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नगर वगर क्यों? तमाम दकियानूसी बात। कम से कम नाम तो ढंग का हो अब देखो शहर के संपन्न इलाकों में 'गुलमोहर कॉलोनी', शालीमार कॉलोनी है, 'जवाहर कॉलोनी' है और 'इंदिरा कॉलोनी' या फिर सिर्फ़ 'साकेत' और 'द गार्डन सिटी', 'द पैराडाइन इन्क्लेव' वगैरह। तमाम रंग रोगन में पुती लड़कियाँ रहती हैं वहाँ और सेंट और परफ़्यूम में रचे बसे छोकरे जो दुनिया को अपने जूतों की नोक पर रखते हैं। इधर वाले नौजवानों के दिलों पर इस सारी ग़ैर बराबरी की वजह से कैसी धुरियाँ चलती थीं या तो वही जानते या उनका ईश्वर जो बक़ौल उनके, पता नहीं, था भी या नहीं। बात एक समझौते पर आकर टूटी थी. . .चलो सुराजी रहने देते हैं. . .बुज़ुर्ग इस बहाने सुराज की अपनी लड़ाई के दिनों की याद ताज़ा रखना चाहते हैं तो सुराज शब्द रहे लेकिन उसके साथ नगर नहीं चलेगा- समझौता यह हुआ कि नाम सुराजी कॉलोनी हो।

बहरहाल चलिए उस गांधी जयंती वाली सुबह सुराजी कॉलोनी में लौटें। आश्चर्यजनक रूप से सारे के सारे टॉपरों से लोग- क्या बूढ़े, क्या बच्चे, क्या औरतें, क्या नौजवान बाहर आ चुके थे और इस पीपल के सामने वाली खुली जगह पर इकट्ठे हो गए थे। हालाँकि जलसे का तयशूदा वक़्त साढ़े ग्यारह था जिसमें अभी कुछ घंटों की देर थी लेकिन हर कोई इतने जोश और उत्साह में था कि उन पर नियंत्रण की कोई कोशिश मुमकिन न थी। पीपल वाले चबूतरे के सामने वाली खुली जगह पर इकट्ठी भीड़ के बीच तमाम तरह की तैयारियाँ शुरू हो गई थीं। सभी ने बड़ी हौंस के साथ चंदे में अपना हिस्सा दिया था जिससे दीगर इंतज़ामात के अलावा मंच और शामियाने की व्यवस्था की गई थी। शामियाने वाले सरदार जी की देखरेख में इस समय मंच तैयार किया जा रहा था। नौजवानों और बच्चों का एक मिला-जुला झुंड था जो रंग-बिरंगे पतंगी काग़ज़ की झंडियाँ बनाने में व्यस्त था। कहीं से केले के पत्ते अपनी समूची लंबाई में काट कर ले आए गए थे और उनसे एक अलग झुंड जिसमें लड़कियाँ अधिक थीं, स्वागत द्वार सजा रहा था। वहीं एक ओर दस बारह पीतल के छोटे-बड़े लोटे जो घर से इकट्ठे किए गए थे माँजे, धोए और चमकाए जा रहे थे। उनका उपयोग मंगल कलश के रूप में होना था। कलश लेकर खड़ी होने वाली लड़कियों के नाम फ़ाइनल कर लिए गए थे। वे भी दीगर लड़कियों के साथ वहीं थीं लेकिन जब से मंगल कलश के लिए चुनी गई थीं उनमें विशिष्ट होने की हल्की-सी ठसक साफ़ दिखाई पड़ रही थी। तय किया गया था कि वे अपने-अपने घरों से अपनी सबसे अच्छी साड़ी पहनकर और सज-सँवर कर आएँगी। जिनके पास या तो साड़ियाँ थीं ही नहीं या ढंग की नहीं थीं वे अपनी चाचियों, मामियों या मुँह बोलो परिवारों की गृहणियों से माँग कर और उनकी ज़रूरी सलाह और मदद से सलीके से साथ पहन कर, मंत्री जी के पधारने के समय के लगभग आधा घंटा पहले स्वागत स्थल पर मौजूद रहेंगी। कुछ लड़कियाँ स्वागत द्वार के सामने बड़े मनोयोग से रंगोली काढ़ रही थीं। रुक-रुक कर वे आपस में मशविरा करतीं कि रंगोली को ज़्यादा से ज़्यादा खूबसूरत कैसे बनाया जाए।

