हिंदी दिवस
विशेषांक में- |
समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है-
भारत से जुही की
कहानी
स्वर्ग
स्वर्ग
के एयरपोर्ट से निकलते ही चारों तरफ बिखरी बर्फ ने मन मोह लेने
वाला स्वागत किया। यदि मेरी जगह कोई और होता तो जरूर उसके मुख
से विस्मय की चीख निकलती और वह इन नजारों को देख हतप्रभ रह
जाता। लेकिन अफसोस, मेरी जगह मैं ही था, और मेरे लिए इस जगह के
मायने कुछ और ही थे। मैंने पहले ही हर विस्मित करने वाले दृश्य
को सिरे से नकारने का फैसला कर लिया था।
कुछ जगहों की अप्रतिम सुन्दरता भी वहाँ हुई दुर्घटनाओं को कभी
ढँक नहीं सकती।
हालाँकि निश्चय तो मैंने यह भी किया था कि कभी दोबारा कश्मीर
नहीं आऊँगा। पर माँ की इच्छा थी कि फिर से कश्मीर देखना है।
उन्होंने जब पहली बार ये बात कही तो मैं चौंक गया था और देर तक
उनके चेहरे को पढता रहा था। मुझे यकीन था कि इस बात का जिक्र
करते वक्त मैंने उनकी आखों में एक क्षणिक चमक देखी थी, ऐसी चमक
जो अवश्य किसी ऐसे कैदी की आखों में होती होगी जिसे बीते कई
अरसों से कोई बंधन जकड़े हों, और बहुत जद्दोजहद के बाद वह कैदी
अपनी बेड़ियाँ तोड़ आजाद होने को तैयार हो।
...आगे-
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मीरा ठाकुर की
लघुकथा- डोनेशन
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डॉ. संध्या सिंह की कलम से
सिंगापुर में हिंदी
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दिव्या माथुर का आलेख
हिंदी में प्रवासी महिला कहानीकार और स्त्री चेतना
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असीम अग्रवाल के विचार में
प्रवासी हिंदी कहानी में पुनरावलोकन की
आवश्यकता
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