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दाहू महतो
अपने खेत की मेंड़ पर गुमसुम से खड़े हैं।
करीब सौ डेग पर एक विशाल बूढ़ा बरगद खड़ा है जो इस तरह झकझोरा
जा रहा है मानो आज जड़ से उखाड़ दिया जायेगा। साँय-साँय बेढंगी
बयार आड़ी-तिरछी बहे जा रही है, जैसे एक साथ पुरवैया, पछिया,
उतरंगा और दखिनाहा चारों हवाएँ आपस में धक्का-मुक्की कर रही
हों। प्रकृति जैसे अनुशासनहीन हो गयी हो, हवाएँ गर्म इतनी जैसे
किसी भट्ठी से निकलकर आ रही हो। भादो महीने में यह हाल! इस साल
फिर सुखाड़ तय है। हवा के शोर में उनके बेटों के प्रस्ताव
चीखते से उभरने लगे हैं उनके मगज में।
''अब
खेती-बाड़ी में हम छोटे किसानों के लिए कुछ नहीं रखा है
बाऊ.....घर-खेत बेचकर हमें शहर जाना ही होगा। सोचने-विचारने
में हमने बहुत टैम बर्बाद कर दिया।``
उनकी घरवाली भी समर्थन कर रही है बेटों का, ''हाँ जी, भले कहते
हैं ये लोग। अपने मँझले भाई के बेटों से तो सबक लीजिए।``
''हद हो गयी......सबक लें हम उनसे? इस्क्रीम और फुचका ही तो
बेचते हैं तीनों भाई.....कोई बहुत बड़ी साहूकारी तो नहीं
करते।``
''कुछ भी बेचते हों, खेत खरीद-खरीद कर बड़े जोतदार तो बन गये न
आज!``
अब इस सच्चाई से तो इंकार नहीं किया जा सकता। |