मन, मधु और
मधुकरी का मादक आतिथ्य
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)
सुनने से
देखना अधिक प्रामाणिक होता है और देखने से अधिक स्वानुभूति।
देखने में प्रायः यह गलती हो जाती है कि हम वह नहीं देख पाते
जो दृश्य में होता है बल्कि वही और उतना ही देख पाते हैं जितना
कि दिखाया जाता है। यह स्थिति अनुभूति में नहीं होती। अनुभूति
की छवि डिजिटल होती है, अतः उसकी स्पष्टता अधिकतर असंदिग्ध
रहती है। यदि चीन न आया होता यहाँ की अनुभूति से वंचित रह बस
आधे-अधूरे सत्य को लिए झूलता-झूमता रहता।
१२ नवम्बर
२०१३ को दुनिया के सर्वाधिक तेज़ी से विकास करने वाले देश चीन
के अत्यंत समृद्ध प्रांत और उसकी आर्थिक और राजनीतिक राजधानी
की धरती पर पग रखने साथ स्वागत से लेकर दोपहर के भोजन तक मैं
लगभग सम्मोहन के स्तर तक भाव-विभोर रहा। एअरपोर्ट से भारी-भरकम
लक्ज़री कार से विश्वविद्यालय ले जाए जाते समय मेरी कार से ठीक
आगे-आगे सरपट भागी जा रही कार में मुझे गोखुरी शिखा रखाए
आचार्य चाणक्य दिखे। मुझे मानसी आभास
में ऐसा लगा कि जैसे वे शायद मुझे रास्ता दिखाने के लिए
ही आए हुए हों और कह रहे हों कि, "तुम मुझसे कितने भग्यशाली
हो! मुझे तो अपने बनाए राजा से और अपने देश में मान मिला।
लेकिन तुम तो यहाँ पराए देश में मान अर्जित कर रहे हो। मगर
हाँ, एक बात मत भूलना कि इसकी नींव मैंने ही डाली है।"
मुझे लेने आई सहायक प्रोफ़ेसर
श्रीमती तान्या केपिंग ने मेरा नामपट्ट न केवल बड़े-बड़े
अक्षरों में बनवा रखा था बल्कि वे उसे पिछले सवा घंटे से अपने
दाएँ हाथ से निरंतर उठाए हुए भी थीं, कि कहीं ज़रा से आराम के
मोह में उनके नवागत मेहमान को तकलीफ़ न उठानी पड़ जाए। दरअसल
हुआ यह था कि विमान के सुबह साढ़े छह बजे लैंड करने की पुख्ता
ख़बर श्रीमती तान्या जी के पास थी। इसीलिए ठीक समय पर वे वहाँ
मौज़ूद थीं। परन्तु मुझे एअरपोर्ट से बाहर निकलते-निकलते साढ़े
सात से ऊपर हो चुका था। इस देरी का कारण मुझसे ज़्यादा मेरे
बैग में रखे मसाले थे। वे खुशबू फेंकते हुए आ रहे थे और मैं
फेना। मैं जगह-जगह हाथ के इशारों से किनारे लगवा लिया जाता। इस
तरह हर चाहे-अनचाहे पड़ाव पर बैग को खुलवाता, जँचवाता,
सुंघवाता बंद करता हुआ आरहा था। वैसे तो दो-एक बार की जाँच के
बाद उसे पूरा मैंने कभी बंद ही नहीं किया था। इस पूरी
प्रक्रिया से मैं इस दुविधा में पड़ गया था कि आखिर असली
समस्या की जड़ है कौन, ये मसाले या नाक?
