जनसंख्या और भाषा नीतियाँ
-डॉ. गुणशेखर (चीन से)
हम अपनी बढ़ती
आबादी को लेकर गंभीर नहीं हैं लेकिन दुनिया हमारे प्रति गंभीर
है। चीन ने दशकों तक अपने देश में एक बच्चे की नीति लागू की।
आज उसका सुखद परिणाम दुनिया के सामने है। अब उसने एक बच्चे की
नीति में ढील दे दी है। जो दो बच्चे कर सकते हैं उनसे आवेदन
माँगा गया तो पंद्रह-सोलह करोड़ लोगों मे से केवल चालीस हज़ार
लोगों ने दूसरे बच्चे की इच्छा ज़ाहिर की। इससे प्रकट होता है
कि पहले जनता स्वयं नहीं जागती उसे जगाना पड़ता है। उसके बाद वह
स्वयं जाग्रत होकर सही निर्णय ले पाती है, फिर ये विषय चाहे
सांस्कृतिक जीवन के हों, भाषा के हों या जीविका के।
इधर बहुत दबी ज़बान से हिंदी बोलने का चलन बढ़ा है। इसके पीछे
अंग्रेज़ी है। यह सच सभी को पता है कि हमने अंग्रेज़ी के ही मोह
में हिंदी सहित अपनी सभी भारतीय भाषाओं की अनदेखी की है।
अंग्रेज़ी जैसी नौकरानी को पटरानी और पटरानी हिंदी को दासी बना
दिया है। दस-बीस करोड़ तो हर भाषा को जानने वाले हैं। किसी भी
भाषा की इतनी बड़ी जनसंख्या की अनदेखी भला कैसे की जा सकती है।
इसलिए चाहिए यह था कि भारत में सभी भाषाओं के युवक युवतियों को
अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने की सुविधाएँ दी जातीं। उन्हें उन्हीं
की भाषा में पढ़-लिखकर रोजगार पाने लायक बनाया जाता। यह नहीं
हुआ। इससे सबको हिंदी से खतरा दिखने लगा। असली दुश्मन अंग्रेज़ी
पीछे छूट गई और हिंदी आगे आ खड़ी हुई।
हिंदी के विकास के लिए भी कोई खास योजनाएँ नहीं बनीं। हिंदी
दुनिया में अपने आप तीसरे क्रम पर है। यह तो प्राकृतिक है।
इसमें मानवीय प्रयासों का कोई योगदान नहीं है। हम जनसंख्या में
ज्यादा हो गए इसलिए हिन्दी बोलने वालों की भी संख्या अधिक है।
हम बोलने वालों की संख्या के आधार पर हिंदी के विश्व भाषा होने
का ढोल पीट रहे हैं। इसमें हमारा कोई खास योगदान नहीं है। जिस
जनसंख्या-बल पर हम इतना कूद रहे हैं वही हमारे सरदर्द का कारण
है। हम न तो जनसंख्या नियंत्रण का कोई सही समाधान खोज पाए और न
ही उनकी समस्याओं का।
चीन में एक साथ जनकल्याण की अनेक योजनाओं का संचालन होता है।
ये मुफ्त की सुविधाएँ देने से अधिक लोगों को स्वावलंबी बनाने
में विश्वास करते हैं। इनके यहाँ एक बहुत चर्चित कहावत है,
"भूखे को मछली मत दो मछली पकड़ना सिखाओ।"
यह नीति हर क्षेत्र में लागू है। जो जिस भाषा को सीखना
चाहे उसकी छूट है। जिस विश्वविद्यालय में मैं हूँ उसमें प्रायः
सभी महाद्वीपों की महत्व पूर्ण भाषाएँ पढ़ाई जाती हैं। जिस
परिसर में मैं हूँ अकेले उसी में ५५ से ६० विदेशी भाषा
विशेषज्ञ हैं। बहुत सारे दूसरे परिसर में भी रहते हैं। उनकी
संख्या का पता नहीं है। हर भाषा को पढ़ाने के लिए इनकी अपनी
फैकल्टी भी है। एक विदेशी पर तीन का औसत अवश्य होता है। अपने
यहाँ भाषा का स्कोप केवल शिक्षक बनने तक सीमित है। यहाँ शिक्षक
के साथ-साथ भाषा अनेक रूपों में आय का स्रोत है। कहीं दुभाषिए
