कुछ देर बाद सब लोग निर्धारित
मुकाम पर पहुँच गए। उसने आगे बढ़कर शहर की दिशा में ए.बी.रोड
पर नज़र डाली। अभी दूर-दूर तक लाल पीली बत्ती वाली कारों का
कोई काफ़िला नज़र नहीं आ रहा था। चैन की साँस लेते हुए उसने एक
बार दगडू के हाथों में लकड़ी के टुकड़े पर सजी फूलमालाओं का
मुआयना किया. . .आशा के कलश से चुल्लू भर पानी लेकर उन पर
छिड़का, भीड़ पर एक संतोष भर नज़र डाली और मन ही मन मुस्कराया।
मंत्री जी के आगमन में देर
होती देख कुछ जवान छोकरे सड़क किनारे पुलिया पर बैठकर सुस्ताने
लगे। गुंडू हमेशा की तरह फ़िल्मी अभिनेताओं की आवाज़ की नकल
करते हुए डायलॉग बोलने लगा. . .छोटे बच्चे उछलकूद में लग गए।
वह खीझ उठा। यही तो. . .यही तो। रहे न उजड्ड के उजड्ड। इन्हें
ज़रा ख़याल नहीं कि ऐसे मौके पर
ज़रा कायदे में, ज़रा अनुशासन में रहें। अरे. . .इतने बड़े
नेता अपने चरणों की धूल इस बस्ती को देने आ रहे हैं और ये लोग
हैं कि. . .।
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मंत्री जी आ रहे हैं. .
.मंत्री जी आ रहे हैं- अचानक शोर मच गया। चौकन्ना होकर उसने
ए.बी.रोड पर नज़र डाली। सचमुच लाल पीली बत्तियाँ वाली कारों का
एक काफ़िला धूल उड़ाता उस ओर बढ़ता दिखाई पड़ रहा था। उसने
दगडू और कलश वाली लड़कियों को आख़िरी क्षणों की हिदायतें दीं
और सड़क पर दस कदम आगे बढ़ गया। वाचमैन चाचा वगैरह को भी उसने
अपने साथ आने को इशारा किया। अगुआ वह ही था। सबके हाथ में
मालाएँ थीं।
सबसे आगे वाली कार झन्नाटे के
साथ आगे निकल गई तो वॉचमैन चाचा की विस्मय भरी 'अरे' को उसने
एक जानकार व्यक्ति की तरह यह कह कर शांत किया- 'कुछ नहीं
चाचा। वह पायलट कार है।' फिर वह उसके पीछे वाली कार की तरफ़
बढ़ा। सामने बैठा गनमैन दरवाज़ा खोलकर झपाक से सड़क पर कूदा और
फुरती से उसने कार का पिछला दरवाज़ा खोल दिया। मंत्री जी हाथ
जोड़े मुस्कुराते हुए उतरे।
पधारिए, पधारिए। वह
जल्दी-जल्दी बोला और उसने लपककर उन्हें फूलमाला पहनानी चाही।
उन्होंने अपनी गर्दन आगे कर दी। तब तक दूसरे दरवाज़े से अनिल
भाई और पीछे वाली कारों से पार्टी के अन्य वी.आई.पी. उतरकर आ
गए। सभी को मालाएँ पहनाई गईँ। दगडू एक-एक कर मालाएँ देता रहा
और चारों तरफ़ गर्वीली मुस्कान फेंकता रहा। मालाएँ ख़त्म हो
गईं तो उसके हाथ में खाली बाँस का वह टुकड़ा बचा जिसमें मालाएँ
टाँगी गई थीं। उसका इरादा बाँस के उस टुकड़े को यादगार चिह्न
की तरह अपनी झोपड़ी में सजा रखने का था। इस विचार से वह
बार-बार पुलकित हो रहा था।
- 'हाँ भाई!! किधर चलना है?
