प्रवासी हिंदी
महिला कहानीकार
और स्त्री चेतना
-
दिव्या माथुर
यह
आलेख प्रवासी भारतीय महिला साहित्यकारों के द्वारा
लिखी कहानियों के बारे में है। यह दृष्टव्य है कि
प्रवास के कारण इन महिलाओं में, उनके अपने देश के बारे
में सोचने और समझने के नजरिए में एक वस्तुनिष्ठता जन्म
लेती है। उन के द्वारा लिखी कहानियों में ना सिर्फ
महिलाओं के शोषण और संघर्ष का उल्लेख है, बल्कि उनकी
प्रगति के भी प्रमाण मिलते हैं। स्त्री चेतना इन
कहानियों में खूब उजागर होती है, और इन लेखिकाओं को
स्त्री अधिकारवाद की अग्रणी अन्वेषक भी मानना होगा। इस
आलेख ने इसी विषय के संबंध में भाषा, भूमंडलिकारन,
राष्ट्रवाद, रंग भेद को भी नारीवाद और खासकर प्रवासी
भारतीयता के नजरिए से देखा है। कई कहानियों का वर्णन
किया गया है, और उनके महत्वपूर्ण पात्रों की चर्चा भी
इस आलेख में सम्मिलित है। यह आलेख प्रवासी लेखन के
क्षेत्र में वर्णित पीड़ा, सत्य, संस्कृति और परिवर्तन
के चित्रण का एक सार्थक प्रयास है।
मेरे सम्पादन कर्म का सिलसिला शुरू हुआ प्रवासी भारतीय
कवियों के कविता संग्रहों – ‘पुरवाई (दो खंडो में),
‘तनाव’ और ‘नेटिव सेंटस’ – से। फिर लंदन में आयोजित
विश्व हिंदी सम्मलेन-१९९० के दौरान मैं एकाएक बहुत सी
प्रवासी लेखिकाओं के संपर्क में आई। इसे आप मेरी सनक
भी कह सकते हैं कि क्योंकि एक के बाद एक मैं महिलाओं
के कहानी-संग्रहों पर ही केंद्रित रही और अब तक मैं
चार कहानी संग्रह सम्पादित कर चुकी हूँ।
शुरुआत हुई विदेश में बसी भारतीय लेखिकाओं की कहानियों
के अँग्रेजी से हिंदी में अनुवाद से, जो ओडिस्सी-१ और
ओडिस्सी-२ के रूप में प्रकाशित हुईं, आमुख लिखा
रुखसाना अहमद ने। अनीता देसाई, मेहरुन्निसा परवेज,
प्रतिभा रॉय, उषा प्रियंवदा, डॉ सुषम बेदी और नबोनीता
देव-सेन जैसी प्रतिष्ठित लेखिकाओं के साथ मैंने नई और
उभरती हुई प्रवासी लेखिकाओं को भी सम्मिलित किया।
विदेश में रोप दिए जाने पर पौधा विदेशी नहीं हो जाता
बल्कि एक नए वातारण में पनपने की वजह से, उसमें
अतिरिक्त सहिष्णुता और क्षमता जैसे अनन्य खूबियाँ आ
जाती हैं। एक तरफ उन्हें अपने देश की कद्र पता लगती है
तो दूसरी ओर, उनका दृष्टिकोण आत्मगत नहीं रहता,
वस्तुनिष्ठ हो जाता है। विदेश में रहने वाले
हिंदी-साहित्यकार, विशेषतः लेखिकाएँ, जहाँ एक ओर इस
दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं कि उनकी रचनाओं में
विभिन्न देशों की राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक
परिस्थितियाँ हिन्दी की साहित्यिक रचनाशीलता का अंग
बनती हैं, विभिन्न देशों के इतिहास और भूगोल का हिन्दी
के पाठकों तक विस्तार होता है, विभिन्न शैलियों का
आदान प्रदान होता है और इस प्रकार हिंदी साहित्य का
अंतर्राष्ट्रीय विकास भी होता है।
उसके बाद आई आशा: जो हिंदी में लिखी गयी भारतीय महिला