मेरे आगे-आगे निकले हुए कुछ फुर्त लोग घुमंतू पट्टिका से
अपने-अपने झोले या सूटकेस फटाफट उठा कर रफूचक्कर हो रहे थे और
मैं हाथ पर हाथ धरे पूरे पंद्रह मिनट तो वहीं पट्टिका के पास
खड़ा रहा था। शायद उस पट्टिका ने भी उसे सूँघने-साँघने में कुछ
समय लिया हो। मुख्यद्वार से गुजरने वाली हज़ारों की भीड़ में
से एक अनजाने को छाँटना कितना दुष्कर होता है, यह वही जान सकता
है, जिसने किसी प्लेटफार्म पर किसी अनजाने को खोजा हो। इसके
पहले कई बार मैंने जनों को खोजा था। उन खोजों में ज़्यादातर
जान पर बन आई थी फिर भी अंततः सफल हुआ था और, 'अंत भला सो सब
भला' की कहावत के साथ हर बार खुशी-खुशी घर पहुँचते रहे थे।
लेकिन यहाँ मामला हर तरफ़ से उलटा था। एक तो दूसरा देश, दूसरे
अनजाने से सामना। तान्या जी को कैसे पहचानेंगे की चिंता मारे
डाल रही थी। सोच रहा था कि फेसबुक पर खोज लिया होता तो अच्छा
रहता। लेकिन यह भी एक मुगालता ही होता क्योंकि यहाँ फेसबुक
प्रतिबंधित है। कोढ़ में खाज यह कि ठीक इसी यात्रा के कालखंड
के बीचों-बीच मेरे मोबाइल देव निष्प्राण हो गए थे। यह भी कम
मुसीबत का कारण न था। फिर भी हम हिम्मत नहीं हारे हुए थे।
अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद और रसद रहित सिपाही की तरह अपने
मोर्चे की ओर बढ़ते चले जा रहे थे। मिलने की किसी भी संभावना
के न होने के बावज़ूद अचानक हम एक-दूसरे से मिल गए। इस भेंट
में उस नामपट्ट ने ही अग्रणी भूमिका निभाई थी।
सवा घंटे से
भी ज्यदा समय से नामपट्ट ऊपर उठाए रखने के बावज़ूद मिलने पर
चेहरे से किसी भी प्रकार की खिन्नता नहीं झलकी। करीब दो हफ्ते
बाद पता चला कि उन्होंने अपनी एक साल की बच्ची को वह भी
अस्वस्थ अवस्था में अपनी माँ के पास छोड़कर मेहमाननवाज़ी में
लगभग पूरा दिन बिना किसी पीड़ा और संकोच के अर्पित कर दिया था।
विमान पत्तन से विश्वविद्यालय जाते समय चौड़ी-चौड़ी सड़कों,
सड़कों के किनारे-किनारे लगे बरगद, पीपल और अनेक अनजाने-से
सुन्दर-सुन्दर वृक्ष मन मोह रहे थे। बीच-बीच में पड़ने वाले
ओवर ब्रिजों और उनके दोनों किनारों पर पसरी और फूलों से लदी
सुंदर-सुंदर रूप-गर्विता लताएँ दृष्टि को बाँधे ले रही थीं। मन
भी बार-बार इनमें ही उलझ-पुलझ कर रह-रह जा रहा था और कार थी कि
बस हमारी आँखों और मन दोनों को निर्दय भाव से घसीटे लिए चली जा
रही थी। सुबह-सुबह ओवरब्रिजों से नीचे लटक-लटक कर झूलती-झूमती
इन अलसाई क्वाँरी लताओं और उनपर खिले हुए फूलों को देखकर ऐसा
लग रहा था कि मानों मेरे स्वागत में जगह-जगह बन्दनवार सजाकर और
कमल-मृणाल-से अपने लम्बे-लम्बे सुकोमल हाथों से (श्रीमती
तान्या के साथ-साथ स्वयं भी) पुष्पगुच्छ भेंट करने के लिए सीधे
आगे बढ़ी चली आ रही हों।
विश्वविद्यालय परिसर में मेरे आगमन से पहले से ही मेरे नाम से
आवंटित आवास में पहुँच कर बहुत अच्छा लगा। लगभग तीन सितारी
सुविधाओं वाले पूर्णतः सुसज्जित और सुव्यवस्थित इस ३ बी एच के
आवास में कुछ पलों का विश्राम भी अत्यंत सुखदायी रहा। यहाँ
चाय-कॉफी और नाश्ते का सुन्दर प्रबंध श्रीमती तान्या जी ने
किया था। इस अल्पाहार और अल्प विश्राम के बाद वे मुझे विदेशी
विशेषज्ञों की सुविधाओं का विशेष ध्यान रखने के लिए अलग से
स्थापित अंतर्राष्ट्रीय कार्यालय ले गईं, जहाँ मेरा शुद्ध
परंपरागत चीनी और विदेशी दोनों तरीकों से स्वागत हुआ।
मिष्ठान्न के रूप में बिस्कुट और वस्तु के रूप में कीमती
क्राकरी की भेंट से ह्रदय पुलकित हुआ। इतना ही नहीं बिना माँगे
तीन हज़ार युआन जिन्हें आरएमबी भी कहा जाता है, कार्यालय से