के रूप में। कहीं पर्यटक गाइड के रूप में तो कहीं व्यापारिक
प्रतिनिधि के रूप में।
दूसरे ये लोग अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति बहुत सजग हैं। वे
इसके लिए युद्ध स्तर पर कार्य करते हैं। हम न तो अपना भविष्य
देख पा रहे हैं और न अपनी भाषा का। गुआंगडोंग वैदेशिक भाषा
विश्वविद्यालय में जो पचास-साठ विदेशी विशेषज्ञ मुझे मिले
उन्हें उनकी सरकारों ने भाषा के विषय में पर्याप्त सहयोग किया
है। एक सज्जन जर्मन और चीनी भाषा का कोश तैयार कर रहे थे।
उन्हें उनके देश की सरकार इसलिए भरपूर सहयोग दे रही थी कि वे
'जर्मन' का प्रसार कर रहे थे और चीनी सरकार इसलिए मदद कर रही
थी कि उन्हें एक द्विभाषी शब्दकोश की उपलब्धि होने वाली थी। वे
दो बार अपने देश के कोश निर्माण के विशेषज्ञों से मिलने सरकारी
खर्चे पर गए। यह इसलिए संभव हो सका कि उन्हें किसी को भी
लंबे-लंबे पत्र नहीं लिखने पड़े। भूखे-प्यासे रहकर अधिकारियों
की परिक्रमा नहीं करनी पड़ी। बिना बताए चीन और जर्मन की सरकारें
जानती हैं कि भाषा पर जो खर्च होता है वह कभी निरर्थक नहीं
जाता। वह अनेक रूपों में और अनेक गुना होकर वापस मिलता है।
इधर मैंने चीनी विद्यार्थियों के लिए 'हिंदी साहित्य का सरल और
संक्षिप्त इतिहास' लिखा। इसमें उन विद्यार्थियों के सहयोग के
लिए उन्हीं की मदद से हिंदी शब्दों के चीनी रूपांतर भी दिए।
इसमें मुझे यह सुख मिला कि इससे चीन के विद्यार्थी बहुत सारे
शब्दों को जिन्हें वे बिना समझे ही निगल लेते थे, अब आसानी से
पचा सकेंगे। उन्हें निगलना नहीं पड़ेगा। लेकिन ऐसे कार्य हिंदी
भाषियों को खुद के जोखिम पर करने पड़ते हैं। अगर प्रकाशित कराना
हो तो मुश्किल होगी क्योंकि इसकी इतनी प्रतियाँ तो बिकने से
रहीं। यह तो भला हो इस विश्वविद्यालय का कि उसने प्रकाशित कर
दिया, नहीं तो मुझे उसे सुदामा के तंदुल की तरह काँख में
दबाए-दबाए दिल्ली के प्रकाशक रूपी कृष्णों के चक्कर लगाने
पड़ते।
अपने देश में मैंने ऐसा कोई विश्वविद्यालय नहीं देखा जहाँ केवल
दुनिया भर की भाषाएँ ही पढ़ाई जाती हों। हम भी यदि कोई ऐसा
विश्व विद्यालय खोलते तो हम दूसरे देशों से कह सकते थे कि तुम
भी हमारी भाषाएँ पढ़ाओ। एक हाथ से ताली नहीं बजती। ऐसा
विश्वविद्यालय हमारे विद्यार्थियों के लिए रोजगार देने वाला भी
सिद्ध होता। आज चीन हर देश को अपने प्रतिनिधि भेजने के पहले
उन्हें उनकी भाषा में प्रशिक्षित करता है और हम हैं केवल
अंग्रेज़ी की लकीर पीटे चले जा रहे हैं। यहाँ न्यायालयों से
लेकर प्रायः हर दफ्तर में चीनी भाषा में ही प्रार्थनापत्र
स्वीकार किए जाते हैं। इसलिए किसी दूसरी भाषा के प्रपत्रों का
अनुवाद अनिवार्य है। अंग्रेज़ी से चीनी में अनुवाद का प्रति
पृष्ठ पचास युआन यानी पाँच सौ रुपए लेते हैं। इस तरह यहाँ अपनी
भाषा को सम्मान तो मिलता ही है साथ ही युवकों को रोजगार भी।
यहाँ बीए के विद्यार्थी चाहे जिस भाषा को पढ़ते हैं उससे कमाई
करने लग जाते हैं। हमारे यहाँ भाषा को केवल साहित्य तक सीमित
