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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
श्रवण कुमार गोस्वामी की कहानी— 'बालेसर का नया साल'


बालेसर को आज जितने भी यात्री मिले, उसने सबके हाथ में खाने-पीने के भाँति-भाँति के सामान, मुर्गे, चूजे, विदेसी शराब की बोतलें और मिठाइयों के डब्बे ही देखे। वह समझ नहीं पा रहा था कि आज हर आदमी इन्हीं चीजों की खरीददारी क्यों कर रहा था। न तो आज होली है और न कोई परब-तेहवार। बालेसर अपनी सीट पर आकर बैठ गया। सीट पर बैठते ही उसका यह सब सोचना खुद रुक गया। अब उसका ध्यान रास्ते की भीड़-भाड़ पर था। कोई आधा घंटा तक लगातार रिक्शा चलाने के बाद बालेसर गांधी नगर पहुँच गया। रिक्शा से उतर कर यात्री ने पूछा-'कितना हुआ?'

आज सुबह से ही बालेसर का धंधा काफी अच्छा चल रहा है। उसके रिक्शे से एक सवारी उतर भी नहीं पाती है कि उसे अलग सवारी तुरंत मिल जाती है। उसके मन में एक बात बार-बार उठ रही थी कि ऐसा तो हर दिन नहीं होता था। आज जरूर उसने सुबह किसी अच्छे आदमी का मुँह देखा है जिसके कारण आज उसका काम बढ़िया चल रहा है। उसने यह याद करने की कोशिश की कि आज सबेरे सबसे पहले उसने किसका चेहरा देखा था। अपने दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी उसके लिए यह स्मरण करना संभव नहीं हो सका कि आज उसने सबसे पहले किसका मुखड़ा देखा था। सुबह तो हर दिन की तरह आज भी झोपड़ी से बाहर

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