मैं कौन हूँ,
कहाँ से हूँ
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)
कल
बी.ए.द्वितीय वर्ष की कक्षा में बालकवि बैरागी की कविता 'सागर
बोला' पढ़ाई। कविता की समझ इनमें ज़बरदस्त है। रूपकों और
प्रतीकों से लेकर बिम्ब विधान तक ये आसानी से पकड़ लेते हैं।
लेकिन भाषाई और सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों में अंतर होने के कारण
हिन्दी की आसान से आसान कविता भी इनके लिए जटिल हो जाती है।
शायद इसीलिए मुझे प्रायः यही लगता रहा है कि विदेशी सरज़मीं पर
विद्वत्ता के बजाय संप्रेषणीयता अधिक अर्थवती होती है। यह आभास
मुझे चीन में ही नहीं ईरान में भी अध्यापन के दौरान होता रहा
है। संप्रेषण और समझ की यह समस्या विदेश में ही नहीं देश में
भी हिंदीतर भाषी प्रदेशों के विद्यार्थियों के साथ होती देखी
है। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन
अकादमी(आई.ए.एस.अकादमी के नाम से अधिक चर्चित), मसूरी में
तमिलनाडु और पूर्वोत्तर राज्यों के प्रशिक्षु अधिकारियों को
पढ़ाते समय भी मैंने बराबर महसूस किया है कि इनके साथ विद्वत्ता
नहीं संप्रेषणीयता ही अधिक उपयोगी है। इनके लिए भी और अपने लिए
भी।
चीन में पहुँचने का मेरा पहला मक़सद हिंदी को लोकप्रिय बनाना
रहा है। यह काम इसे सरल व कर्णप्रिय बनाकर ही किया जा सकता है
और लोक प्रियता के अटूट गठबंधन का प्रमाण यहाँ के
विद्यार्थियों के मोबाइलों में भरे हिन्दी गाने हैं। यह स्थिति
तब है जब यहाँ यू ट्यूब और फेसबुक प्रतिबंधित हैं। शुरू-शुरू
में मैंने भी इन्हें सैकड़ों बार खोलने की कोशिशें की पर न तो
फेसबुक खुला और न ही यू ट्यूब। बहुत बाद में पता चला कि ये
दोनों यहाँ बैन हैं। इसी लिए मुझे हर तरफ़ से असफलता ही हाथ लगी
थी।
ये बच्चे हिंदी गानों को जाने कहाँ से लोड कर लाते हैं। उन्हें
सुनते ही नहीं उन पर थिरकते भी हैं। हिंदी के कर्णधार फिल्मों
और सीरियलों को कितना भी कोसें पर इनके योगदान की ऊँचाई को वे
कभी नहीं छू सकते। इधर हिंदी के न्यूज़ चैनलों ने भी हिन्दी के
प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई है। अभी हमारे एक मित्र
आर्मीनिया से बात कर रहे थे। वे बताने लगे कि उनके यहाँ कई
हिंदी न्यूज़ चैनल आते हैं। हिन्दी को जैसे ये माध्यम आसान करके
प्रस्तुत करते हैं, वही रूप पठन-पाठन में भी उपयोगी होगा, यही
सोचकर मैं हिंदीतर भाषा-भाषियों के पठन-पाठन को पारंपरिक के
बजाय नवोन्मेषी बनाने का पक्षधर हूँ। इसी फ़लसफ़े पर चलते हुए
यहाँ चीन में भी इनके पाठ्यक्रम से बाहर जाकर इन तक पहुँचाई गई
मात्र छह लाइनों की इस कविता के प्रस्तुतीकरण और इनके स्वयं के
पाठ पर (इनके चेहरे से )लगा कि इन्हें अच्छा महसूस हो रहा है।
यह कविता है- "नदियाँ होतीं मीठी-मीठी, सागर होता खारा-खारा।
मैंने पूछ लिया सागर से,
यह कैसा व्यवहार तुम्हारा?