उधार मिले ताकि डालर तुड़ाने के लिए तत्काल इधर-उधर न
भागना पड़े। यहाँ ऐसा सम्मान पाकर मेरे साथ, 'बिन माँगे
मोती मिले' वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी।
पहले ही दिन दोपहर को मेरे सम्मान में भोज दिया गया। यहाँ मेरी
मेज़ पर ठीक सामने श्रीमती तान्या केपिंग,उनके पति श्री हूरे
बगल में ४५ अंश का कोण बनाते हुए सामने वाली ही एक कुर्सी पर
श्रीमान वांग साहब आदि विराजमान थे। एक ऊर्जावान मिलनसार युवा
दंपति और उनके साथ एक बज़ुर्ग के सहयोग व मार्गदर्शन मिलने के
आसार यहीं से दिखने लगे थे। मुझे विशुद्ध शाकाहारी जानकर केवल
चावल और साग-भाजियों का ही आर्डर दिया गया था। अपने दादाजी और
हिन्दी नाटक व फिल्म जगत के मशहूर अभिनेता टॉम आल्टर की
सम्मिलित छवि दिखने से पहली मुलाक़ात में ही बीजिंग
विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के आचार्य रहे श्री वांग साहब
मुझे नितांत अपने से लगे। लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय
प्रशासन अकादमी में रहते हुए वहाँ के संभवतः आई॰ ए॰ एस॰
द्वितीय चरण के प्रशिक्षु अधिकारियों को टॉम आल्टर साहब ने दो
नाटक तैयार करवाए थे। ये दोनों प्रेमचंद की 'कफ़न' और 'बड़े
भाई साहब' कहानियों पर आधारित थे। इन दोनों कहानियों के नाट्य
रूपांतरण और निर्देशन में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका ने नाटकों
को न केवल क्लैसिकल बनाया था बल्कि प्रोफेशनल दक्षता से
दर्शकों को अभिभूत भी कर दिया था। एक नाटक में तो वे स्वयं
सूत्रधार की भूमिका में उतरे थे। लोग उनके लहजे के कायल हो-हो
कर अपनी-अपनी जगह से उठ-उठकर तालियाँ बजा रहे थे। इनमें
प्रशिक्षुओं से लेकर दस-दस साल के अनुभवी और प्रौढ़ साहित्यिक
तथा कलात्मक समझ के धनी आई ए एस, आई पीएस, आई एफ एस और आई आर
एस आदि ३५ से भी अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारी थे। इससे
भी टॉम आल्टर साहब की अभिनेयता और उसमें मौज़ूद कलात्मक
गुणवत्ता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। ठीक वैसे ही प्रातिभ
से संपन्न वांगसाहब का सानिध्य पाकर आज वैसे ही
मेरा मन-सुमन प्रसन्न था जैसे कभी मसूरी में किसी सांस्कृतिक
आयोजन या भोज में टॉम आल्टर साहब, रस्किन बांड या गणेश शेली
(सुप्रसिद्ध चित्रकार) को अचानक सामने पाकर हो उठता था।
अंग्रेज़ों जैसे खूब गोरे-चिट्टे और सहज रोब वाले गर्वीले
व्यक्तित्त्व और और गजब की वक्तृत्त्व शैली में वही बेबाकी।
वही कसाव और कशिश भी वही। वैयाकरणों-सी उच्चारण शुद्धता। इन
सबके ठीक बीचों-बीच से जगह बनाते हुए वही ऑल्टर साहब (मसूरी के
किसी खास आयोजन में ईद के चाँद-से दिख जाने वाले) रुक-रुक कर
झाँकते हुए दिख जा रहे थे। वहाँ, जहाँ स्वदेश में इतने बड़े
कलाकार में कोई गरब-गुमान नहीं, वही यहाँ के इस फक्कड़ में भी।
बीजिंग विश्वविद्यालय की अंग्रेज़ी की प्रोफेसरी हो या
अंतर्राष्ट्रीय आकाशवाणी केंद्र बीजिंग की हिन्दी सेवा। वांग
साहब को कोई बाँधकर नहीं रख सका। जहाँ गए बुद्ध का बोधि वृक्ष
वहीं गाड़ लिया।
आर्डर के ३५-४० मिनट के बीच लम्बी-चौड़ी, छोटी-नुकीली और न
जाने कितनी (तरह-तरह की) पत्तियों वाली ढेर सारी साग सब्जियाँ,
जिनमें कुछ पातगोभी, फूलगोभी, बैंगन, लोबिया और ककड़ी जैसी
हमारी जानी-पहचानी सब्जियाँ भी थीं। ये बड़े नाज़-नखरों के साथ
हमारे सामने मेज़ पर सज गई थीं। चीनी मिट्टी के एक-एक खूबसूरत
बाउल में सबके लिए अलग-अलग चावल भी और साथ में चॉपस्टिक भी। यह
