हिंदी
कहानी आज
नासिरा
शर्मा
आज बम संस्कृति पर
टिके समाज, विकास के भागते जेट पर सवार, टूटते इनसानी
संबंधों की सलीब को उठाए कहानी खुद चकराई हुई है कि वह
ठहरे कहाँ। यात्रा है कि रुक नहीं रही है, घटनाएँ हैं
कि ओले की तरह बरस रही हैं, अनुभव दिल व दिमाग की
दहिया छूकर एक तेज रील की तरह भाग रहा है। ऊपर से सितम
यह कि हर कोई खाली समय में दिल का बोझ हल्का करने के
लिये कहानी लिखना चाहता है। अपनी तरह कम दूसरों की तरह
ज्यादा ऐसी हालत में कहानी स्वयं अपने व्यक्तित्व की
तलाश में भटक रही है।
कुछ कहानियाँ शताब्दियों गुजर जाने के बाद भी सदाबहार
लगती हैं उनका सच उसमें निहित पीड़ा वैश्विक होने के
साथ साथ समय और सरहदों को निगल जाती हैं और वे आज भी
हमारी नए दौर की तर्जुमान लगती हैं। मगर हर कृति को यह
सौभाग्य प्राप्त नहीं होता है इसलिये तकनीकी दृष्टि से
यदि हम कथावस्तु और शिल्प को समय के बदलते परिदृश्य
में देखें तो पता चलेगा कि यह एक स्वतंत्रता आंदोलन पर
रूढ़िवादिता और अंकुश पर कलम उठाना रचनाकारों का परम
धर्म था। फिर आई बटवारे की त्रासदी, सामंती व्यवस्था
की टूटन और बोसीदा संबंधों से मुक्त होने की छटपटाहट
और विद्रोह के रूप में त्रिकोण प्रेम की बिसात और फिर
समय ने करवट बदली, समाज के सारे आयाम लेखकीय अनुभव के
लिये पुराने पड़ गए।
अब परिदृश्य दूसरा है यहाँ। टूटते परिवार मानवीय
रिश्तों को बनाए रखने की तड़प है। अब शत्रु विदेशी
नहीं बल्कि अपने देश अपने वर्ग का है। सियासी बदलते
दृश्य से समाज में उपजा उलझाव पुराने मूल्यों का टूटन
नये मूल्यों की खोज और स्थापना, बाजार और इश्तहार बाजी
का फलना फूलना इन सारे भँवर में से कहानी को उठाना एक
जोखिम भरा काम है। इसलिये यह पीढ़ी सामाजिक जागरूकता
में पुरानी पीढ़ी के देखते अधिक तराशी हुई है। नये
विषय नए परिवेश नई संभावनाएँ मानवीय संबंधों के नए
धरातलों पर बनना और उनकी पेचीदगियों के साथ मनुष्य का
निरंतर अकेले होते जाना और संवेदनाओं का शुष्क पड़ते
जाना आज की कहानी के दायरे हैं। जिसमें शिल्प और भाषा
की शिथिलता के आवश्यक विस्तार का कोई अर्थ नहीं।
बिखराव और बयान की जगह कसाव की माँग हैं। आज कहानी में
किरदार अधिक मुखर, अपने प्रति सजग और समाज के प्रति
जवाबदेह हैं। इसी कारण यह
कुछ हद तक सही है कि आज लेखक का जो व्यक्तित्व बनना
चाहिये वह नहीं बन पा रही है। इसमें गलती सिर्फ उनकी
नहीं बल्कि उन पीढ़ियों की भी है जिन्होंने अपने आने
वाली पीढ़ी को व्यक्तिवाद और स्वयं के उत्थान का मंत्र
सिखाया है।
आज कहानी समस्याओं को उठाती है चाहें वह अपना गाँव या
शहर हो या अपना देश। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक घटनाओं पर
भी कहानियाँ खूब लिखी गई हैं। मगर भविष्य, विज्ञान,
तकनोलॉजी को अभी तक नहीं छुआ है। आतंकवाद संकीर्णता पर
इधर बहुत लिखा गया है। क्योंकि इन्सानी जीवन ने उसकी
