स्त्री शक्ति भारत और चीन
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)
चीन की
स्त्रियाँ घर और बाजार दोनों सँभाल रही हैं। बड़े-बड़े बाजारों
में बैठीं ये स्त्रियाँ अरबों-खरबों का माल निर्यात कर देश का
विदेशी मुद्रा भंडार भर रही हैं। जहाँ भी निकलता हूँ बाजारें
स्त्रियों के हाथ में दिखती हैं। खाना बनाने और बच्चे पालने का
दायित्त्व केवल स्त्री पर नहीं है। दोनों जैसे बराबर के
हिस्सेदार बनकर बच्चे को जन्म देते हैं वैसे बराबर की
जिम्मेदारी के साथ पालते भी हैं। खाना घर से अधिक बाजारों में
बनता है। हर सुबह, दोपहर और शाम को स्त्री हों या पुरुष
जिन्हें देखो थर्मोकोल के बाक्सों में नाश्ते से लेकर लंच और
डिनर पैक कराए घर की ओर आते देखे जा सकते हैं।
यहाँ की स्त्रियाँ जीवन का आनंद उठा रही हैं और अपनी स्त्रियाँ
अभी भी गोबर, करकट, खेती-किसानी से लेकर चक्की-चूल्हे में ही
लगी हैं। ऊपर से पुरुषों से कुट रही हैं। यहाँ की बाजारों की
ज्यादातर दुकानों में देखा है कि कमर में मनी बैग लटकाए, चुटकी
बजाते हिसाब-किताब करतीं स्त्रियाँ प्रायः मालकिन की भूमिका
में रहती हैं और पुरुष सहायक की। बहुत सारी दुकानों में तो एक
भी पुरुष नहीं दिखते। स्त्री की यह आर्थिक स्वाधीनता मेरी
आँखों को शीतलता देती है। यहाँ बच्चों के अधिकारों का कोई हनन
नहीं कर सकता। विशेष रूप से लड़कियों के प्रति मानवाधिकारों का
सचेष्ट ध्यान रखा जाता है। अपने यहाँ और चीन की लड़कियों के
अधिकारों की अनुपालना में यही खास अंतर है कि जहाँ अपने देश
में बच्चियाँ बचपन से ही दूसरी नागरिक की तरह घर में ही पाली
जाती हैं। यहाँ प्रायः एक संतान के चलते ऐसा कहीं भी नहीं
होता। भले ही कानूनी मजबूरी हो पर यहाँ लड़के की ही तरह लड़की
भी प्रथम दर्जा पाए हुए है।
चीन में स्त्री सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी रूपों में
समृद्ध है। वह पुरुष पर निर्भर नहीं है। पुरुषों से पहले वह
शासक भी है और प्रशासक भी। पुरुष उसका साथी है स्वामी नहीं।
अपने देश में भी जिस दिन स्त्री पर से पुरुष का स्वामित्त्व
हटेगा उसी दिन वह सही अर्थों में आज़ाद होगी। भारत और भारत के
सवर्ण पुरुषों को तो १९४७ में आज़ादी मिल गई थी पर स्त्री और
शूद्र को नहीं। स्त्री और शूद्र तो स्वराज और सुराज दोनों के
सुख से वंचित रहे। आज़ादी के ठीक बाद के दंगों में भी गरीब और
स्त्रियाँ ही सबसे ज्यादा शिकार हुए फिर वे चाहे हिन्दू हों या
मुसलमान। हिन्दुओं में पंडित और ठाकुरों तक दंगे पहुँचने तक
पुलिस और प्रशासन पहुँच जाएगा और मुसलमानों में सैय्यद और शेख
तक पहुँचने के पहले। कहने का अर्थ यह कि चाहे प्राकृतिक आपदा
हो या मानवीय दोनों में ही गरीब और स्त्री समान रूप से और सबसे
पहले कुचले जाते हैं।
चीन में स्त्री अपनी देह और मन दोनों की मालकिन है। उसे किसके