सब देखकर चीन घूमकर भारत वापस लौटे जान बुझक्कड़ों की मदद से
चीन के भोजन के बारे में भारत से ढोकर लाए गए मेरे विचार कि अब
कोई आएगा और साँप, केचुए, छिपकली या केकड़े को दिखाकर पूछेगा
कि किसकी सब्जी बनाएँ, रेत के महल की तरह भरभराकर ढह गए। मैं
पहले तो एक-दो मिनट इन सभी को चॉपस्टिक से चावल खाते हुए अचरज
भरी नज़रों से देखता रहा फिर सारस और लोमड़ी की दावतों पर सर
मारता रहा। लेकिन यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं था। यहाँ सभी नीचे को
सर झुकाकर ही ऐसे खाना खाते हैं जैसे कि अपने अन्न देवता को
नतमस्तक। अचानक तीनों सर उठे और सबने एक साथ अपने-अपने
चॉपस्टिक मेज़ पर रखी ट्रे में रख दिए। तीन के तीनों ने नाना
रीतियों से मुझे चॉपस्टिक से खाना सिखाया। आखिर में मुझे बहुत
अधिक सफलता न पाते देख, उन्होंने चीनी मिट्टी के दो चम्मच
मंगवा कर दिए जो मेरे लिए बहुत मददगार साबित हुए ।
वांग साहब ने बड़े मोहक अंदाज़ में मधु का मधुर आमंत्रण दिया।
उनके गोरी या सुर्ख अंगूरी दोनों मधुओं (वाइन) के सरस प्रस्ताव
को बड़ी नम्रता से मना किया तो उन्होंने बताया कि उनके यहाँ
यानी चीन में बिना वाइन के मेहमान का स्वागत अधूरा माना जाता
है। यह वाक्य कहते-कहते उन्होंने यव रस (बीयर) का प्रस्ताव भी
विकल्प में रख दिया जो मेरे मान और मेहमान दोनों रूपों के लिए
सुकर था। गनीमत यह थी कि उस समय मेरे साथ मेरी धर्पत्नी नहीं
थीं वरना मेरा और उनका (दोनों का) एक साथ धर्मभ्रष्ट होना
सुनिश्चित था। मेरा मीट-मच्छी वाले होटल में बैठ कर खाने-पीने
से और उनका वहाँ बैठकर यह तरा-तमासा (सबको यह सब खाते -पीते)
देखते हुए। केरल और तमिलनाडु की १०-१२ दिनों की पूरी यात्रा
में इन्होंने केले और केले के चिप्स खाकर संपन्न कर ली थी।
तबसे वो आज भी जहाँ केले के चिप्स देखती है, धैर्य नहीं रख
पाती है।
मेरी वज़ह से उनका हजारों बार धर्म भ्रष्ट हुआ है। कभी मधुपान
से तो कभी उनके अनुसार अपने बर्तनों में न खा सकने वालों को
खिलाने (अपने बर्तनों में) से। पिछले पैंतीस सालों से हमारी और
उनकी धर्म और अधर्म की लड़ाई वाला यह महाभारत बराबर चल रहा है।
इस दौरान कौरव-पांडव की तरह ही हम दोनों एक दूसरे को दोषी
ठहराते रहे हैं। लेकिन अपने साथ सबसे बड़ी अच्छाई यह है कि
जहाँ वे दोनों एक-दूसरे की जान लेने पर तुले थे, हम दोनों एक
दूसरे के लिए जान देने पर तुले हैं।
वांग साहब और मुझमें एक और बड़ी समानता है। उनका भी कोई मानव
निर्मित धर्म नहीं है और मेरा भी। दोनों के ऐसे ही अपने-अपने
प्राकृतिक धर्म हैं जैसे सूर्य का प्रकाश देना और आग का ऊर्जा
देना। समय की माँग के अनुसार वांग साहब प्राकृतिक धर्म में भी
थोड़ा-बहुत संशोधन कर लेते हैं। आग के पकाने और तपाकर कुंदन
बनाने वाले गुण-धर्म को तो मैं स्वीकारता हूँ लेकिन उसके जलाने
वाले गुण को धर्म नहीं मानता और शायद वे भी।
हम दोनों विधर्मी बिल्कुल नहीं हैं। अपने मुक्तिबोध की तरह हम
दोनों की मनुष्य में बराबर आस्था है। उन्होंने एक जगह लिखा है
कि- "बचपन में मेरी माँ कहा करती थी कि बेटा! द्वार पर आए हुए
कभी किसी भिखारी का अपमान मत करना क्योंकि कभी-कभी भिखारी के
भेस में भगवान भी द्वार पर आ जाते हैं। खैर! भगवान् में तो
मेरी आस्था नहीं लेकिन मनुष्य में तो है। "मनुष्यता की इसी डोर
से अब हम दोनों भी बँध ही जाने वाले हैं। ऐसा हमें लगता है।
बिना किसी को देवता बनाए अपने पवित्रतम मानवीय भावों और
विचारों के साथ शुद्ध मन, मधु और मधुकरी का मादक आतिथ्य जहाँ
हो, वहाँ कौन न टिक जाना चाहेगा। |