इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में-
भारत से
रॉबिन शॉ पुष्प की कहानी
सिर्फ़ एक सवाल
जिस लट्टू की कील जितनी तीखी होगी, वह उतना ही सलीके से एक जगह घूमेगा...और
शायद, भैया के सवाल में भी कुछ वैसा ही तीखापन था। उसके हाथ में एल्यूमीनियम का
गिलास था। जिसका रंग जगह-जगह से उड़ गया था और जिसे देखकर, उसे खाज से बाल उड़े
कुत्ते की याद आती। और माँ के हरदम यह कहने पर कि मिट्टी
से साफ़ किया कर, वह जितना अधिक माँजता, उसके मन में गिलास के प्रति घृणा की परतें
उतनी ही अधिक जमती जातीं। कई बार उसने कहा भी... ''नया ला दूँ?''
''न, यह गिलास हम से तो मज़बूत है। अब आखिरी वक्त इसे क्या बदलना।''
और उसे बचपन याद आता। एक बार गिलास को लेकर ही, उसका झगड़ा हो गया था
बड़े भाई से। माँ ने पीतल का नया गिलास उसके हाथ से लेकर, भाई को दे
दिया था। उस वक्त उसकी छोटी-छोटी आँखों में नफ़रत और शिकायत के बदले,
बस गीलापन आ गया था...
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डॉ नरेन्द्र कोहली का व्यंग्य
विदेशी
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डॉ. सुषम बेदी का आलेख
प्रवासियों में हिन्दी-
दशा और दिशा
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प्रवेश सेठी के
संस्मरण और सुझाव
परदेस में इंटरनेट पर हिन्दी की खोज
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हिन्दी दिवस के अवसर
पर विशेष
हिंदी दिवस विशेषांक
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पिछले सप्ताह
अनुज खरे का व्यंग्य
एक लंबी सी फ़िल्म समीक्षा
देवी नागरानी की लघुकथा
ममता का कर्ज़
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आज सिरहाने
अनुपम मिश्र की पुस्तक-आज भी
खरे हैं तालाब
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प्रो.
य गो जोगलेकर का नगरनामा
कुल्हड़, कसोरा
और पुरवा
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समकालीन कहानियों में- यू.एस.ए. से
सोमावीरा की कहानी
लॉन्ड्रोमैट
हाथ
में मैले वस्त्रों का थैला लिए, मार्गरेट लांड्रोमैट में प्रवेश कर
रही हैं। मशीन में वस्त्र डालकर वह यहाँ आएगी। हम दोनों यहाँ बैठकर
कॉफी पिएँगे।यह छोटा-सा ड्रग-स्टोर है। एक ओर दवाएँ तथा साबुन-मंजन
आदि बिकते हैं। दूसरी ओर, खाने-पीने के लिए एक गोल काउंटर है। वहीं
एक किनारे, छोटी-छोटी चार-पाँच लंबाकर मेजें भी पड़ी हैं। अधिकतर लोग
काउंटर के पास लगे ऊँचे स्टूल पर बैठकर ही, कुछ खा-पीकर, झटपट अपनी
राह लेते हैं, किंतु मुझे मार्गरेट की प्रतीक्षा करनी है, अतः मैं
खाली मेजों पर निगाहें डालता, यहाँ एक कोने में बैठा हूँ। दवाओं की
गंध से भरे इस ड्रग-स्टोर में कॉफी पीना मुझे अच्छा नहीं लगता, किंतु
मार्गरेट को यह लांड्रोमैट बहुत पसंद हैं। समझ में नहीं आता क्यों।
क्योंकि कोई ख़ास बात नहीं हैं इस लांड्रीमैट में। अमरीका के
छोटे-बड़े सभी नगरों में, ऐसे अनेक लांड्रीमैट हैं।
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अनुभूति में-
मातृभाषा के प्रति २७ कविताएँ,
साथ में यतींद्र राही, अशोक अंजुम और
बालकृष्ण शर्मा
'नवीन' की रचनाएँ |
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कलम
गही नहिं हाथ
पिछले दिनों बहुत दिनों बाद एअरपोर्ट
रोड की ओर जाना हुआ। इससे पहले शारजाह की इस सड़क पर इतनी भीड़ कभी
नहीं देखी थी। यह रास्ता दो तीन जगह ही तो जाता है- हवाई अड्डे,
अमेरिकन यूनिवर्सिटी और फ्री ज़ोन। पर पिछले तीन सालों में तेज़
बदलाव आया है। अब इस मार्ग पर तीन विश्वविद्यालय हैं। फ्री ज़ोन भी
एक उपनगर की तरह विशाल हो गया है। दुनिया में हर तरफ़ भीड़ बढ़ रही
है तो यहाँ भी भीड़ बढ़ना अस्वाभाविक तो नहीं। नए फ्लाई ओवर और
विस्तृत होता हुआ नगर, साथ ही विस्तार पाती हुई प्रकृति- घास के हरे
मैदान, पेड़ों की क़तारें और फव्वारों से भीगते सड़क के किनारे। हर
सड़क पर गाड़ियाँ दोनों तरफ से गुज़रती हुई। तेज़ सड़क की बड़ी
गाड़ियाँ, यानी फ़ोर व्हील ड्राइव। खास बात जिस पर ध्यान गया वह यह
कि अनेक बड़ी गाड़ियों को चलाती भारतीय महिलाएँ दिखीं- देखकर
बड़ी खुशी हुई। पहले जो भी बड़ी गाड़ी चलाती महिला दिखती थी वह आमतौर
पर गोरी ही होती- यूरोपियन या अमेरिकन। कभी कभी ढेर सा मेकअप पहने
हुए अरबी, पर भारतीय महिलाएँ शायद ही कभी देखीं। लगा- भारत प्रगति की
ओर बढ़ रहा है। कार तो यहाँ सभी के पास होती है पर बड़ी गाड़ी का
मालिक होना समृद्धि का प्रतीक है। --पूर्णिमा वर्मन
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क्या
आप जानते हैं?
कि विश्व में पक्षियों
की
८६५०
प्रजातियाँ
हैं
जिसमें से
१२३० भारत में पाई जाती हैं। |
सप्ताह का विचार- बारह ज्ञानी एक
घंटे में जितने प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं उससे कहीं अधिक
प्रश्न मूर्ख व्यक्ति एक मिनट में पूछ सकता है।-शिवानंद |
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