सागर बोला सर मत खाओ,
पहले खुद सागर बन जाओ"
भाषा और भाव दोनों के गज़ब प्रभाव छोड़ते हुए भी यह कविता
व्याख्या और टिप्पणी के लिए बहुत जगह नहीं देती। बस हाशिए में
जितना चाहें कह-सुन लें। कोई गूढ़ता और जटिलता नहीं फिर भी
मानवीय सन्दर्भ से जुड़ते ही यह कविता गंभीर अर्थ ले ही लेती
है।
एक इंसान जिसे समाज ने बड़प्पन दिया है, उसका फ़र्ज़ है कि वह
उसका ऋण ध्यान में रखे और अवसर पड़ने पर चुकाए भी। जिन नदियों
ने सागर को मिठास से भरा भला वे बदले में खारापन क्यों
चाहेंगी? मिठास के बदले में खारापन कोई भी नहीं चाहेगा। इस लिए
कवि का सागर से उसके खारेपन का कारण पूछने वाला यह प्रश्न मुझे
जितना सहज और स्वाभाविक लगा था, उसका उत्तर 'पहले खुद सागर बन
जाओ' उतना ही जटिल। सागर से उसके खारेपन का कारण पूछने वाला
वही कवि अंत में सागर बनने के बाद ही सागर से यह प्रश्न पूछने
की बात क्यों करता है? कविता को समझाने के उद्देश्य से बगल में
एक बच्ची का चित्र भी है। बच्चों के मन में ऐसे अनंत प्रश्न
होते हैं, जिनके वे हमसे उत्तर चाहते हैं। क्या बच्चों को हम
बैरागी जी का यह उत्तर दे कर टाल सकते हैं? बैरागी जी जैसे
गंभीर कवि की यह टालू वृत्ति मुझे अखरी ज़रूर, लेकिन कोई और
रास्ता न देखकर अंततः मैं भी टाल गया और कुल चार लाइनों से काम
चला लिया। कभी बैरागी जी मिलेंगे तो उनसे पहला प्रश्न मेरा यही
होगा कि क्या बिना सागर बने सागर से कुछ नहीं पूछा जा सकता है
क्या? खैर, उनसे इसका उत्तर जब मिलेगा, तब मिलेगा लेकिन उस समय
तो यह मेरे लिए भी गूढ़ हो गया था, अतः मैंने इस कविता की
चर्चा-परिचर्चा केवल ऊपरी चार लाइनों तक ही सीमित रखी थी।
जटिल संदर्भ को अपने में समोए होते हुए भी इस कविता ने उन्हें
अनपेक्षित प्रतिकूल व्यवहार की स्वाभाविक आमद के कारण बहुत
बाँधा था। यह प्रतिकूल आचरण हर देश और समाज में देखने को मिलता
है। शायद इसीलिए वे अपनी सहज आत्मीयता के साथ इससे जल्दी ही
जुड़ गए थे। यह कविता उनकी अपनी कविता हो गई थी। इस कविता के
भाव साम्य के रूप में उन्होंने भी एक चीनी कविता सुनाई थी।
लेकिन बाद की दो लाइनों को न उन्होंने छेड़ा था और न मैंने ही।
और, न ही इसे छेड़ना अपनी सेहत के लिए अनुकूल समझा था।
कविता के रसास्वादन के भारतीय रस सिद्धान्त का ब्रह्मानंद
सहोदर यहाँ सिरे से गायब था। लेकिन फिर भी कहीं कुछ न कुछ ऐसा
ज़रूर था जो उन्हें कविता से जोड़े हुए था। उनके चेहरे से झलकती
प्रसन्नता को देखकर मैं उत्साहित था। पहली कविता के पाठ की
थकान से उनका ब्रह्मानंद भले सुप्त अवस्था में रहा हो पर मेरा
ज़रूर जाग गया था। लगे हाथ मैंने स्वरचित कविता-'मेरी हिंदी
मौसी' भी आधुनिक तकनीक से सीधे स्क्रीन पर बोल्ड अक्षरों में
प्रस्तुत कर दी। इस कविता की मौसी उन्हें तकलीफ़ देह लगी।
उन्हें मौसी को माँ की बहिन कहकर समझाना पड़ा।
इस मौसी को समझाते समय मुझे यह समझने में समय लगा कि ऐसा क्यों
है कि मेरे अनेक प्रयासों के बाद भी पचास प्रतिशत विद्यार्थी
मौसी शब्द से परिचित नहीं हो पा रहे हैं। उसका कारण चीन का
क़ानून भी हो सकता है, यह बात मेरे गले तब उतरी जब मैंने उनकी
उम्र पर गौर फरमाया। सन उन्नीस सौ उन्नासी से यहाँ एक संतान का
क़ानून लागू है। इनकी माओं की पैदाइश का कालखंड उसी के चार-पाँच
साल पहले यानी चौहत्तर-पचहत्तर का रहा होगा। इसलिए वे अकेली रह