अरे हाँ, यह बात बताना तो रह ही गया कि इन सारी गतिविधियों का केंद्र शंकर था जो घूम-घूम कर तैयारियों का जायज़ा ले रहा था। यह उसकी ही पहल और कोशिश थी कि जिसने इतने बरसों की प्रतीक्षा के बाद यह संभव कर दिखाया था कि कोई मंत्री इस बस्ती तक आने का कष्ट उठाए। इस वक़्त बस्ती के बुजुर्गों के बीच तयशुदा कार्यक्रम में किसे क्या करना है इस विषय पर बात कर रहा था। जैसे कि हम, आप या कोई भी किसी मेहमान के सामने अपना सर्वश्रेष्ठ ही प्रदर्शित करने का चाव रखता है- मसलन मेहमान को सबसे बढ़िया टी-सेट में चाय पेश की जाए, ड्राइंग रूम में सर्वश्रेष्ठ परदे हों, कुशन कवर्स और टेबिल क्लाथ वे हों जो ऐसे ही मौकों के लिए सँभालकर रखे गए होते हैं उसी तरह शंकर चाहता था कि मंत्री जी के स्वागत में बस्ती के एकमात्र स्वतंत्रता सेनानी सुराजी जी, भारत चीन युद्ध में बोमडिला में एक टाँग गँवा चुके धनीराम जी और स्वामी आत्मानंद जी के आश्रम में कुछ वर्ष स्वयंसेवक रहे राम आसरे जी को प्रमुखता से पेश करे। इस वक़्त उनके साथ वह यही तय कर रहा था कि स्वागत द्वार पर मंत्री जी को माला कौन पहनाएगा और मंच पर स्वागत भाषण कौन देगा। वह उन्हें यह भी समझा रहा था कि मंत्री जी के ठीक साथ-साथ जो सज्जन होंगे उनका नाम अनिल भाई है और उनके प्रति मंत्री जी जैसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए क्यों कि सच पूछो तो उनकी इच्छा के बिना मंत्री जी के कार्यक्रमों का तय होना असंभव नहीं तो मुश्किल अवश्य था। दरअसल यह उनकी ही विशेष कृपा थी कि शंकर के प्रस्ताव को मंत्री जी की स्वीकृति मिल सकी थी जिसमें बस्ती के चुने हुए लोगों के साथ उनके जलपान का कार्यक्रम भी शामिल था। शंकर और उसकी बस्ती के लिए यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी कि मंत्री जी अपने साथियों के साथ युगों से एक अमानवीय निरादर के पात्र लोगों की बस्ती में जलपान करें किंतु उधर यह भी उतना ही बड़ा सच था कि अनिल भाई और मंत्री जी अपनी सियासत में इस जलपान की ख़बर का भरपूर लाभ उठाना चाहते थे।

इस कार्यक्रम को लेकर शंकर इसलिए भी कुछ अधिक उत्साहित और खुश था कि बस्ती के इन बुजुर्गों की आँखों में वह पहली बार अपने लिए प्रशंसा और स्वीकार की छाया देख रहा था। धनीराम जी को तो उसने रामआसरे काका से यह बतियाते भी सुना था कि भई इस शंकर को हम लोग बेकार ही कोसते रहते थे। अब देखो तो आख़िर उस अकेले के बलबूते पर ही न है जो इतना बड़ा कार्यक्रम इस बस्ती में होने जा रहा है। बाकी सब तो प्रसन्न थे, अलबत्ता ऐसा लग रहा था मानो सुराजी जी ने अभी पूरे मन से उसकी मेहनत को स्वीकार न किया हो। वे वहाँ मौजूद तो थे और सलाह मशविरे में हिस्सा भी ले रहे थे लेकिन उनके चेहरे पर स्थायी नापसंदगी की नामालूम-सी सख्त सलवटें अभी ज्यों की त्यों थीं।

वैसे सुराजी जी थे भी कायदे के ज़रा सख्त और उनके मन को आसानी से नहीं जीता जा सकता था। सौ फीसदी में राई-रत्ती भी कम हो तो वे संतुष्ट नहीं हो सकते थे किंतु जिस तरह से आयोजन की तैयारियाँ चल रही थीं, शंकर आशावान था कि कार्यक्रम संपन्न होते-होते सुराजी जी भी उसे सौ में से सौ अंक दे डालेंगे। इस एक एहसास ने उसके उत्साह को अचानक दुगुना कर दिया था।

- क्यों भैया, काग़ज़ की झंडियों की चार लड़ें तो तैयार हैं, और बनाएँ क्या? नाले के किनारे चार बाँसों के सहारे सुतली तान कर झिल्ली काग़ज़ की रंग-बिरंगी झंडियाँ बना रहे बच्चों के झुंड में से आकर किसी ने कहा। इस वक़्त शंकर को दम मारने की भी फ़ुर्सत न थी। मंत्री जी के आने का समय पास आता जा रहा था और अभी ढेर सारा काम पड़ा था।

- नहीं नहीं। बहुत हैं। अब फटाफट मंच के रास्ते के दोनों तरफ़ ये झंडियाँ लगा डालो। उसने कहा और फिर जल्दी-जल्दी डग बढ़ाता कार्यक्रम स्थल की तरफ़ बढ़ गया।

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