कथाकारों की कहानियों का अंग्रेजी रूपांतरण था। जरबानु
गिफ्फोर्ड ने आमुख लिखा और इसमें शामिल थीं मन्नू
भंडारी, शिवानी, मृदुला गर्ग, अलका सरायोगी, चित्रा
मुद्गल, मृदुला सिन्हा, प्रतिभा रे, सुधा अरोड़ा,
सुनीता जैन, आदि।
सौभाग्यवश, आर्ट्स कॉउंसिल ऑफ इंग्लैंड द्वारा मुझे एक
कहानी संग्रह के सम्पादन के लिए फंडिंग मिली, जो
होप-रोड लन्दन से प्रकाशित हुआ ‘Desi Girls: Short
Stories by Indian Women Settled Abroad’, जिसकी
प्रस्तावना लिखी लेडी मोहिनी नून ने, मेरे इस योगदान
की वजह से न केवल जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल द्वारा
आयोजित एक सत्र, द देसी डायसपोरा में बल्कि रॉयल
अल्बर्ट हॉल-लंदन में आयोजित उनके फेस्टिवल में भी
मुझे उनके एक सत्र ''इनर लाइफ ऑफ ट्रांसलेशन'' के
संयोजन के लिए आमंत्रित किया गया, जिसमें मेरे साथ थीं
रक्षंदा जलील, फ्रांसेस्का ओर्सीनी, जैरी पिंटो टू और
जिलियन राइट। ‘देसी- गर्ल्स’ में प्रकाशित कहानियों की
स्त्रियाँ उच्च शिक्षित और अपने काम के क्षेत्र में
अनोखी उपलब्धियों को प्राप्त करके भी अपने रहन-सहन में
अपनी परम्पराओं व मर्यादायों को निभाते हुए अपनी
‘देसी’ छवि का आभास देती हैं।
प्रवासी भारतीय लेखिकाएँ
इन कहानी संग्रहों के सम्पादन के पीछे मेरा केवल एक ही
उद्देश्य था कि भारत के बाहर विदेश में रहने वाली तमाम
भारतीय स्त्रियों के उत्कृष्ट लेखन के बारे में सब लोग
जान सकेंl यह कहानियाँ उन भारतीय स्त्रियों की
भावाभिव्यक्ति हैं जो अपना देश छोड़ने के बाद अन्य
देशों में जाकर बसीं और उनका बाकी जीवन वहीं विकसित
हुआl यह सब लेखिकायें अपने किरदार के माध्यम से वहाँ
के वातावरण में रहते हुए लोगों के जीवन, परिस्थितियों
व उनकी समस्यायों से अवगत कराती हैंl
अक्सर मुझसे पूछा जाता है कि मेरे सभी संग्रहों की
रचनाकार सिर्फ औरतें ही क्यों? तो इसका एक कारण यह है
कि एक औरत ही दूसरी औरत के दुःख-दर्द और उसके मन की
पीड़ा को अच्छी तरह से समझती हैंl आजकल औरतें कितने ही
क्षेत्रों में बराबरी का काम कर रही हैं फिर भी उनके
साथ पक्षपात व घटिया व्यवहार किया जाता हैl वे बराबर
के अधिकारों के लिए पुरुषों से भी अधिक मेहनत करती हैं
पर काम के एवज में उन्हें पुरुषों से कम पैसे मिलते
हैं, उन्हें तमाम और सुविधाओं से भी वंचित रखा जाता
हैl इसके अलावा कई बार विषम परिस्थितियों से गुजरती
हुई औरत को समाज से व अपनों से भी सहानुभूति की बजाय
तिरस्कार व अपमान सहना पड़ता हैl इन लेखिकाओं की
कहानियों में स्त्री के संघर्ष व उसके उत्पीड़न का वही
चित्रण देखने को मिलता हैl कहानियों में औरत के आँसुओं
का सैलाब है, जिसमें छिपा उसका दर्द, सिसकियाँ,
मजबूरियाँ व टीसें अंतर्मन पर अपनी छाप छोड़ जाती हैंl
इन्हें पढ़कर मन संवेदना से भर उठता हैl नारी का