उग्रता को सहा है। आर्थिक उपनिवेशवाद मीडिया पर लेख
अवश्य लिखे गए हैं मगर इन समस्याओं से पीड़ित समाज उस
तरह भुक्तभोगी नहीं बना है इसलिये ऐसे विषयों पर लिखी
कहानियों के लिये हमें कुछ दिन इंतज़ार करना होगा।
जहाँ तेज रफ्तार से सबकुछ घट रहा हो वहाँ पर प्रेम की
अनुभूतियाँ और सौंदर्य की कोमलता की अभिव्यक्ति बदल
रही है। उसे पकड़ना है। पुराना पैमाना आज नहीं चल सकता
है। उसी अहसास को पूरे हुस्न और वैभव के साथ दिखाना
कोई मुश्किल काम नहीं है। कोमलता एवं सौंदर्य के बिना
मनुष्य अपनी पूर्णता को नहीं पहुँच सकता है।
जब विचारधारा लेखक की व्यक्तिगत पूँजी न रहकर पार्टी,
समुदाय या गिरोह की बन जाती है और चौखटे पर लेखक लिखना
शुरू कर दे तो कहानी की मौत लाज़िमी है। जिंदगी का सच
किसी भी विचारधारा को पीछे छोड़ देने की क्षमता रखता
है। आंदोलनो से एक गर्मी बनी रहती है। परंतु कहानी पर
इसका कोई सीधा प्रभाव पड़ने से रहा। कहानी अच्छी या
बुरी होती है यह लेखक की सृजनात्मकता पर निर्भर होता
है। हिंदी के वरिष्ठ लेखक विदेशी साहित्य से बहुत अधिक
प्रभावित दिखते हैं। अपने उदाहरणों में तुलनात्मक
अध्ययन में उनके पास अपने समकालीनों और अपने पहले के
रचनाकारों की कृतियों के उदाहरण नहीं होते हैं। इसलिये
भारतीय भाषाओं की बात बाद में आती है। लेकिन कुछ
वर्षों से अनुवाद के कारण स्थिति बदली है।
भारतीयों के पास भाषा सीखने के गुण हैं। वैसे भी भारत
में अनेक भाषाएँ हैं जिसके कारण एक खुलापन है। हिंदी
में विशेषकर दूसरी भाषाओं की रचना का स्वागत बड़े खुले
मन से होता है, प्रकाशन की कठिनाई नहीं। मगर हिंदी
साहित्य को यह स्वागत नहीं मिला यह सच है। एक दशक से
एशियाई साहित्य में रुचि बढ़ने के कारण विदेशी प्रकाशक
हिंदी के नए पुराने लेखकों की रचना का अँग्रेजी में
अनुवाद छाप रहे हैं। परंतु भारतीय भाषाओं में हिंदी को
लेकर स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है। एक सच
और भी है कि उर्दू बंगाली मराठी मलयालम के साहित्य ने
प्रयोग के अनेक सोपान तय कर रखे थे जब हिंदी कहानी का
विकास होना शुरू हुआ इसलिये एक समानांतर स्थिति अन्य
भाषाओं के बीच हिंदी की कहानी की नहीं बन पाई। आज भी
जिन भारतीय भाषाओं के वरिष्ठ लेखकों को हम चाव से
पढ़ते हैं उन्होंने अपने हिंदी समकालीन वरिष्ठ लेखकों
नहीं पढ़ रखा है।
हिंदी कहानियों में जीवन की सच्चाइयाँ बड़े सुंदर ढंग
से उभरकर आती हैं। मगर वे अनुभव जो जीवन को छीलकर रख
दें उनका अनुपात कम है। शायद इसलिये कि हिंदी लेखकों
में अपना गाँव, आँगन, कुआँ, कस्बा के मुकाबले में नये
प्रयोग नए अनुभव पर लिखी कहानी को लेकर गैर जरूरी
विवाद शुरू हो जाता है। कहानी लिखने के लिये अनुभव की
जरूरत सबसे ज्यादा है। जरूरी नहीं कि वह भोगा हुआ हो
मगर देखने सुने के बाद भावनात्मक स्तर पर आपने उसे
कैसे महसूस किया और सृजनात्मक रूप से उसका कैसे उपयोग