साथ रहना है, कैसे रहना है यह वो स्वयं तय करती है न कि उसके
माता-पिता, भाई या पति।
यहाँ की स्त्रियाँ साइकिल, ठेलिया, बाइक, कार, बस, ट्रक,
ट्रेक्टर, ट्रेन, क्रेन, पानी का जहाज, विमान, युद्धक विमान और
अन्तरिक्ष यान वह सब कुछ चालित और संचालित कर रही हैं जिसका
कोपीराईट पहले पुरुषों के पास हुआ करता था। यहाँ व्यापार से
लेकर किसानी तक पर स्त्रियों का वर्चस्व है। इसे देखकर कहा जा
सकता है कि चीन के तीव्र विकास में पुरुषों की अपेक्षा
स्त्रियों का बड़ा योगदान है। भारत को भी स्त्रियों को यही छूट
देनी होगी तभी हम चीन जैसा विकास कर पाएँगे अन्यथा लकीर पीटते
रह जाएँगे।
भारतीय स्त्रियों की ऊर्जा पूजा-पाठ और भजन -कीर्तन में ज्यादा
जाया हो रही है। हिंदू लडकियाँ किशोर होते ही १६ गुरुवार या
ऐसे ही अन्य अनेक वरदाता व्रत-उपवास रखने लगती हैं। यह शिक्षा
उन्हें घर में ही मिलती है। इसकी जगह उन्हें यह शिक्षा नहीं दी
जाती कि तुम इस योग्य बनो कि घर-वर तुम्हें खोजते हुए तुम्हारे
दर तक आएँ।
चीन की भूमि देव भूमि नहीं है लेकिन यहाँ की स्त्रियाँ देवलोक
की अप्सराओं -सी सर्व सुख भोग रही हैं और भारत भूमि देव भूमि
है लेकिन वहाँ की अधिकांश स्त्रियाँ नारकीय जीवन जीने को विवश
हैं। इन दोनों पड़ोसी देशों की स्त्रियों की समानांतर यात्रा
के बावजूद हज़ारों किलोमीटर लंबी सरहदों जितना अंतर उनकी जीवन
शैली में भी है।
चीन में प्रायः हर गर्भवती स्त्री के लिए एक निश्चित अस्पताल
में बच्चे को सुरक्षित जन्म देने के लिए शैया संरक्षित है।
यहाँ शैय्यायों के हिसाब से मरीज नहीं मरीजों के हिसाब से
शैय्याएँ होती हैं। अतः यहाँ किसी स्त्री को भर्ती होने के
इंतज़ार में बरांडे में ही बच्चे को जन्म देने की मजबूरी नहीं
है। जच्चा-बच्चा दोनों को सुरक्षित रखने में यहाँ के सरकारी
अस्पताल अपने यहाँ के प्राइवेट अस्पतालों से भी अधिक रुचि लेते
हैं। अस्पतालों की साफ़-सफ़ाई और इलाज का इतना पुख्ता इंतज़ाम
कि यहाँ बिना किसी जननी सुरक्षा योजना के जननी और नवजात शिशु
दोनों के दोनों लगभग सौ प्रतिशत सुरक्षित स्थिति में अस्पताल
से बाहर निकलते हैं।
चीन के तेजी से प्रगति करने में स्त्री के शील-सम्मान का बड़ा
हाथ है। बलात्कार या असुरक्षा की खबरें अभी तक सात आठ महीनों
में मुझे सुनने को नहीं मिली हैं जबकि भारत से ऐसे समाचार
नित्य ही आते रहते हैं, जिन्हें सुनकर हिंदी पढ़ने के लिए यहाँ
से भारत जा रही कई लड़कियाँ अपना नाम वापस लेने का मन बना रही
थीं। भारत में रह रहीं चीनी लड़कियों से बात करने के बावजूद वे
पूरी तरह आश्वस्त नहीं हो पा रही थीं। यहाँ की इन लड़कियों ने
बार-बार बल देकर मुझसे पूछा कि, "क्या भारत में स्त्रियाँ
बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं"?