अधिकारवाद भी लोगों के लिए एक समस्या बना हुआ है
किन्तु उसके अधिकारों की लड़ाई बराबर चलनी चाहिए और इस
लड़ाई में लेखिकाओं की स्वयं एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी
है।
इसी दौरान मुझे ओरल-कैंसर हो गया जिससे जूझते ढाई साल
लग गए किन्तु उस दौरान भी मेरा सम्पादन का काम जारी
रहा। ऑपरेशन के चार महीनो के अंदर ही मेरे द्वारा
सम्पादित चौथे कहानी संग्रह ‘इक सफर साथ साथ: प्रवासी
लेखिकाओं की कहानियाँ’ का लोकापर्ण २०१८ में हॉउस ऑफ
लॉर्ड्स में संपन्न हुआ, इसे प्रवासी साहित्य की
यात्रा में एक विशिष्ट उपलब्धि माना गया क्योंकि इसमें
शामिल हैं ब्रिटेन, यूरोप, अमेरिका, स्कैंडिनेविया,
कनाडा, संयुक्त अरब अमीरात एवं चीन की २२ प्रतिनिधि
हिंदी लेखिकाएँ। संग्रह की भूमिका में लंदन
विश्वविद्यालय की प्रॉफेसर फ्रंचेस्का ऑर्सीनी कहती
हैं कि ‘इस संग्रह के जरिए हमें लेखिकाओं के सरोकारों
और कथा-शैली से रूबरू होने के साथ-साथ “वेस्ट में”
हिंदी लिखने का क्या मतलब है, उसपर भी सोचने का अवसर
मिलता है, उन्हें एक साथ पढ़कर हमें यह पता चलता है कि
आज की तारीख में हिंदी में लिखने-सोचने वाली प्रथम
पीढ़ी की प्रवासी भारतीय महिलाएँ क्या सोच और महसूस कर
रही हैं।’
अनिल जोशी जी ने अपनी प्रस्तावना में लिखा, ‘यह
कहानियाँ रिश्तों की धीमी आँच पर पकाई गई हैं, रेशम की
तरह महीन काती गई हैं, इनमें कोयल के स्वर की मधुरता
और पपीहे के करूण स्वर हैं। बहुत सी कहानियों में आपको
बहुत घटनाएँ नहीं मिलेंगी परंतु इसमें जीवन का रस और
जज्बा है। जब आप विदेशों मे रहने वाले भारतीयों के
अंतर्मन को माईक्रोस्कोप से देखना चाहें, जब आप उस
परिवेश में रह-रहे समाज के स्त्री-पुरूष संबंधों और
रिश्तों की गहरी पड़ताल करना चाहें, आप इस किताब को
उठाएँ, यह आपको एक ऐसी दुनिया में ले जाएँगी जिसे
देखने और दिखाने की दूरबीन प्रवासी स्त्री के पास ही
है। यह कहानियाँ आपकी सोच को व्यापकता, दृष्टि को
गहराई और संवेदना को आकार देंगी। प्रवासी साहित्य की
जिन विशेषताओं स्मृति, अस्मिता के सवाल, प्रकृति,
स्त्री-विमर्श, स्त्री-पुरूष संबंध, पीढ़ियों के
संघर्ष व द्वंद्व, सभ्यतामूल्क अंतर्द्वंद्व, रंगभेद,
यांत्रिकता पर चर्चा होती है, वे सब विशेषताएँ किसी
सायास प्रयास के तहत नहीं, बल्कि घटनाओं, स्थितियों,
परिवेश, मन:स्थिति, रोचक चरित्रों के माध्यम से इस
संकलन में प्रस्तुत हुई हैं।
हिंदी और हिंग्लिश
जाहिर है कि कई कहानियों में हिंगलिश का दिलचस्प
प्रयोग मिलता है और कई पूरब-पश्चिम के टकसाली
पूर्वाग्रहों को झकझोड़ती हैं। उनको पढ़ना दुनिया में
बसे हुए हिंदी बोलने और लिखने वालों की दुनिया में
प्रवेश सा करना है, उनकी सोच और मानसिकता से वाकिफ
होना है, जो भूमंडलीकरण के सिक्के का दूसरा पहलू भी
दिखाती हैं, जहाँ विदेश जाकर दूसरे लोगों के बीच में