करके रख दिया गया है।
भाषा को उपयोगी भी बनाना होगा। उसे अर्थ से भी जोड़ना होगा।
पिछले दिनों हिन्दी सीखने को लेकर यहाँ के विद्यार्थियों से
उनकी राय माँगी। उनसे पूछा था कि वे हिंदी किस उद्देश्य से सीख
रहे हैं? उनकी दृष्टि से हिंदी और हिंदी पढ़-लिखकर खुद उनका
भविष्य उन्हें कैसा दिख रहा है? उनमें से प्रायः सबने बेबाक
राय लिखी। यहाँ के प्रायः सभी विद्यार्थी अपने लक्ष्य के प्रति
स्पष्ट और उसके लिए किए जा रहे अपने प्रयासों से आश्वस्त रहते
हैं। किसी ने मौखिक तो किसी ने लिखित रूप में अपने विचार मुझ
तक पहुँचाए। एक छात्रा जिसने अपना हिन्दी नाम रूपा रख रखा है,
उसने भी अपने हिंदी सीखने के विषय में अपनी राय मुझे मेल की,
उसे मैं ज्यों का त्यों दे रहा हूँ। इससे हिंदी के विषय में
विदेशियों की राय से भी अवगत हुआ जा सकेगा-
मेरा नमस्कार!
पिछले शुक्रवार को हमने क्लास में हिंदी सीखने वालों के भविष्य
के बारे में बातचीत की। मेरे ख्याल से तो यही सही है कि चीन और
भारत के बीच व्यापार के लिए हिंदी आवश्यक नहीं है। कारण यह है
कि भारतीय व्यापारी खुद अंग्रेजी जानते हैं ताकि वे हमसे
व्यापार करने के समय में अंग्रेजी में बातचीत कर सकें। अत:
भारतीय इंसान से व्यापार करने के लिए अंग्रेजी की आवश्यकता है
पर यह केवल दोनों देशों के लेन-देन का एक पहलू है। इसके
अतिरिक्त दोनों देशों की राजनीति सभ्यता- संस्कृति के संबंध के
लिए सिर्फ अंग्रेजी से काम नहीं चल पाएगा, उसके लिए हिंदी की
ज़रूरत है।
आज भारत और चीन को अपने आप उभरने का मौका मिला है और अच्छी तरह
से विश्व के मंच पर अपनी बड़ी पहचान बनाने के लिए दोनों को एक
दूसरे का सहयोग आवश्यक होगा। अभी ज्यादा से ज्यादा चीनी
कंपनियाँ भारत जाकर व्यापार कर रही हैं और भी कंपनियाँ खुलनी
हैं। जैसे vivo या oppo मोइबाइल कंपनियाँ। इस प्रकार की
कंपनियों को शिक्षित-प्रशिक्षित व्यक्ति ज़रूर चाहियें। फिर भी
अगर वे लोग काम करने के लिए भारत जाएँ तो वहाँ रहते हुए बिना
हिंदी जाने व्यक्ति का जीवन दूभर और नुकसानदायक होगा, क्योंकि
आम जीवन में तो हिंदी का प्रयोग ही काफी है। दूसरे देशों के
हिंदी सीखने वालों को सबसे पहला ध्यान यह रखना होगा कि भारत की
संस्कृति धर्म को प्रमुखता देती है। खासकर भारत की संस्कृति
कर्म पर विश्वास करती है। बहुत प्रकारों की संस्कृतियाँ,
उदाहरण के लिए, कविता, कला, वास्तुकला, साहित्य भी प्रायः
धर्मों से संबंध रखते हैं। इसके अतिरिक्त, कविता भारत की जनता
के मन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भारत की कविता पढ़कर
हमें भारत के इतिहास और उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति को
समझने में सुविधा रहती है।
मैं जानती हूँ कि भारत के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में
भी अनेक भारतीय चीनी सीख रहे हैं तो वे लोग क्यों हमारी भाषा
सीखते हैं, हालाँकि वे लोग खुद अंग्रजी बोलते हैं, क्योंकि
चीनी सीखकर चीनी लोगों से स्वयं बातचीत करने का उन्हें अवसर
