होली के अवसर पर
समकालीन कहानियों में
भारत से रामदरश मिश्र की कहानी
विदूषक
जब
भी गाँव जाता हूँ, मन में अपने बचपन के सहपाठियों और मित्रों
से मिलने की एक अजीब बेचैनी भरी होती है। इस जीवन-यात्रा में
कुछ तो नवयौवन के पड़ाव पर ही अभावों से टूटकर गिर पड़े, जैसे
आँधी में टिकोरे। कुछ बाद में टूटे। कुछ बीमारी या
अस्वस्थता की लपेट में आ गए। यानी एक-एक कर न जाने कितने चले
गए और कितनों से तो (जो दूसरे गाँवों के थे) युगों से भेंट ही
नहीं हुई। पता नहीं, कौन क्या कर रहा है, जीवित भी है कि
नहीं। गाँव के भी कई सहपाठियों से जमाने से भेंट नहीं हुई
क्योंकि वे नौकरी के सिलसिले में बाहर रहते हैं। जब मैं गाँव
पहुँचता हूँ तो वे नहीं होते, वे पहुँचते हैं तो मैं नहीं
होता। यही स्थिति मेरे बचपन के बहुत जीवंत दोस्त जोगीराय की
थी। वे रेलवे में काम करते थे और अपने ढँग से गाँव आते-जाते
रहे होंगे। मैं जब भी गाँव पहुँचता उनके बारे में
पूछता - 'आए हैं क्या?' उत्तर 'नहीं' में मिलता।
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