गणेशोत्सव
और गणेश के विविध रूप
- दीपिका
जोशी
गणपति की पूजा-आराधना सनातन काल से सर्वप्रथम की जाती
रही है। महाकवि तुलसीदास ने विद्या वारिधि,
बुद्धिविधाता ही नहीं, विघ्नहर्ता व मंगलकर्ता भी
इन्हें प्रतिपादित किया हैं। क्योंकि श्रीगणेश समस्त
देवताओं में अग्रपूज्य हैं, इसलिए उन्हें विनायक भी
कहा जाता है। साधारण पूजन के अलावा किसी भी विशेष
कार्य की सिद्धि के लिए गणपति के विशेष रूप का ध्यान,
जप ओर पूजन किया जाता है। महाराष्ट्र में भाद्रपद की
शुक्ला चतुर्थी को यह गणेश-उत्सव धूमधाम से मनाया जाता
हैं। जब से इस त्योहार को लोकमान्य टिलक ने सार्वननिक
स्वरूप दिया है तब से इसकी भव्यता देखने योग्य होती
है।
गणपति की मूर्ति मिट्टी से बनायी जाती है और घर लाते
समय उन्हें एक थाली में रूमाल से ढक कर इस तरह लाया
जाता है कि उनका मुँह हमारी तरफ रहे। गणेश चतुर्थी के
दिन गणेश जी की स्थापना की जाती है। पूजा करते समय हो
सके तो लाल रंग का रेशमी वस्त्र पहना जाता है। पाँच फल
रखे जाते हैं। चंदन, फूल-पत्ते, शमीपत्र, दूर्वा और
जनेऊ चढ़ाया जाता है। गुड़ और सूखे नारियल का भोग
लगाया जाता है। बाद में गणेश अथर्वशीर्ष का पाठ किया
जाता है और आरती की जाती है। जितने भी दिन गणेश पूजा
घर में हैं उतने दिन सुबह शाम आरती और मिष्ठान्न का
भोग लगाया जाता है।
मोदक का
भोग गणेश पूजा का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी
बड़ी रोचक कहानी है। एक बार माता पार्वती के पास स्कंद और
गणेश, दोनो भाइयों ने मोदक के लिये जिद की। पार्वती ने
कहा, "यह महाबुद्धि मोदक है, लेकिन है तो एक ही, जो भी इसे
खायेगा वह सारे जगत में बुद्धिमान कहलायेगा। जो पहले
पृथ्वी प्रदक्षिणा कर के आयेगा उसे ही यह मिलेगा।" मोदक की
चाहत में स्कंद तो पृथ्वी प्रदक्षिणा करने के लिये निकला
लेकिन गणेश वहीं रूका रहा। उसने अपने माता पिता की ही पूजा
कर उन्हीं की प्रदक्षिणा की और मोदक के लिये हाथ आगे
बढ़ाया। "माता-पिता की प्रदक्षिणा याने पृथ्वी और अकाश की
प्रदक्षिणा। सर्व तीर्थों में स्नान, सब भगवानों को नमन,
सब यज्ञ, व्रत, कुछ भी कर लें लेकिन माता-पिता
की पूजा से मिले हुए पूण्य की तुलना किसी से भी नहीं हो
सकती।" गणेश का यह स्पष्टीकरण सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर
लिये गया।
शंकर-पार्वती ने
गणेश की कुशाग्र बुद्धि को जान लिया और मान भी लिया कि यही
बुद्धि का देवता बनेगा। तब से मोदक गणेश भगवान को चढ़ाये
जाते हैं। महाराष्ट्र में अष्टविनायक दर्शन बड़ा ही शुभ और
पावन माना जाता है जो निम्नलिखित स्थानों पर स्थित हैं-
श्री मोरेशवर मोरगाव में, श्री चिंतामणी थेऊर में, श्री
बल्लालेश्वर पाली में, श्री वरदविनायक महड में, श्री
गिरिजात्मक, लेण्यादि में, श्री विघ्नेश्वर ओझर में, श्री
महागणपती रांजणगाव में तथा श्री सिद्धिविनायक सिद्धटेक
में।
सार्वजनिक गणेश उत्सव में दस दिन दोनों समय सामूहिक
आरती के साथ मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं।
श्री लोकमान्य तिलक ने इस उत्सव को लड़ाई झगड़े छोड़,
मनमुटाव को दूर कर एकता की भावना मनाए जाने के लिये
विस्तृत और सार्वजनिक रूप दिया था। भारत के स्वतंत्रता
संग्राम में एकता और स्वतंत्रता की भावना को जगाने के में
इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था।
सार्वजनिक गणेश
उत्सव दस दिन का होता है। लेकिन अपने अपने घरों में लोग
डेढ़ दिन, पाँच दिन या फिर सात दिन बाद भी विसर्जन करते
हैं। श्री महागणपति, षोडश स्त्रोत माला में आराधकों के लिए
गणपति के सोलह मूर्त स्वरूप बताए गए हैं, जो भिन्न-भिन्न