मिलेगा। चीनी सीखने वाले भारतीय और हिंदी सीखने वाले चीनी के
मामले में दोनों देशों की सहमति होती है। जैसे-जैसे भारतीय
चीनी सीखते रहेंगे, वैसे-वैसे हम हिंदी सीखते रहेंगे। आखिर मैं
भारतीय संस्कृति को पसंद करने वाली हूँ और उसके बारे में अधिक
जानने का मन है। किताबें अंग्रेजी में लिखी जाने के अलावा,
हिंदी में भी बहुत लिखी गयीं अतएव किताबें बढ़ने के लिए हिंदी
आवश्यक है, फिर भी विभिन्नताओं के समूह के साथ का भारत मेरे
लिए रहस्य है। मेरी नजर उस पर खिंचती है। यदि मैं हिंदी नहीं
जानती, तो मैं उसे जानने में कुछ हासिल नहीं कर पाऊँगी। शायद
हिंदी का भविष्य बहुत उज्ज्वल नहीं हो तो भी हिंदी सीखने वालों
को अपने ऊपर विश्वास ज़रूर होना चाहिए।
आपकी रूपा
ऊपर के पत्र में रूपा ने कड़वी सच्चाई लिखी है कि हमारे भारतीय
व्यापारी अंग्रेज़ी में ही बात करना पसंद करते हैं। उसने स्पष्ट
लिखा है कि "आज भारत और चीन को अपने आप उभरने का मौका मिला है।
"हमें इस अवसर का दोहन करना चाहिए। हिंदी के साथ अपनी संस्कृति
को दुनिया के सामने रखने का सुनहरा मौका मिला है लेकिन हम कहीं
चूक रहे हैं। क्या हम इसका लाभ उठा पाने की स्थिति में हैं?
सरकारी स्तर पर नहीं, जनजीवन के स्तर पर। इसीलिए रूपा को हिंदी
सीखकर भी उसमें अपना भविष्य नहीं दिख रहा है। हिंदी में अर्थ
का अभाव है। इस अभाव को उसने भाँप लिया है। यहाँ तक कि उसे
व्यापार में भी कोई भविष्य नहीं दिख रहा है।
यही वजह है कि उसने 'देवों के देव महादेव' की पटकथा का चीनी
रूपान्तरण करना शुरू कर दिया है। घंटों मुझसे इन एपीसोडों की
भाषा पर चर्चा करती है। एक-एक सूत्र को पकड़ती है। सहयोग में
मेरा नाम भी बड़े आदर से सम्मिलित किया है। करीब छह सौ एपीसोड़ों
का चीनी में अनुवाद कर चुकी है। यानी उसने आय का विकल्प खोज
लिया है। क्या अपने यहाँ रूपा जैसा समर्पण किसी में हिंदी के
प्रति है? शायद नहीं है। न भाषा के प्रति और न अपने खुद जीवन
के प्रति। यहाँ रूपा का उदाहरण देने का मेरा मकसद यही था कि
क्या हम हिंदी को वैश्विक बनाने का कोई उपक्रम कर रहे हैं।
रूपा कुछ नहीं कर पा रही है तो 'देवों के देव महादेव' का हिंदी
में रूपांतर ही कर रही है। मात्र बी ए की छात्रा है वह।
ग्वाङ्ग्ज़ाऊ में एक 'कैंटोन फेयर' लगता है उसमें यहाँ के
उत्पादों की प्रदर्शनी लगती है। दुनिया भर के व्यापारी आते
हैं। वहाँ हमारे विश्वविद्यालय से हर भाषा के दसियों दुभाषिए
जाते हैं। उन्हें अच्छी-खासी आमदनी भी हो जाती है। लेकिन इस
वर्ष (वह भी पहली बार) हिंदी से केवल एक छात्रा ही जा सकी
क्योंकि अधिकांश भारतीय व्यापारी अंग्रेज़ी में ही बातचीत करना
पसंद करते हैं। इस मेले में भारत से कई हज़ार व्यापारी आते हैं।
अगर वे हिंदी को प्राथमिकता दें तो अपनी भाषा को कितना बढ़ावा
मिलेगा। उन्हें केवल हिंदी बोलनी भर है। उसे बोलने वालों को
सुनकर उन्हें शाबासी भर देनी है, इसके लिए कोई अलग से भुगतान
