हास्य व्यंग्य | |
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एक लंबी सी फ़िल्म समीक्षा |
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आप भी फ़िल्मों के भीषण प्रेमी हैं, मैं भी हूँ। आज
सुबह के अखबार में एक फ़िल्म की विस्तृत समीक्षा छपी है, पढ़ रहा हूँ। आप भी पढ़
लें, ताकि फ़िल्म देखने का निर्णय कर सकें। मैं अक्सर ही लोगों को अच्छी समीक्षाएँ
पढ़वाता हूँ। ताकि उनके साथ फ़िल्म देखने का लुत्फ़ उठा सकूँ। क्या? अख़बार ज़रा
साइड में कर लूँ। आपको दिख नहीं रहा, लीजिए कर दिया। अब ठीक है? जान देकर तुझे पाऊँगा... कबीले की कसम रेटिंग-०००** कलाकार- युवा कुमार, जवाँ कुमारी उत्कृष्ट कृति बनाने के चक्कर में निर्देशकीय कौशल न जाने कहाँ-कहाँ, यहाँ-वहाँ से गुज़र गया। साधारण-सी कहानी को ज़बरदस्ती अतिरिक्त टच देने के प्रयास में कहानी बिखरी-बिखऱी-सी दिखाई देने लगी है। 'ट्रीटमेंट' का सौंधापन इसमें उल्लास तो भरता है, लेकिन नाज़ुक मोड़ों पर कहानी डिफरेंट एंगल की माँग करती है। ख़ैर, कुछ फ़िल्म पुराने निर्देशक इसमें भी अपनी सफल फ़िल्मों की ख़ूबियाँ दोहराते नज़र आए। 'बीच व बिकनी में देशभक्ति के डायलॉग' के मौलिक दृश्य संयोजन की कल्पना फ़िल्म की विशिष्टता थी। दृश्यों में खोए दर्शक डायलॉग सुन ही नहीं पाए, जबकि हीरो के अब्बा के मरने के दृश्यों में डायलॉग इतने भारी हो गए कि अब्बा दर्शकों की हूटिंग से पहले ही उन्हीं के बोझ तले दबकर मर गए। निर्देशक की 'क्लास' आइटम साँग में उभरकर सामने आई हैं, जहाँ फाइट के दृश्य के बीच हीरो दूसरी मंज़िल से क्लब के शीशे की छत तोड़ते हुए नीचे गिरता है और धूल झाड़कर आइटम साँग में शामिल हो जाता है। पूरे समय उसके मुँह में खून लगा दिखाया गया है, जिसे वो आस्तीन ने लगातार पोंछता रहता है। इसी बीच डांस में विलेन के गुर्गे भी पहुँच जाते हैं। वे भी सारे वाद्य यंत्र बजाते हुए हीरो को घेरते हैं। थोड़ी देर में क्लब में रखे हुए सारे आइटम एक-दूसरे पर फैंके जाने लगते हैं। निर्देशक का दावा है कि इतना वास्तविक आइटम साँग पहले किसी फ़िल्म में आया ही नहीं है। यह उनकी सूझबूझ है, क्योंकि वे गिने-चुने मौलिक निर्देशकों में से एक हैं। बर्फ़ की वादियों के दृश्य कमाल के हैं, इतने कमाल के हैं, इतने कमाल के कि पब्लिक को ठंड लगने लगती है। इतनी बर्फ़ है कि सबकुछ जमा-जमा-सा लगता है। हीरो-हीरोइन तक एक पेड़ के इर्द-गिर्द जमे हुए से नाच रहे हैं। 'ऐसे मौसम में जले गोरा बदन हौले-हौले' मुँह से भाप निकल रही है, चेहरे के अलावा पूरा शरीर कपड़ों का लबादा बना जा रहा है। भाप ही भाप, बर्फ़ ही बर्फ़, हॉल में भी बर्फ़, दर्शकों के सीने में भी बर्फ़। अजीब जमा देने वाली फ़िल्म है, कसम से। ऐसी सदी से दर्शकों के हाथ पॉकेट में ही जम गए तो टिकट खिड़की भी जम जाएगी। फिर वितरकों की साँसें भी जम जाएँगी। अंत में सिनेमा हॉल किसी बर्फ़ीले रेगिस्तान में बदल जाएगा। हालाँकि निर्देशक की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने प्रयोगों के प्रति निरंतर आग्रह रखा है। इसी के चलते उन्होंने अपनी दूसरी प्रेमिका को हीरोईन की बहन और भूतपूर्व प्रेमिका को उसकी माँ के रोल में रखा है। वे ऐसे आग्रहों को लेकर बेहद दुराग्रही है। ख़ैर, फ़िल्म की कहानी एकदम मौलिक है। इंटरवल के बाद कहानी में ट्विस्ट आता है, जब बैकग्राउंड एकदम रेगिस्तान हो जाता है। क्लाइमैक्स में हीरो हीरोइन के कबीले वाले बंदूकें लेकर आमने-सामने आ जाते हैं, जिसे दोनों बीच में खड़े रहकर टालने का प्रयास करते हैं, लेकिन गोलाबारी शुरू होने पर भाग जाते हैं, लाशें गिरती रहती हैं, हीरो-हीरोइन भागते रहते हैं। दृश्य परिवर्तन होता