मंत्री जी ने पूछा। वह आगे आकर संकेत से उन्हें रास्ता दिखाने
ही वाला था कि अचानक अनिल भाई ने बढ़कर कमान अपने हाथ में
सँभाल ली।
- 'शंकर, मंत्री जी को हम ले
चलते हैं। तुम सब लोगों को लेकर आओ।'
- 'वो स्वागत, तिलक. . .।'
उसने मंगल कलश वाली लड़कियों के दल की तरफ़ इशारा किया।
- 'हाँ हाँ। तो बताते क्यों
नहीं। अनिल भाई का स्वर ज़रा खीझा हुआ था, मानों उसने
कार्यक्रम के एक ज़रूरी हिस्से की अनदेखी का लांछन उन पर लगा
दिया हो। उसके इशारे पर लड़कियों का दल आगे बढ़ा। सबसे आगे
वाली लड़की ने थाल में रखे कुंकुम से मंत्री जी को तिलक लगाया
और आरती उतारी। तब मंगल गीत गाती मंगल कलश वाली लड़कियों के
बीच से मंत्री जी व उनका दल आगे बढ़ा। पीछे-पीछे बस्ती के
नौजवानों की टोली पूरे दमखम से 'ज़िंदाबाद-ज़िंदाबाद' के नारे
लगाती चल रही थी। अचानक अनिल भाई रुक गए। मंत्री जी को भी
उन्होंने रोक लिया। गिट्टी डालने और रोड रोलर चलाने के बावजूद
सड़क अभी गीली थी। 'शकर, तुम लोग फटाफट आगे बढ़ो, हम मंत्री जी
को कार में लेकर आते हैं।' शंकर थोड़ा निष्प्रभ हुआ। लगा हेठी
हो गई। किसी तरह यह सोचकर अपने आपको धीरज बँधाया कि सड़क की
हालत मंत्री जी खुद देख चुके. . .अच्छा हुआ. . .अब शायद पक्की
सड़क की घोषणा कर दी जाए।
मंच पर उसने ठीक-ठीक गिनकर
कुर्सियाँ लगवाई थीं। एकदम बीच में मंत्री जी, उनके दोनों तरफ़
अनिल भाई और जिला काँग्रेस अध्यक्ष रामेश्वर जी, फिर वार्ड
मेंबर साहिब, बस्ती के बुज़ुर्ग सुराजी जी और वाचमैन चाचा और
वह खुद। दरअसल उसने मंच की व्यवस्था के बारे में बहुत
बढ़-चढ़कर बातें की थीं और अपना रौब गालिब किया था। मंत्री जी
के साथ उनके स्थानीय छुटभैयों की फौज देखकर उसके दिल में कुछ
खटका ज़रूर हुआ था लेकिन उसने अपने आप से ही तर्क किया था- कुछ
भी हो। भला ऐसा कैसे हो सकता है कि मंत्री जी उसे अपने साथ मंच
पर न बिठाएँ. . .यह कार्यक्रम ही उसके मोहल्ले का है. . .वह
प्रोग्राम न बनता तो क्या वे आज यहाँ आने की सोचते और इतनी
जयकार पाते।
मंच तक पहुँचने तक तो सारा
काम तरतीब से चला पर जैसे ही मंच पर चढ़ने के लिए मंत्री जी ने
कदम बढ़ाए अफरा-तफरी-सी मच गई। बड़ी मुश्किल से वह अनिल भाई,
जिला काँग्रेस अध्यक्ष और वार्ड मेंबर साहब को उनकी कुर्सी तक
पहुँचा पाया। बाकी कुर्सियों पर न जाने कब मंत्री जी के साथ आए
अन्य लोगों में से दो ने कब्ज़ा कर लिया और बाकी लोग मंच पर ही
आलथी-पालथी बैठ गए। वह कुछ खिन्न हो उठा। मंच पर तिल भर जगह न
थी और मंत्री जी के साथ मंच पर बैठने की उसकी हुलास की ऐसी की
तैसी हो गई थी। जैसे-तैसे उसने माल्यार्पण का कार्य संपन्न
करवाया। गनीमत थी कि इस कार्यक्रम में अब तक किसी की दखलंदाज़ी
न थी इसलिए बस्ती के बड़े-बुज़ुर्गों से नेताजी को माला
पहिनवाकर उनकी थोड़ी बहुत इज़्ज़त रखने में वह सफल हुआ।
कार्यक्रम तयशुदा ढंग से ठीक-ठाक चल रहा था। ख़ासी भीड़ इकट्ठी
हो गई थी। मंत्री जी भी संतुष्ट थे। वक्ताओं ने उनके इस ग़रीब
बस्ती में पधारने की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी, देवता तुल्य कह
कर उनका मान बढ़ाया था। सामने की पंक्ति में बैठा वह इस सफलता
पर मन ही मन बेहद प्रसन्न हो रहा था किंतु पता नहीं क्यों
मंत्री जी के बाजू की कुर्सी पर बैठे अनिल भाई के चेहरे पर
तनाव की रेखाएँ थीं। वे बार-बार कुर्सी पर पहलू बदल रहे थे और
कुछ बेचैन से थे। यह देखकर उसे अपनी खुशी ग़ायब होती लगी। उनकी
मदद से ही तो यह कार्यक्रम जमा था और अगर वे ही खुश नहीं तो!
