति दयाल के साथ उस गाव की
तरफ़ जाते हुए न राजन बोला, न मैं। उबड़-खाबड़ गाँ की
सड़क पर जब जीप उतरी तो एक हिचकोले से मेरा हाथ राजन की
बाँह से जा टकराया।
मेरे
हाथ को हल्का-सा थपथपा कर उसने पूछा, ''क्या सोच रही
हो?''
जवाब में मैंने सिर हिला कर सवाल किया।
''तुम क्या सोच रहे हो?''
''महापुरुष सोचा नहीं करते, सिर्फ़ समय लेते हैं।'' एक
और वन लाइनर!
गुरुद्वारे में बैठी संगत के समवेत स्वरों में ''बाँह
ज़िंदा ही पकड़िए, सिर दीजै बाँह ना छोड़िए।'' ! की
गुरबानी का पाठ पूरा होते ही सफ़ेद दाढ़ी वाले सौंम्य
ग्रंथी ने हमें गुरुग्रंथ साहिब के फेरे लेने के लिए
उठने का इशारा किया और पूछा,
''बीबी दा कन्या दान कौन करेगा?''
फ़ौजी लिबास में लैस उषा के पति उठकर मेरे पास खड़े होना
चाहते थे कि राजन ने एक शिष्ट निगाह से उन्हें बरज दिया।
फिर बिल्कुल धीमी आवाज़ में ग्रंथी से कहा,
''इनके माँ-बाप की लंबी उम्र की कामना के साथ मैं इनका
हाथ थामती हूँ।''
राजन
के माता-पिता के लिए ऐसी ही कोई कामना उसको अपना हाथ
थमाते मैंने की हो, मुझे याद नहीं। लेकिन राजन की बारौब
और बेहद खूबसूरत माँ का वह सवाल अब तक याद है जो मुझसे
पहली बार मिलने पर उन्होंने किया,
''मन्ने यों बत्तला दे बेट्टी की म्हारे बेट्टे के साथ
यों शादी थारी मर्जी से होई है ना?''
मेरे सिर झुकाने पे उन्होंने अपना हाथ मेरी पीठ पर रख
दिया और बोली,
''बस इब तू चिंता मत करिए। लंदन माँ जाकर कानूनी शाद्दी
कर लेन्ना दोनों। बरस पाछे घराँ आऔगे, तो सारे गाँवाँ
माँ मिठाई बाँट्टेंगे।''
लंदन
की फ्लाईट पालम एअरपोर्ट से पकड़ने के लिए टैक्सी में
जाते हुए राजन के पापा मेरे साथ थे। टिकट और वीज़ा का
इंतज़ाम करने में जो एकाध महीने का वक़्त लगा, उस दौरान
वह कई बार होस्टल आकर मेरा हाल-चाल पूछ गए थे।
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एक ही
औरत से दो-दो बार शादी करनें का फ़ैसला बुनियादी तौर पर
राजन का ही था। उस शादी को चालीस साल तक निबाहने की
ज़्यादातर ज़िम्मेदारी मेरी रही है। कम से कम मैं यही
यकीन करना चाहती हूँ। वरना राजन के बिना जताए किए गए
अहसानों के बोझ तले दब कर मैं मंझली से ठिंगनी नहीं,
बल्कि बौनी हो जाती। कभी फ़हरिस्त नहीं बना पाई अबतक,
इसलिए नहीं कि बहुत लंबी या छोटी है। शायद इसलिए कि मेरे
एहसान के वज़न और उसके अहसान के वजूद का लेखा-जोखा ठीक
ही नहीं बैठता। हिसाब में कहीं गड़बड़ हो गई है, इसका
पता तभी चलता है जब उसकी ख़ामोश जवाब-तलबी में पहले मैं
खुद ही अपनी भूल-चूक तलाशती हूँ और फिर खुद ही उससे
निबटने का राह निकाल लेती हूँ। मुख़्तसिर-सी बात यह है
कि- आई ऐम ए बैड टेकर। लेना पसंद नहीं। मुझे, औरदेते
वक़्त भूल जाती हूँ कि लेने में नापसंदगी की आदत सिर्फ़
मुझे ही नहीं हे, न ही हमेशा इस बात का लिहाज रहता है कि
लेने में ना-नुकर करके मैं देने वाले को असमंजस में डाल
देती हूँ। कहीं कोई कमी रह गई है क्या? राजन के साथ इस
मुद्दे पर खुल कर तबादले-ख़यालात नहीं हुआ। उसे बुनियादी
मुद्दे उठाना पसंद नहीं। और मुझे मुद्दे के आस-पास
मंडराती धारणाओं की व्याख्या करने में तो महारत है-
क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय विवादों के निष्पक्ष विश्लेषण के
लिए ऐसा करना ज़रूरी है। लेकिन ज़ाती ज़िंदगी में सीधा
बेबाक मुद्दे पर आ जाना- नहीं सीख पाई! एक बार
घुमा-फिरा कर किसी मामूली-सी छेड़छाड़ पर कोशिश ज़रूर की
थी।
काफ़ी
दिनों तक गुम-सुम घर के माहौल में एक छोटी-सी नाराज़गी
में तनाव की चादर तान रक्खी थी। बरफ़ और बरसात के लंबे
महीनों के बाद एक दिन जब उघड़ कर सूरज निकला तो राजन ने
पूछा,
''कहीं घूमने चलोगी?''
''कहाँ?''
''अरे भई, चलो तो सही! कहीं भगाकर तो नहीं ले जा रहा
तुमको?''
''एहसान कर रहे हो क्या?''
''हाँ। खुद पर।'' |