किया वह महत्त्वपूर्ण है। यही अनुभव भाषा को गढ़ता है
उसमें विचार को पकड़ता है। जो कहानियाँ इन पैमानों
रास्तों पर मुकम्मल होती हैं और साहित्य पढ़ने का
संपूर्ण रस प्रदान करती हैं।
जब सिनेमा टीवी इत्यादि नहीं थे तो भी साहित्य को
समझना पढ़ना और रस लेना सबके बस की बात नहीं थी। आज
कितने प्रकाशक हैं और कितने अधिक कहानी संग्रह छप रहे
हैं आखिर उनके पाठक तो होंगे ही वर्ना वह छपकर समुद्र
में तो फेंक नहीं दिये जाते हैं। अब सवाल है श्रेष्ठ
कहानियों का तो अववल तो श्रेष्ठ कहानियों की संख्या ही
इतनी कम होती है दूसरे श्रेष्ठता का एक मापदंड नहीं हर
साहित्यिक मंच प्रकाशक आलोचक किसी न किसी को श्रेष्ठता
की उपाधि देता है। ऐसी हालत में सबसे बड़ा प्रश्न है
कि श्रेष्ठ कहानियाँ हैं कौन सी।
कविता कहानी उपन्यास के मरे की घोषणा के बावजूद
लेखन जारी है। लगता है कुछ बुजुर्ग लेखक अपने बुढ़ापे
को दुनिया का अंत समझ बैठते हैं। और स्वयं के लेखन की
गति रुकने को साहित्य की मौत की आशंका से जोड़ लेते
हैं।
आदर्श और यथार्थ यह दोनो चीज़ें कहानी में कूट कूट कर
भरी जाएँ तो कहानी अपने आप मर जाती है और पाठक के लिये
उपदेश ग्रंथ बन जाती है। फिर भी आदर्श या उद्देश्य या
संदेश अमूर्त रहे तो सहन हो जाता है। यथार्थ कला,
शिल्प, शैली भाषा को निगल न जाए बल्कि इन सारे
माध्यमों द्वारा बयान किया जाए तब कहानी बनती है और
असर करती है। दोनो का रिश्ता गहरा है जैसे आत्मा और
शरीर का एक दूसरे के बिना। किसी का कोई वजूद बाकी नहीं
बचता है।
हिंदी आलोचना में संतुलन की कमी है हिंदी में बहुत कम
सुधी आलोचक हैं और उनमें से बहुत कम ऐसे हैं जो
पक्षपात की दृष्टि न अपनाते हों। कुछ आलोचक किसी एक
पीढ़ी के आलोचक हैं तो कोई किसी विशेष लेखक के। कुछ
अपने नजरिये और अपनी सीमा समयकाल तक ही सीमित रखते
हैं। इसका नतीजा यह निकलता है कि कभी पुस्तक से बड़ी
समीक्षा होती है ठीक उसी तरह जैसे कुछ लेखकों के
साहित्य से बड़ा उनका व्यक्तित्त्व हो जाता है या बना
दिया जाता है। इसमें कहानी का क्या दोष जब किसी कमजोर
कहानी की प्रशंसा में जमीन आसमान के कुलाबे मिला दिये
जाते हैं तो किसी महत्त्वपूर्ण रचना को सिरे से नकार
कर लेखक को अभिशप्त करार दे दिया जाता है। इसीलिये यह
शिद्दत से महसूस होने लगा है कि कई दशक गुजर जाने के
बाद आज हिंदी कथा साहित्य का फिर से मूल्यांकन करने की
जरूरत है। क्यों कि जो कहानियाँ चर्चा में थीं आज वो
कहाँ हैं। जिन लेखकों को प्रकाशकों ने स्थापित किया
अपने बाजार के लिये, आज समय गुजरने के बाद उनकी
कहानियों का स्थान वास्तव में हिंदी कथा साहित्य में
किस दर्जे पर होगा उसको पाठक कहाँ रखेगा और वे
कहानियाँ समय के बदलते परिप्रेक्ष्य में कहाँ टिकेंगी
ये सारी बातें हैं जो अगली कुछ दहाइयों में संतुलित
दृष्टि रखनेवाले आलोचकों द्वारा तय होनी चाहिये। ताकि
परिदृश्य आनेवाली पीढ़ियों के लिये साफ़ हो। |