नहीं करना है। केवल इसी से यहाँ के व्यापारी हिंदी जानने वाले
चीनी विद्यार्थियों को रोजगार देंगे। हममें अपनी भाषा और
संस्कृति के प्रति शाब्दिक लगाव तो खूब है पर वास्तविक नहीं।
अपनी भाषा को सुनकर शाबासी देने जैसी छोटी-सी बात दुनिया भर के
व्यापारियों की समझ में तो आ गई लेकिन हम और हमारे व्यापारी
बंधु अभी तक नहीं समझ सके हैं।
चीन में हिंदी सिखाते हुए मुझे लगा कि हिंदी केवल हमारी भाषिक
पहचान भर नहीं है। हिंदी हमारे संपर्क की भाषा भर नहीं है
बल्कि यह भारतीयों की सांस्कृतिक धरोहर भी है। हमारी
सांस्कृतिक पहचान भी है। इसमें हमारे हज़ार से भी अधिक सालों से
हमारे पुरखों की जुटाई हुई साहित्यिक, सांस्कृतिक और कलात्मक
अमानत भी है। इसमें संस्कृत तथा पालि, प्राकृत और अपभ्रंशों का
भी खजाना मिला हुआ है।
चीन ने अपनी भाषा को सर्वोपरि रखा है। उसने भाषा को केवल
किताबों तक बाँध करके नहीं रखा है। उसने उसे निर्बंध बहने दिया
है। एक नदी की तरह। एक झरने की तरह झरने दिया है उसे। यहाँ
चीनी में बात करना गौरव का विषय है। एक दूसरे से अपनी भाषा में
बोलना-बतलाना दुख-दर्द बाँटना अच्छा लगता है। भाषा यहाँ जीवन
में है और शब्द-शब्द साँस की तरह संचरित है। अपने यहाँ भी कभी
यही भाषिक संस्कृति थी। अब तो हम यही भूलते जा रहे हैं कि भाषा
मनुष्य के आदान-प्रदान का एक महत्वपूर्ण साधन ही नहीं संस्कृति
की अभिव्यक्ति का अहम माध्यम भी है। संस्कृति के प्रसार में
भाषा एक आवश्यक भूमिका निभाती है। भाषा और संस्कृति के
बीच अटूट संबंध है।
मैं सहमत हूँ कि भारत विविधताओं का देश है और ये विविधताएँ ही
भारत का सौंदर्य हैं। सभी को मालूम है कि भौगोलिक, ऐतिहासिक और
राजनीति कारण से भारत एक विशाल विविधताओं का देश है। विविधताओं
में भौगोलिक से लेकर धर्म, संस्कृति, वर्ण और जातियों की
मानवीय विविधताएँ हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है भाषाओं की
विविधता। लेकिन एक बात जो सबसे महत्त्वपूर्ण है,वह ये है कि
जैसे प्राचीन काल में व्यापक संदर्भ में केवल संस्कृत ही
संपर्क भाषा रही है, आज हिंदी भी उसी स्थिति में है। हिंदी के
इस वैश्विक स्वरूप को कोई भारतीय भाषा चुनौती नहीं दे सकती और
न दे ही रही है। ऐसे में हिंदी को सर्वव्यापी बनाने के लिए
हिंदी भाषियों को प्राणप्रण से जुट जाना चाहिए।
चीन अपनी जनजीवन की पीड़ाओं का हर रूप में निदान करने की ओर
गंभीर है। उसके यहाँ इतनी बड़ी जनसंख्या है फिर भी कोई श्रमिक
तक फुटपाथ पर सोने को विवश नहीं है। कोई भी भवन बनने के पहले
टीन के टेम्परेरी शेड पड़ते हैं। उनमें से कइयों में एसी भी लगे
देखे हैं। यानी इंजीनियर भी वहीं उनके साथ रहते हैं। पहले
हिंदी बोलने वालों का सम्मान तो हो तब तो उनकी भाषा का सम्मान
होगा। यह देखकर मुझे अच्छा लगा कि चीन अपने श्रमिकों का सम्मान
करता है। उनकी भाषा का सम्मान करता है फिर वह चाहे कैंटोनी हो
या मंडारिन।
जब हम अपना सम्मान खुद करेंगे तभी दूसरे भी करेंगे। चीन अपना
और अपनी भाषा का सम्मान खुद करता है, इसलिए उसकी भाषा सारी