बसने का नतीजा- अनवरत तुलना, नैतिक आकलन तो होता ही
है। समय तेजी से बदल रहा है और नए संग्रह की कहानियों
में नए विषय उठाए गए हैं, अब केवल प्रवासियों पर ही
नहीं, विदेशी संस्कृति और जीवन शैली पर आधारित
कहानियाँ लिखी जा रही हैं। नारी का अधिकारवाद भी लोगों
के लिए एक समस्या बना हुआ है किन्तु उसके अधिकारों की
लड़ाई बराबर चलनी चाहिए और इस लड़ाई में लेखिकाओं की
स्वयं एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है।
आरंभिक संग्रहों की बहुत सी कहानियों में भारतीय
नायिका नैतिक मूल्यों से लैस विदेश चली आई है, क्या वह
अपने भारतीय प्रेमी या पति पर भरोसा करे या न करे,
उसके दूसरी औरतों से सम्बन्धों को नजरन्दाज करे या न
करे, सास-ससुर से दबकर रहे या उनसे अलग होकर नई जिंदगी
बनाने की कोशिश करे?
प्रवास और विछोह से प्रेरणा
कुछ महत्वपूर्ण कहानियों को जिक्र करना चाहूँगी।
प्रवास में जब जब मन खिन्न होता है, कारण चाहे जो भी
हो – भारत के तीज-त्योहार, विवाहोत्सव अथवा जन्म-मरण –
यादों की पिटारी खुल जाती है और ऐसे वक्त पर बहुत सी
कहानियाँ और कविताएँ जन्म लेती हैं। कविता वाचक्कनवी
की कहानी ‘रंगों का पंचाग’ होली की सैंकड़ो स्मृतियाँ,
रूपक और बिंब दर्शाती है, जो एक प्रवासी के लिए अब
कल्पनातीत होकर रह जाते हैं। अनिल जोशी जी के शब्दों
में, ‘हजारी प्रसाद सी प्रांजल भाषा में, बेहद खूबसूरत
प्राकृतिक प्रतीकों और बिंबों के साथ, कविता जी ने जो
चित्र प्रस्तुत किया है, उसमें रस है, लालित्य है, ऋतु
दर्शन है जैसे भारत में होली का उल्लास व्यक्तियों तक
सीमित नहीं रहता, अपितु पक्षी, पेड़, पौधे, फल-फूल,
कैसे होली के उल्लास से भर जाते हैं। यहाँ रंगों का
पंचांग से प्रस्तुत ये अनछेद जोशी जी के कथन का समर्थ
करता है।
“सचमुच यह देश बेगाना है! यहाँ के पेड़-पौधे तक बेगाने
हैं। … वहाँ घर तो मेरा अम्बड़ा, मेरा जामुन, शहतूत सब
झूमने लगते थे। और तो और आँगन का नीम तक मिठा जाता था,
छोटी-छोटी मधुमक्खियाँ उसे घेर कर चूमने लगती थीं,
सफेद बौर से लद जाता था नीम। कच्चे, हरे, छोटे-छोटे
शहतूत झूला झूलते। कोयल तो इतनी बावरी हो जाती अमराई
में कि पंचम गाती न अघाती। चीख-चीख कर मतवाली हो
इतना–इतना कूकती कि कई बार खीझ हो उठती थी। टेसू के
तन-बदन में अंगारे दहकने को होते, उसकी डालियों की
कलाइयाँ लाल चूड़ियों से भर जाती। पीपल पर लालिमा लिए
हरे पारदर्शी पत्ते छूने पर भी शरमा जाते। अशोक की
टहनियों के जमावड़े में कुछ नन्हीं शाखें छिप-छिपकर
बातें सुनने रातों-रात प्रकट हो जाती। गन्ने ’फिर
मिलेंगे’ कहकर जा चुके होते और सरसो के लचीले बूटे
सारी देह पर अलंकार धारे मेरे खेतों में स्वर्णिण आभा
बिखरते। कनकों से भरे खेत-खलिहानों में मानों स्वर्ण
के अंबार भर जाते, ढेरों-ढेर गेहूँ! ढेरों-ढेर सोना!
