सप्ताह
का
विचार- समस्त भारतीय
भाषाओं के लिए यदि कोई एक लिपि आवश्यक हो तो वह देवनागरी ही हो
सकती है।- (न्यायमूर्ति) कृष्णस्वामी अय्यर |
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अनुभूति
में-
तारादत्त निर्विरोध, आलोक शर्मा, मनोज झा, शिवबहादुर सिंह
भदौरिया की
रचनाएँ और संकलन मातृभाषा के लिये। |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
भारत
से
जयनंदन की कहानी
छोटा किसान
दाहू महतो
अपने खेत की मेंड़ पर गुमसुम से खड़े हैं। करीब सौ डेग पर एक
विशाल बूढ़ा बरगद खड़ा है जो इस तरह झकझोरा जा रहा है मानो आज
जड़ से उखाड़ दिया जायेगा। साँय-साँय बेढंगी बयार आड़ी-तिरछी
बहे जा रही है, जैसे एक साथ पुरवैया, पछिया, उतरंगा और दखिनाहा
चारों हवाएँ आपस में धक्का-मुक्की कर रही हों। प्रकृति जैसे
अनुशासनहीन हो गयी हो, हवाएँ गर्म इतनी जैसे किसी भट्ठी से
निकलकर आ रही हो। भादो महीने में यह हाल! इस साल फिर सुखाड़ तय
है। हवा के शोर में उनके बेटों के प्रस्ताव चीखते से उभरने लगे
हैं उनके मगज में।
''अब खेती-बाड़ी में हम छोटे किसानों के लिए कुछ नहीं रखा है
बाऊ... घर-खेत बेचकर हमें शहर जाना
ही होगा। सोचने-विचारने में हमने बहुत टैम बर्बाद कर दिया।``
उनकी घरवाली भी समर्थन कर रही है बेटों का
...पूरी कहानी पढ़ें।
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अविनाश वाचस्पति का व्यंग्य
रोके रुके न हिंदी
*
श्याम नारायण का आलेख
हिंदी रंगमंच प्रयोग और परंपरा
*
प्रौद्योगिकी में
रश्मि
सिंह से जानें- नेटबुक क्या है
*
हिंदी दिवस के अवसर पर-
संकलित सामग्री हिंदी दिवस समग्र में |
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पिछले सप्ताह
दुर्गेश गुप्त राज का व्यंग्य
मैं आदमी हूँ और आदमी
ही रहूँगा
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रचना प्रसंग में
नासिरा शर्मा का आलेख-
हिंदी कहानी आज
*
डॉ. देवव्रत जोशी की कलम से
गीतकार
मुक्तिबोध
*
दीपिका जोशी से जानें
गणेशोत्सव और गणेश के विविध
रूप
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समकालीन कहानियों में
भारत
से
उदय प्रकाश की कहानी
अरेबा
परेबा
सभी के शरीर में मस्से कहीं
न कहीं होते ही हैं। उनकी संख्या ज़्यादा नहीं होती। हर कोई
अपने शरीर में उनकी जगह के बारे में जानता है। उनकी संख्या का
भी कुछ-कुछ अनुमान उसे होता है। लेकिन हमारे गाँव में सेमलिया
की पूरी देह में मस्से ही मस्से थे। इतने कि उसे खुद अपनी देह
में उनकी जगह और उनकी संख्या के बारे में अंदाज़ा नहीं होगा।
मस्से सबसे ज़्यादा उसके चेहरे पर थे। मस्से भी बड़े-बड़े।
गोल, चमकीले। चने की दाल या भुट्टे के दानों की तरह चेहरे पर
छितराये हुए। उनमें से कोई-कोई तो काफी बड़ा भी था। जैसे चेहरे
पर त्वचा का कोई बुलबुला बन गया हो। कुंदरू के आकार का।
सेमलिया का रंग काला था। यह तब की बात है, जब तक बिजली हमारे
गाँव में नहीं आयी थी। रात में लालटेन, लैंप और दिये जला करते
थे।
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