दुनिया के देशों में पढ़ाई जाती है। दुनिया भर के
विश्वविद्यालयों में चीनी भाषा पढ़ाने के लिए होड़ मची हुई है।
उसका कारण है कि इसके केवल चीनी भाषा जानने वाले श्रमिक तक
कुशल हैं। दुनिया भर में इसके श्रमिक जाते हैं और हमारे
इंजीनियर से अधिक पगार उठाते हैं। हमें अंग्रेज़ी के बजाय हिंदी
और अपनी ही भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाना होगा। कौशल के अभाव में
दिनोंदिन 'शर्म शक्ति' में तब्दील होती जाती अपनी 'श्रम शक्ति'
को आत्मसम्मान वापस दिलाना होगा। उन्हें खाड़ी देशों में
भेड़-बकरियाँ चराने भेजने से अच्छा है कि हम उन्हें स्किल्ड
बनाकर न केवल खाड़ी देशों के उन्नत व्यवसायों में, तेल कंपनियों
बल्कि दुनिया के अन्य विकसित देशों में भी भेजें। उन्हें
सम्मानजनक व्यवसाय दिलाएँ। यह कौशल अपनी भाषा में भी दिया जा
सकता है। केवल ज़रूरत है तो इस बात की कि हम अंग्रेज़ी का मोह
छोड़ें। इससे कम पढ़े लिखे या गैर अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे युवक और
युवतियाँ सगर्व नाना कौशलों को सीख सकेंगे। सीना तान कर चल
सकेंगे। अंग्रेज़ी सीखने से नहीं कोई न कोई कौशल सीखने से
देश-विदेश में जाकर कमा-खा सकेंगे। अपने समाज और देश का गौरव
बन सकेंगे।
चीन ने न केवल अपने यहाँ बड़े-बड़े उद्योग स्थापित कर रखे हैं
बल्कि सारी दुनिया को स्किल्ड श्रम शक्ति का तोहफा देकर अपनी
ओर झुकाया है। उनके देशों में भी बड़ी-बड़ी कंपनियाँ स्थापित की
हैं। सारी दुनिया के बाज़ारों को अपने देश में निर्मित सामानों
से पाट दिया है। अपनी जनसंख्या का सदुपयोग किया है। अगर चीन
अपनी भाषा और अपने मानव संसाधन के बल पर आसमान छू रहा है तो हम
क्यों नहीं छू सकते।
हम और हमारी हिंदी का भविष्य हमारी युवा पीढ़ी है। दोनों के
सामने अंग्रेज़ी सबसे बड़ी चुनौती है। अभी किसान ही आत्म हत्याएँ
कर रहे हैं। अब वह समय भी दूर नहीं है जब युवा पीढ़ी हताश हो
जाएगी। इसमें बीसों करोड़ वे युवक भी होंगे जो अपनी भाषा में
प्रवीण तो होंगे लेकिन अंग्रेज़ी ज्ञान के अभाव के कारण अपने ही
देश में पूछे न जाएँगे। जब वही हताश होकर आत्म हत्याएँ करने
लगेंगे तो क्या होगा? चीन की तरह काश हम भी अपने जनजीवन के
बारे में गंभीर होते। उनके भविष्य के बारे में सोचते और उन्हें
भी स्वयं के बारे में सोचने का मौका देते तो हमारा भी जीवन
स्तर ऊपर उठ जाता। जब तक हम अपने मानव संसाधन के बारे में कुछ
नहीं सोचेंगे उनकी भाषाओं और संस्कृति का भी हम कोई कल्याण
नहीं कर पाएँगे। हम जीवन के इस मूल सिद्धान्त को ही भूल बैठे
हैं कि जड़ सींचने से पेड़ हरा होगा, पल्लव और टहनियाँ सींचने से
नहीं। भाषा तो इंसान के बाद में आई है। पहले इंसान के बारे में
सोचें फिर उसकी भाषा और संस्कृति के बारे में। पेट खाली होगा
तो सभ्य और संस्कृत व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत हो जाएगा।
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