इक्का-दुक्का बादाम के पेड़ नंगे बदन पर हरे-धुले
वस्त्र धारे अपनी छत तान लेने की वृत्ति से बाज नहीं
आते थे।”
जैसे जैसे समय गुजरा, वैसे वैसे लेखिकाओं के विषय
बदले, भाषा, शैली और अंदाज बदले, जागरूकता आने के कारण
उनके तेवर बदले।
अधिकतर कहानियों के पात्र भारतीय पात्र ही हैं जो या
तो विदेशी जमीन अथवा स्थानीय व्यक्तियों से तालमेल
बैठाने के चक्कर में रहते हैं जैसा कि बी.बी.सी की
पूर्व-प्रमुख डॉ अचला शर्मा की कहानी, ‘मेहरचंद की
दुआ’ में हिदू-मुस्लिम पहचान का प्रश्न उठाया गया है।
अवैध प्रवासियों की जद्दो-जहद, सपनों और जेल की सलाखों
के बीच झूलते मेहर आलम को इस अवैध जिंदगी में जब एक
गुजराती महिला का साथ मिलता है तो उसके पाकिस्तान से
बेटे को लंदन बुलाने की आकांक्षा पर सवालिया निशान लग
जाता है। तोशी अमृता की कहानी में दिल्ली से नई-नई आई
नेहा की मुलाकात परेश से होती है जिसका परिवार कई साल
से ग्लास्गो में बसा हुआ है। फ्रंचेस्का ऑर्सीनी की यह
आपत्ति कि परेश और उसका परिवार पूरी तरह भारतीय ही नजर
आता है, परेश नेहा से शिष्ट हिंदी में ही बात करता है
और यह कि ग्लास्गो में बसे होने से उनमें कोई भी फर्क
आया है, जायज नहीं है क्योंकि किसी भी व्यक्ति के लिए
अपनी भाषा और संस्कृति को भूलना इतना आसान नहीं होता,
तभी तो साउथ हॉल में बसे पंजाबी अथवा वैम्ब्ली में बसे
गुजराती अथवा ईस्ट-लंदन में बसे बंगाली पचास साल में
भी अँगरेज नहीं बन पाए। भारतीय ही क्यों, पारसी,
पोलिश, रूसी आदि आज भी अपने ही तरह से जीते हैं, उनके
इलाकों की दुकानों में भी उन्हीं के स्वादानुसार चीजे
बिकती हैं।
कुछ प्रवासी पात्र और उनका
वर्णन
ऐसी कहानियाँ कम थीं जिनमें प्रवासी भारतीय और विदेशी
पात्रों के रिश्ते का आकलन नैतिकता के मापदंड से नहीं
होता था किन्तु अब कमला दत्त की कहानी ‘तीन अधजलि
मोमबत्तियाँ जला…’ देखिए, जिसमें कोई भारतीय ऐकडेमिक
छुट्टियों में किसी योगा-सेंटर (सेंटर फॉर न्यू
बीगिनिंग’) के रिट्रीट में बिताती है और अपने आसपास के
माहौल और लोगों के बारे में सोचती है, जो थोड़े समय के
लिए ही एक दूसरे के पास आते हैं मगर एक दूसरे से बहुत
कुछ छिपाते भी हैं। यहाँ न तो गहरा आकर्षण पैदा होता
है और न वितृष्णा या निराशा। अनिल प्रभा कुमार की
कहानी ‘दिवाली की शाम’ और पूर्णिमा वर्मन की ‘नमस्ते
कोर्निश’ प्रवासी भारतियों की आर्थिक सफलता और
व्यक्तिगत अकेलेपन को सामने रखती हैं। ‘दिवाली की शाम’
में न्यू जर्सी में बसे परिवार के पास सब कुछ है, बड़ा
घर, पैसा, ढेर सारा सामान, अच्छी नौकरियाँ और सामाजिक
रुत्बा, मगर हर कोई अपने में घिरा हुआ और अकेला नजर
आता है। दिवाली के दिन सब कुछ है, बस खुशी नहीं है।