है, अबकी बार दोनों केरल में एक नाव में डूएट गा रहे हैं। नाव दूर जाती दिख रहा है, फ़िल्म ख़त्म हो जाती है। कुछ सदमा खाए दर्शक 'अभी पिक्चर बाकी है, कुछ और आएगा' के इंतज़ार में बैठे रहते हैं। हॉल वाले आकर ही उन्हें उठाते हैं, घर के लिए रवाना करते हैं। एक्टिंग के नाम पर पुरी फ़िल्म में तय करना काफी मुश्किल रहा है कि किसने अच्छा काम किया है। सबने इतनी तन्मयता से अच्छा करने का प्रयास किया है कि चारों ओर घटिया-घटिया बिखर गया है। दर्शक कन्फ्यूज हो जाते हैं कि किसका प्रयास सबसे 'अच्छा' रहा। हीरोइन पूरे कपड़ों में रही, हीरो पूरे समय गंजी-पजामे में घूमता रहा, झरने से नहाने के चारों दृश्य पुरुषों पर हैं तो कबड्डी खेलने के तीनों शॉट महिलाओं पर फ़िल्माए गए हैं। कबीलों को मिलाने वाले नकाबपोश लड़की की 'माँ' होता है, जो इतना तेज़ घोड़ा ड्राइव करता है कि दोनों कबीलों में से कोई उसका पीछा नहीं कर पाता। हीरोइन पूरे समय बकरियाँ चराती रहती है। हीरो सिगरेट-दारू में धुत पड़ा दिखाई देता है। हीरोइन को एक बार वह कुछ गुंडों से, दारू की बोतल फेंक-फेंककर बचाता है। (हालाँकि गुंडों में वह भी शामिल होता यदि पीने के चक्कर में अड्डे पर छूट नहीं जाता तो।) हीरोईन को उससे प्यार हो जाता है। वह उसकी लत छुड़वाने में लग जाती है। हीरो उसकी बकरियाँ चुराने में भिड़ जाता है, ताकि रोज़ शाम के 'कोटे' का जुगाड़ किया जा सके। अधिकांश दृश्यों में जानवर बैकग्राउंड में मौजूद हैं। कई जगह तो लगता है कि जानवरों की कमी के कारण इंसान को ही उनकी खाल पहनाकर बैठा दिया गया हो। हीरो की मदद करने भी अक्सर जानवर पहुँचते हैं। कहने का मतलब है, जानवर फ़िल्म का स्थायी भाव है। एक बिल्ली जो कुछ ज़्यादा ही स्मार्ट थी, ओवर एक्टिंग कर रही थी, को छोड़कर बाकी जानवरों ने ठीकठाक एक्टिंग की है। फ़िल्म के गीत-संगीत पक्ष में जलने-सुलगने, अगन-आग, मौसम-ठंडक-पानी-बारिश, ठंडी आहें-बर्फ़ सी यादें अर्थात दोनों तासीर के शब्दों की बहुतायत है। कोरियोग्राफर की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने डांस सीक्वेंसों में किसी शरीफ़ शफ्फाक कबीले ही ड्रेसें पहनाई हैं, ऊपर से पत्तियाँ ज़रूर लपेट दी हैं। अन्यथा तो सीन की डिमांड तो बहुत ही जालिमाना थी। दर्शक अंत तक तय नहीं कर पाता कि वह संगीत की भयानकता या डांस के जंगलीपने में से किससे ज़्यादा प्रभावित है। कबीले की ड्रेसें इतनी खूबसूरत है कि लगता है कि समस्त प्रतिभाशाली ड्रेस डिज़ाइनरों का जन्म इन्हीं कबीलों में ही हुआ होगा। डिज़ाइनर ड्रेसें, डिज़ाइनर कबीला, सजी-धजी लड़कियों को देखकर तो कई लोग ऐसे कबीलों में रहने के बारे में गंभीरता से विचार करना शुरू कर देते हैं। ओवरऑल एक ख़ास टेस्ट के दर्शकों के लिए यह फ़िल्म बनाई गई है। बाकियों का तो खाना ख़राब होना तय ही है। फ़िल्म टिकट खिड़की पर जादू जगा सकती है बशर्ते जिनके लिए यह फ़िल्म बनाई गई है, वे दर्शक वे ऐसे खाने में अपना टेस्ट ढूँढ़ने में कामयाब हो जाएँ। पूरी समीक्षा पढ़ने के बाद आपको निश्चित तौर पर
समझ में आ गया होगा कि फ़िल्म कितनी क्लासिकल है। तो क्या तय किया आपने? कब फ़िल्म
चलेंगे? ... क्या कहा आपने...! मेरा टेस्ट भुला देंगे...! हमें पागल समझा है क्या!
ऐसी फ़िल्में बनाता कौन है...! वैसी समीक्षाएँ लिखता कौन है...! तू किसका हिमायती
है...!! अरे भाई साहब मैं तो आपको फ़िल्म प्रेमी जानकर ऐसी समीक्षाएँ पढ़वा रहा था।
आप तो मुझ पर ही नाराज़ होने लगे, मेरा कसूर क्या है? चुप्प..., अबे, चुप हो
जा..फिर किसी को समीक्षा पढवाई तो... एस्क्यूज़ मी, एक मिनट भाईसाहब, हाँ क्या आप भी,
मेरी तरह फ़िल्मों के प्रेमी हैं...?? ८ सितंबर २००८ |