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तटीय कर्नाटक की लोक कला- यक्षगान
-ईश्वर भट्ट
अभी
रात नहीं हुई है। बस सूरज डूब गया है। तारे नहीं निकले
हैं। तभी कहीं से गूँजने लगता है, चण्डे का नाद। सुनकर
लोग तैयार हो जाते हैं। उस रात को वहाँ चलनेवाले
यक्षगान को देखने के लिये। रात के नौ बजते बजते आसपास
के गाँव के लोग वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। हजारों की
भीड़ लग जाती है। एक छोटे से रंगमंच पर विनूतन मायालोक
का निर्माण हो जाता है। देवी देवता और पौराणिक पात्र
लोगों के सामने आकर बोलने लगते हैं।
यह किन्नर लोक सुबह तक जीवंत रहता है। उषा के निकलते
निकलते समाप्त। आए हुए किसी पौराणिक कथा की अनुगूँज
अपने मन में सुनते हुए अपने घर जाते हैं। अपने दिन के
कामों में लग जाते हैं। शाम होते ही फिर प्रतीक्षा
रहती है कि कहीं से उस दिन चण्डे की ध्वनि सुनाई देगी।
हां शाम को ही सुनाई देनेवाली चण्डे की आवाज यक्षगान
प्रदर्शन की पूर्व सूचना, जिसे केड्ली भी कहते हैं।
लोक कला के क्षेत्र में कर्नाटक की श्रीमंत परंपरा है।
लोक साहित्य जिसे जनपद गायत्री कहा जाता है, जनजीवन के
साथ घुलमिल गया है। वह उनके कर्ममय जीवन का अविभाज्य
अंग बन गया है। खेतो में बीज बोते समय, घरों में धान
कूटते समय, अनाज पीसते समय, औरतो के मुँह से लोकगीत की
गंगा बहने लगती है। गायन का आनंद लेते लेते उनका काम
चलता है। ययह उनकी थकान दूर करने का एक माध्यम भी है।
वैसे ही जब काम से निवृत्त हो जाते हैं, साम के समय
नोरंजन के लिये भी सी लोक कला की सरण में जाते हैं। तब
लोक गीत के साथ लोक नृत्य भी स्थान पाता है।
कर्नाटक की प्रचलित लोक कलाओं में प्रमुख है यक्षगान।
यह गीत नृत्य का एक संम्मिश्रित प्रकार है। पूरे
कर्नाटक में प्रचलित इस यक्षगान के अनेक रूप हैं।
पूर्व कर्नाटक में जिस यक्षगान का प्रचलन है उसे
मूडलपाय कहते हैं और पश्चिम के यक्षगान को पडवलपाय।
इनमें भी अनेक उपभेद हैं। पडवलपाय में तटीय प्रदेश का
यक्षगान बहुत ही परिष्कृत और परिनिष्ठित है। इसे
तैकुतिटटु अर्थात दक्षिण शैली और बड़वुतिटटु अर्थात
पश्चिम शैली नामक दो शैलियों में बाँटा गया है।
बड़वुतिट्टु पर एक अमरीकी महिला का शोधग्रंथ भी है, जो
शिवराम कारंत के निर्देशन में तैयार हुआ है। यक्षगान
भारत की रंग कलाओं का एक विशिष्ट प्रकार है। यह एक
पूर्ण कला है, पाँचों ललित कलाओं का संगम है। यक्षगान
में संगीत है, नृत्य है, नाटक है शिल्प कला है और
चित्रकला है।
शास्त्रीय संगीत से भिन्न गीत प्रकार यक्षगान में हैं।
रागों और तालों के नाम कर्नाटक शैली अर्थात शिष्ट
संगीत के राग और ताल से मिलते हैं। लेकिन इनकी शैली
बिलकुल अलग है। देशी ढंग से गीतों को गाया जाता है।
गायन के द्वारा एक लंबी कथा की प्रस्तुति होती है।
यहाँ रागों का अलापना मुख्य न होकर काव्य सुनाना
उद्देश्य होता है। मद्दले नाम का मृदंग का ही एक रूप
और चेण्डे गायन का साथ देते हैं। ये गायन से ज्यादा
नृत्य के पूरक हैं।
यक्षगान की अपनी एक नृत्य परंपरा भी है। विभिन्न रसों
की अभिव्यक्ति के लिये अनुकूल नृत्य शैली है।
नृत्य
के साथ अभिनय भी होता है। कव्यांश जो गायन द्वारा
प्रस्तुत कियाज जा रहा है, उसके अनुकूल विभन्ने पात्र
मंच पर नृत्य के साथ अभिनय करते हैं। कथ्य को अंगाभिनय
द्वारा सफलतापूर्व व्यक्त किया जाता है। चेण्डे एक
चर्मवाद्य है जो वीर रस का अभिव्यक्ति के लिये उत्तम
माध्यम है। इसकी गतिके ससाथ कलाकार तीव्र गति में
चक्राकार नाचते हुए वीर रस की अभिव्यक्ति करते हैं।
गायन में कथा का एक छोटा सा अंश प्रस्तुत किया जाता है
जिसके लिये विभन्न पौराणिक पात्रधारी कलाकार
नृत्याभिनय करते हैं। गायन समाप्त होने पर पात्रधारी