मेरी कहानी ‘२०५०’ भी आज की आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस और
वर्चुअल रियलटी की दुनिया पर सवाल खड़े करती है, जो
शायद हर लेखक का प्रमुख दायित्व भी है। यह कहानी आई
क्यू के आधार पर विकसित हो रही भविष्य की दुनिया का
सटीक चित्र प्रस्तुत करती है और उसे प्रश्नों के घेरे
में लेती है, प्रस्तुति में इसका भयावहपन अपनी विडंबना
के साथ उभर कर आता है। ब्रिटेन के जीवन की ठोस भावभूमि
पर टिकी यह कहानी यांत्रिक जिंदगी पर गहरे सवाल उठाती
हैं। यह सवाल महिला होने के नाते जन्म देने के अधिकार
और परवरिश करने के सवालों पर केंद्रित हैं।
‘अनुजा’ अर्चना पैन्युली की सशक्त रचना है, जिसमें एक
नए अपरिचित देश में, गैर-कानूनी कामों में लिप्त पति
के साथ संबंधों और अवैध इमिग्रेशन से उसके जीवन के
विनाश के कगार पर पहुंचने की समस्या का चित्रण हैं।
यहाँ एक पुरूष द्वारा धोखा दी गई महिलाओं के
अंतरसंबंधों का जटिल ताना-बाना भी है। एक गैर – कानूनी
कामों में लिप्त व्यक्ति के साथ जीवन जीने को अभिशप्त
अनुजा के संघर्षों का जटिल संवेदनात्मक चित्रण अर्चना
पैन्युली ने अपनी पैनी कलम से किया है।
इला प्रसाद की कहानी ‘मेज’ में पक्षियों और प्रकृति का
ठोस चित्रण है, जहाँ पुरूष के लैंडस्केप में प्रकृति
उतनी प्रमुखता से नहीं आती है, वहीं स्त्री के मानसिक
लैंडस्केप का वह अनिवार्य हिस्सा है। घर की एक बेकार
और फालतू चौकी के सुंदर पक्षियों के डाइनिंग-टेबल बन
जाने पर कहानी जिस उल्लास पर खत्म होती है, वह व्यक्ति
को समष्टि से जोड़ने और उसमें महिलाओं की भूमिका को
रेखांकित भी करता है। कहानी की बुनावट बड़ी महीन और
सटीक है।
अनीता शर्मा ने अपनी कहानी ‘शुवे’ में अपने चीन से
लंबे जुड़ाव के कारण भारत और चीन में
सामाजिक-सांस्कृतिक-पारिवारिक मूल्यों की समानताओं को
चिन्हित किया है। कहानी मल्टीनेशनल कंपनी में वरिष्ठ
पद पर काम करती अच्छी-खासी हट्टी-कट्टी शुवे की है
जिसे जीवन साथी की तलाश है। उसके माता-पिता की निरंतर
अपेक्षा और पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत सामाजिक
वातावरण में उस पर साथी ढूंढने का दबाव है। इस यात्रा
में उस समय दिलचस्प मोड़ आता है जब उसे अमेरिकन फिटनेस
कोच क्रिस एक साथी के रूप में मिल जाता है पर क्रिस के
दिलफेंक और कई स्त्रियों से संबंध बनाए रखने की
जानकारी मिलने पर शुवे के दिल टूटने और जिंदगी के नए
रास्ते ढूंढने पर यह कहानी समाप्त होती है। कहानी में
चरित्र चित्रण और विकास दिलचस्प है। शुवे के माता-पिता
का व्यवहार, बेटी पर किसी साथी को ढूढने का दबाव किसी
भारतीय माता-पिता जैसा है। अमेरीकी गोरे लड़के के
प्रति आकर्षण भी भारत या भारतीयों की तरह ही है।
१ सितंबर २०२३ |