पहली बार तो तत्काल मेरे पास बगलें झाँकने के अलावा कोई चारा
ही नहीं था। कुछ समय बाद लंबी साँस के साथ स्वर फूटा कि ऐसा
कुछ भी नहीं है। यह सब मीडिया का अतिशयोक्ति पूर्ण प्रचार है।
इस तरह पिंड तो छुड़ा लिया लेकिन उस रात वह झूठ बोलकर मैं सो न
पाया। रात भर मेरी आत्मा मुझे चिढ़ाती रही कि, 'यह तो मरा मुँह
जियाने वाली बात थी।' यही मरा मुँह जियाते-जियाते अंततः उन्हें
भारतीय संस्कृति की झूठी दुहाइयाँ दे-देकर तैयार कर ही लिया।
अब वे सात की संख्या में केंद्रीय हिंदी संस्थान दिल्ली हिंदी
की उच्च शिक्षा के लिए जा तो रही हैं पर अपनी सुरक्षा को लेकर
सशंकित अवश्य हैं। केवल शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं हमारे
देश के पर्यटन उद्योग को भी अविश्वसनीयता की जितनी चारित्रिक
क्षति आतंकी घटनाओं ने नहीं पहुँचाई होगी उससे कहीं ज्यादा
बलात्कार की घटनाओं ने पहुँचाई है।
भारत को समझना चाहिये कि केवल लैपटॉप बाँटने से स्त्री प्रगति
नहीं कर जाएगी। उसे घर में भी बराबर मान देना होगा। उसे बाहर
निकलने के साथ संपत्ति में वास्तविक हिस्सा देना होगा। उसे
बच्चे जनने या न जनने का अधिकार देना होगा। स्त्री के शरीर पर
पुरुष की यह जमींदारी आख़िर और कब तक चलेगी?
बेटी और नातिनों की स्मृति फिर सघन हो रही है। उन अबोध
बच्चियों के भविष्य को लेकर मेरी पत्नी बहुत चिंतित है लेकिन
मैं नहीं। उसे विश्वास नहीं है कि नातिनों के ब्याह तक हम लोग
जीवित रहेंगे पर मुझे है। न जाने क्यों लोग बेटियों के केवल
ब्याह की चिंता करते हैं उनके समूचे जीवन की नहीं। पत्नी को
केवल अपनी नातिनों की चिंता है। मुझे समूची स्त्री जाति की है
लेकिन इस अटूट विश्वास के साथ कि अतीत से लेकर वर्तमान तक
स्त्री बहुत आँसू बहा चुकी है। अब आँखों में पानी के बजाय खून
उतरने वाला है। मुझे पता है कि इससे अब भविष्य की स्त्री और
उसके भविष्य को क्रूर काल भी आँख नहीं दिखा सकेगा। मुझे यह भी
विश्वास है कि यदि अतीत और वर्तमान पुरुष का रहा है तो भविष्य
निश्चय ही स्त्री का होगा।
भारत को छोड़ा लेकिन वह छूटा कहाँ? बच्चे की तरह कमर में
बाँहें डाले अब भी झूल रहा है। चीन की हरीतिमा पर भारत का
बियाबाँ भी भारी लग रहा है। न जाने कौन-सा आकर्षण होता है अपनी
मातृभूमि में कि विदेशी भूमि पर पाँव रखते ही अपने देश की सब
तकलीफ़ें, आशंकाएँ और दुविधाएँ सुविधाएँ लगने लगती हैं।
सज्जनों-दुर्जनों, मतलबियों और लोभियों के बीच धक्के खाकर भी
भारत में आठ दिन आठ मिनट की तरह बीत गए। यहाँ स्थिति उसके
विपरीत है। इतने दिनों से यहाँ रह रहा हूँ और वहाँ की तुलना
में बहुत अच्छे वेतन के साथ-साथ कई गुना अधिक सुविधाएँ भी हैं
किंतु इतना सब कुछ होते हुए भी चीन के आठ मिनट तक आठ दिन नहीं
तो आठ घंटे जरूर लगते हैं। अब समझ में आया कि सोने की लंका को
अपने पास रखने के लक्ष्मण के आग्रह को राम ने क्यों ठुकराया
था-
"अपि स्वर्णमयी लंका न में लक्ष्मण रोचते
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। " |