कार्यो के साधक हैं।
बाल गणपति :
ये चतुर्भुज गणपति हैं। इनके चारों हाथों में केला, आम,
कटहल, ईख तथा सूँड में मोदक होता है। यह गणपति प्रतिमा
अरुण वर्णीय लाल आभायुक्त होती हैं। नि:संतान दंपति इनकी
आराधना से संतान सुख प्राप्त करते हैं, ऐसी शास्त्रीय
मान्यता हैं।
तरूण गणपति :
यह गणपति की अष्टभूजी प्रतिमा हैं। उनके हाथों में पाश,
अंकुश, कपित्थ फल, जामुन, टूटा हुआ हाथी दाँत, धान की बाली
तथा ईख आदि होते हैं। इनकी भी हल्की लाल आभा होती हैं।
युवक-युवतियाँ अपने शीघ्र विवाह की कामना के लिए इनकी
आराधना करते हैं।
ऊर्ध्व गणपति :
इस गणपति विग्रह की आठ भुजाएँ हैं। देह का वर्ण स्वर्णिम
हैं। हाथों में नीलोत्पल, कुसुम, धान की बाली, कमल, ईख,
धनुष, बाण, हाथी दांत और गदायुध हैं। इनके दाहिनी ओर हरे
रंग से सुशोभित देवी भी हैं। जो भी व्यक्ति त्रिकाल संध्याओं
में इन गणपति विग्रहों में से किसी की भी भक्तिपूर्वक
उपासना करता है, वह अपने शुभ प्रयत्नों में सर्वदा विजयी
रहता है।
भक्त गणपति :
गणपति की इस प्रतिमा के चार हाथ हैं, जिनमें नारियल, आम,
केला व खीर के कलश सुशोभित होते हैं। इस गणपति प्रतिमा का
वर्ण पतझड़ की पूर्णिमा के समान उज्ज्वल श्वेत होता है।
इष्ट प्राप्ति की कामना से इनकी आराधना की जाती है।
वीर गणपति :
यह प्रतिमा सोलह भुजाओं वाली होती हैं। इनकी छवि क्रोधमय
तथा भयावनी हैं। शत्रुनाश एवं संरक्षण के उद्देश्य से की
गई इनकी आराधना तत्काल लाभ पहुँचाती है।
शक्ति गणपति :
इस प्रतिमा की बाँई ओर सुललित ऋषि देवी विराजमान होती है,
जिनकी देह का रंग हरा हैं। संध्याकाल की अरूणिमा के समान
धूमिल वर्ण वाले इन गणपति के दो ही भुजाएँ हैं। सुख,
समृद्धि, भरपूर कृषि व अन्य शांति कार्यों के लिए इनका
पूजन अत्यंत शुभ माना जाता है।
हेरंब विघ्नेश्वर :
बारह भुजाओं से युक्त हेरंब गणपति की प्रतिमा का दाहिना
हाथ अभय मुद्रा व बायां हाथ वरद मुदा्र प्रदर्शित करता है।
सिंह पर सवार हेरंब गणपति के पाँच मुख हैं। इनके देह का
वर्ण श्वेत है। संकटमोचन तथा विघ्ननाश के लिए अत्यंत
प्रसिद्ध हैं।
लक्ष्मी गणपति :
गणपति की इस प्रतिमा के दोनों पार्श्वों में रिद्धि-सिद्धि
नामक दो देवियां विराजमान होती हैं। इनके आठ हाथों में
तोता, अनार, कमल, मणिजड़ित कलश, पाश, अंकुश, कल्पलता और
खड्ग शोभित हैं। देवियों के हाथों में नील कुमुद होते हैं।
सुख, समृद्धि की
कामना पूर्ण करने के लिए लक्ष्मी गणपति अति प्रसिद्ध हैं।
महागणपति :
द्वादश बाहु वाले
महागणपति अत्यंत सुंदर, गजबदन, भाल पर चंद्र कलाधारी,
तेजस्वी, तीन नेत्रों से युक्त तथा कमल पुष्प हाथ में लिए
क्रीड़ा करती देवी को गोद में उठाए अत्यंत प्रसन्न मुद्रा
में अधिष्ठित हैं। इनकी देह का वर्ण सुहावनी लालिमा से
युक्त हैं। अन्न-धन, सुख-विलास व कीर्ति प्रदान करने वाला
महागणपति का यह स्वरूप भक्तों की कामना पूर्ति के लिए
प्रसिद्ध हैं।
विजय गणपति :
अरुण वर्णी सूर्य कांति से युक्त तथा चार भुजाओं वाले विजय
गणपति की यह प्रतिमा अपने हाथों में पाश, अंकुश, हाथी दांत
तथा आम फल लिए हुए हैं। मूषक पर आरूढ़ यह विजय गणपति
प्रतिमा कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हैं। अपने किसी भी
मंगल प्रयास में विजय की कामना से विजय गणपति की आराधना की
जाती हैं।
विघ्नराज या भुवनेश गणपति :
स्वर्णिम शरीर व बारह भुजाओं से युक्त यह गणपति प्रतिमा
अपने हाथों में क्रमश: शंख, पुष्प, ईख, धनुष, बाण,
कुल्हाड़ी, पाश, अंकुश, चक्र, हाथी दाँत, धान की बाली तथा
फूलों की लड़ी लिए रहती हैं। इनका पूजन किसी भी शुभ कार्य
के प्रारंभ में करना अत्यंत लाभदायक होता है। |