कथा का जो अंश गायन में प्रस्तुत किया गया था उसी अंश
को संवाद द्वारा सरल रूप में दर्शकों के सामने रखता
है। यह संवाद कंठस्थ किया हुआ नहीं होता, आशु रूप में
होता है। कलाकार की प्रतिभा और बौद्धिक सामर्थ्य के
अनुसार संवाद बदलते जाते हैं। एक पद्यांश का संवाद
पूरा होने पर गायक अगले पद्यांश का गायन प्रारंभ करता
है फिर नृत्याभिनय होता है।
पात्र प्रायः पौराणिक होते हैं। विभिन्न पौराणिक
कथानकों को प्रस्तुत किया जाता है ये पौराणिक पुरुष
सामान्य मनुष्य से अलग हैं। वे अतिमानुष हैं। इसी
कल्पना के अनुसार कलाकारों की वेशभूषा होती है। भीम,
रावण आदि पात्रों को अद्भुत रुप से निर्माण किया जाता
है। वे रंगमंच पर बहुत बड़े दिखाई देते हैं। बड़ा सा
किरीट रखते हैं। इसके अनुरूप बदन पर भी मोटे मोटे
गद्दी जैसे कपड़ों को पहनकर कलाकार को सामान्य से बड़ा
प्रदर्शित किया जाता है। रंगमंच पर जब हम उस पात्र को
देखते हैं तो सिर से पैर तक समप्रमाण में एक अतिमानुष
मूर्ति का दर्शन होता है। यह शिल्प-कल्पना कलाकार अपने
आप तैयार करते हैं।
प्रत्येक पात्र का विशिष्ट मेकअप होता है जिसे मुखवर्ण
कहते हैं। मुख पर लगाए जाने वाले रंग और मुद्राएँ भी
अलग अलग होते हैं। उनके आधार पर ही अनुभवी दर्शक मंच
पर आए हुए पात्र को पहचान लेता है। मुखवर्ण में लगभग
एक डेढ़ घंटा लगता है और वेशभूषा धारण करने में लगभग
आधा घंटा लग जाता है। इस प्रकार एक पात्र को पूरी तरह
तैयार होने के लिये डेढ़ दो घंटे का समय लग जाता है।
यह कार्य कलाकार अपने आप करते हैं। केवल वेशभूषा
बाँधने के लिये कलाकार को एक सहायक की आवश्यकता होती
है। मुखवर्ण के लिये कलाकार विशेष प्रशिक्षण और अनुभव
प्राप्त करते हैं।
यक्षगान प्रदर्शन के दो अंग होते हैं एक अंग जो मंच
में पीछे बैठकर संगीत और गायन प्रस्तुत करते हैं, उसे
हिम्मेल कहते हैं क्यों कि वे पीछे रहते हैं। दूसरा
अंग मुम्मेल है जिसमें नृत्य अभिनय संवाद द्वारा कथा
प्रसंग प्रस्तुत करनेवाले कलाकार होते हैं। हिम्मेल
में गायक जिसे भागवत कहा जाता है, प्रधान होता है। उसे
पुराणों का अनुभव, कथा की गति, विभिन्न पात्रों के
स्वभाव, आदि पता होते हैं। वह पूरे प्रदर्शन का
सूत्रधार भी होता है। उसके दोनो ओर साथी रहते हैं
जिनमें से एक मृदंग में और दूसरा चेण्डे में गायक का
साथ देते हैं। पीछे श्रुति देने वाला रहता है। वह
हारमोनियम में गायक के अनुकूल श्रुति बजाता रहता है।
गायक के हाथ में एक करताल होता है, जिसमें वह स्वयं
ताल बजाता रहता है। उसके लिये पूरक एक चक्रताल भी रहता
है, जिसे पीछे से बजाया जाता है।
सौ
दोसौ से भी अधिक कथानक यक्षगान द्वारा प्रस्तुत किये
जाते हैं। भागवत, रामायण, महाभारत आदि से चयन किये हुए
कथानकों के साथ दूसरे काल्पनिक कथानक भी खेले जाते
हैं। सामाजिक कथानकों को भी यक्षगान के ढाँचे के अंदर
समाने की कोशिशें की गई हैं। कन्नड़ भाषा के अलावा
तुलु, कोंकणीं, मलयालम, अँग्रेजी और हिंदी में भी
यक्षगान के प्रयोग हुए हैं। विवाह शादियों में तथा
उपनयन संस्कार की शाम को बिना वेशभूषा के यक्षगान का
आयोजन करने की भी प्रथा है, जिसे ताक मदल्ले कहा जाता
है।
जानपदीय पृष्ठभूमि से निकला यह यक्षगान आज शास्त्रीय
अंशों को अपने में मिलाकर एक शिष्टकला बनने के मार्ग
पर है। इसलिये आज इसे पूर्ण रूप से एक लोक कला मानना
उचित नहीं होगा। वैसे भी यह पूर्ण शास्त्रीयता के स्तर
पर भी अभी पहुँच नहीं पाया है। ग्रामीण परिवेश में
अशिक्षित किंतु अनुभवी लोगों से सदियों से परिपालित इस
कला क्षेत्र में आए दिन अनेक शिक्षित विद्वानों ने
इसमें प्रवेश किया है, और इसे काफी प्रबुद्ध बनाया है।
आज यक्षगान को एक आशु साहित्य का प्रकार माना जा रहा
है, तो इन्हीं सुशिक्षित लोगों के प्रवेश की वजह से ही
है।
७ मार्च २०१० |