अगला कार्यक्रम जलपान का था।
वह उठा। देख तो ले सब ठीक है या नहीं। जलपान की व्यवस्था मंच
के पिछले हिस्से में की गई थी। मनोहर स्वीटसवाले को ऑर्डर दिया
था ताकि व्यवस्था साफ़-सुथरी रहे और जात-पात को लेकर कोई बवाल
खड़ा न हो। इस तरह का भेदभाव बड़ी तकलीफ़ पहुँचाता लेकिन किया
भी क्या जा सकता था? वह अपने से ही सवाल पूछता- ये लोग
बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। भाषणों में अक्सर इस विषय पर ज़रूर
अपनी राय प्रकट करते हैं. . . 'देखो भाई, प्रजा में तो सभी
शामिल हुए न और हमारा देश है प्रजातंत्र वाला देश। तो प्रजा तो
सब एक हुई न. . .भेदभाव कैसा?' वह इस तरह के भाषणों में बह
जाता। वे लोग उसे देवदूत जैसे नज़र आते। मन ही मन अलबत्ता एक
सवाल उसे कोंचता 'कहा कुछ भी जाए सच तो नहीं हो जाता! सचमुच
में तो बात-बात पर भेदभाव होता है न। क्या नेताओं को पता
नहीं?'
जलपान वाले पंडाल में टेबल पर
कपड़ा बिछाया जा चुका था और नाश्ते की प्लेटें करीने से सजाई
जा रही थीं। चाय के लिए उसने कह रखा था मुझसे आकर पूछ लेना
वरना पड़ी-पड़ी चाय ठंडी हो जाएगी।
वह कनात के पीछे था इसलिए
अनिल भाई को देख न पाया लेकिन इस बीच वे भी मंच से उठकर पीछे आ
गए थे। उनके साथ सखाराम था जो इन दिनों उनके पास तेज़ी से अपनी
जगह बनाने की जुगाड़ में लगा हुआ था। वह जानता था कि सखाराम को
वह फूटी आँख न सुहाता था और अनिल भाई से उसकी नज़दीकी से जलता
था।
अचानक अपना नाम सुनकर वह
चौकन्ना हो गया। सखाराम कह रहा था, 'क्या अनिल भाई शंकर जैसे
लोगों के चंगुल में आख़िर आप फँस कैसे जाते हैं?'
- 'ऐसा क्यों कहते हो? काम का
आदमी है वह।'
- 'खाक!' सखाराम बोला- 'आप
कहिए तो इससे डबल-टिबल भीड़ जुटा दूँ लेकिन वो भीड़ भी होगी
कायदे की- यह क्या कि तमाम चोर चमारों की भीड़।'
- 'चुप! चुप!' अनिल भाई ने
उसे सतर्क किया।
- 'ठीक है। ठीक है। लेकिन अब
देखिए। न पूछा न ताछा ये जलपान का प्रोग्राम। बदबू के मारे तो
नाक में दम है, सार्वजनिक छवि सँभालने के चक्कर में नाक पर
रूमाल तक तो रख नहीं सकते, चाय क्या सुड़की जाएगी। ये तो बस
मंत्री जी का जिगरा है कि ऐसी बदबू और गंदगी में भी चेहरे पर
शिकन नहीं आने देते।' सखाराम फुसफुसाया।
- 'अच्छा. . .अच्छा।' |