गई होंगी। यदि केवल ग्रामीण इलाकों के कुछ एथ्निक ग्रुपों को
दूसरी संतान की छूट न मिली होती तो मौसी, चाचा, भतीजे, भतीजी
और बुआ-फूफा आदि को समझाना और जटिल हो जाता। जब एक ही संतान
होगी तो रिश्तों की इतनी जड़ें कहाँ से और कितनी दूर तक
फैलेंगी? खैर अभी केवल मौसी की समस्या थी ।वह किसी तरह सुलट गई
है क्योंकि इस कक्षा का एक विद्यार्थी सेंजान प्रान्त के एक
गाँव का निकल आया और किसी एथनिक समुदाय का भी। इसलिए उसके एक
मौसी भी है जिसने मेरी ओर से और खोलकर सभी को समझा दिया था।
इसके बाद सब वाव-वाव करके खूब हँसे थे। इस पर मैं भी खूब खुश
हुआ था कि चलो एक तो निकला मौसी वाला, नहीं तो मेरी कविता की
मूल आत्मा ही मूल्यहीन हो जाती।
यहाँ एक संतान के लिए कम से कम छह कमाते हैं।
माता-पिता,दादा-दादी और नाना-नानी. संपत्ति के बँटवारे,
खून-खराबे की मूल जड़ ही यहाँ सिरे से गायब है। इस लिए यहाँ
कहीं खून भी होते नहीं सुना। कितना अच्छा है यहाँ का जीवन। न
विवाद, न खून -खराबा। खून के रिश्ते ही ज़्यादातर खूनी हो उठते
हैं। यह झंझट ही यहाँ नहीं है। जिसने भी यह क़ानून लागू किया वह
राजनीतिज्ञ तो था ही साथ में अर्थशास्त्री भी था और गहराई में
जाएँ तो वह अर्थशास्त्री से बड़ा समाज शास्त्री था।
परीक्षाएँ निकट होने के कारण पाठ्यक्रम पूरा करने के उद्देश्य
से कई दिनों से गद्य पढ़ा रहा था, लेकिन मुझे लगा कि यह भी एक
प्रकार की अकादमिक दादागीरी है, इसलिए कल मैंने अचानक धारा बदल
दी थी। गद्य से कविता पर आ गया था। विधाओं को बदल-बदल कर और
रुचिकर शैली में पठन-पाठन (केवल पढ़ाना कहना उचित नहीं)ही भाषा
के प्रसार का मूल मंत्र है। उसे मैं पकड़ने की कोशिश में रहता
हूँ। पूरे एक घंटे बीस मिनट की इस कक्षा से केवल एक विद्यार्थी
ही बाहर गया। वह भी शुद्ध हिंदी में प्रसाधन शब्द बोलकर बाहर
गया यानी बोर हुआ। आज़ाद नाम के इस विद्यार्थी ने लौटकर अपने
साथी राजेश से कहा ''प्रसाधन 'एक अच्छा बहाना है। "इन्होंने
अपने ये नाम औपचारिकता में नहीं बल्कि हिन्दी से आत्मीयता में
रखे हैं। इसलिए भोलेपन से कहे गए उसके 'प्रसाधन'एक अच्छा बहाना
है' से अपनी असफलता से उपजी किसी खीझ के बजाय मुझे भी आनंद
आया। 'मेरी हिन्दी मौसी' शीर्षक वाली यह कविता इन्हीं की ओर से
लिखी गई है, जिससे कि ये विद्यार्थी हिन्दी से अपनत्त्व
महसूसें। लेकिन इस कविता पाठ के दौरान, राजेश जिसने मौसी का
सही अर्थ समझा था, अचानक यह प्रश्न खडा कर दिया कि, "हिंदी को
मौसी क्यों कहें, माँ क्यों नहीं? "इस प्रश्न से मेरी घिग्घी
बँध गई थी। मेरी साँस थम-सी गई थी। सभी दिशाओं में अक्ल के
घोड़े दौड़ाए तब जाकर एक घोड़ा यह ख़बर ला पाया था कि मातृभाषा के
उदाहरण से इज्ज़त बच सकती है। बड़े शिष्टाचार के साथ मंडारिन को
उनकी मातृभाषा और हिन्दी को पड़ोसी राष्ट्र की भाषा यानी
मंडारिन की बहिन सिद्ध कर अपनी इज्ज़त बचाई।
उस समय बाहर-बाहर से तो तर्क के बल पर उनको और अपने मन को
संतुष्ट कर लिया था पर भीतर से यही आवाज़ आती रही कि हिन्दी के
प्रति इनके प्रेम और समर्पण के आगे तुम्हारे सारे तर्क-कुतर्क,
सारहीन और झूठे हैं। सच बताऊँ तो इनकी यही आत्मीयता भाषा से
होते हुए मुझमें आ मिली है। इनके बीच आते ही मैं भूल जाता हूँ
कि कौन हूँ, कहाँ से हूँ और कहाँ आ गया हूँ। अभी तक मेरी यही
उपलब्धि मुझे आत्म विभोर किए हुए है। |