इस सप्ताह- |
अनुभूति में-
कोरोना समय में राजनीतिक आर्थिक सामाजिक संवेदनाओं को समेटे विभिन्न रचनाकारों
की अनेक रचनाएँ। |
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घर परिवार में |
रसोईघर में- गर्मियों के उमस भरे मौसम में शीतलता का संचार
करने के लिये हमारी
रसोई संपादक शुचि प्रस्तुत कर रही हैं-
आम की चुस्की। |
सौंदर्य सुझाव -- एक बाल्टी पानी में चुटकी भर पिसी
हुई फिटकरी मिलाकर नहाएँ तो त्वचा से पसीने की गंध दूर रहती है। |
संस्कृति की पाठशाला- बनारस विश्व की ऐसी सबसे पुरानी नगरी है जो अपने प्राचीनतम स्थान पर
निरंतर आज तक बसी हुई है। |
क्या आप जानते हैं?
कि
शरीर पर लगाए जाने वाले सुगंधित पाउडर को टैल्कम पाउडर
इसलिए कहते हैं क्योंकि वह ‘टैल्क’ नामक पत्थर से बनाया जाता है।
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- रचना और मनोरंजन में |
गौरवशाली भारतीय- क्या आप जानते हैं
कि जून के महीने में कितने गौरवशाली भारतीय नागरिकों ने जन्म
लिया? ...विस्तार से
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सप्ताह का विचार-
बाधाएँ व्यक्ति की परीक्षा होती हैं। उनसे उत्साह बढ़ना चाहिए, मंद नहीं पड़ना चाहिए।
-यशपाल |
वर्ग
पहेली-३३८
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से |
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हास परिहास में
पाठकों
द्वारा
भेजे गए चुटकुले |
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साहित्य और संस्कृति
के अंतर्गत-
कोरोना-काल में- |
समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है कैनेडा से
हंसादीप की कहानी
काठ की हाँडी
अफरा-तफरी
मची हुई थी। शहर के हर कोने से भय और घबराहट की गूँज सुनायी दे
रही थी। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचते कोरोना वायरस
अब एलेग्ज़ेंडर नर्सिंग होम की दहलीज पर कदम रख चुका था जहाँ
कई उम्रदराज़ पहले से ही बिस्तर पर थे। सीनियर सिटीज़न के इस
केयर होम में अधिकांश रहवासी पचहत्तर वर्ष से अधिक की उम्र के
थे। कई लोग आराम से घूम-फिर सकते थे तो कई बिस्तर पर ही रहते।
कई को अपनी दिनचर्या निपटाने में किसी की मदद की आवश्यकता नहीं
होती तो कई पूरी तरह से मदद पर निर्भर थे। कई शारीरिक व मानसिक
दोनों रूप से अस्वस्थ थे, तो कई सिर्फ मानसिक रूप से अस्वस्थ
थे, वे चलते-फिरते तो थे पर ऐसे जैसे कि कोई जान नहीं हो
उनमें। उन्हें देखकर लगता था कि जिंदगी टूट-फूट गयी है,
जैसे-तैसे उसे समेट कर चल तो रहे हैं पर किसी भी क्षण बिखर
सकती है। कोरोना के प्रहार को
सहने की ताकत इन सीनियर सिटीज़न में बहुत कम थी। इसीलिये यह
वायरस इसका फायदा उठाकर शहर के
आगे...
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ऋताशेखर मधु की
लघुकथा-
दाग अच्छे हैं
***
संकलित आलेख-
जैविक हथियार और चीन
***
समीक्षा तैलंग का आलेख
भीषण गर्मी में
ठंडी पड़ती साँसें
***
महेश परिमल का ललित निबंध
जन्मभूमि से
कर्मभूमि की ओर
***. |
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पुराने कोरोना
विशेषांक से- |
मंजुल भटनागर की
लघुकथा-
तथास्तु
*
सामयिकी में-
जैव आतंकवाद की वैश्विक चुनौती
*
संजय खाती का आलेख
खेल कोरोना
का
*
पुनर्पाठ में डॉ. गुरुदयाल
प्रदीप से
विज्ञान वार्ता-
जैविक
और रासायनिक हथियार
वतन से दूर में आस्ट्रेलिया से
रेखा राजवंशी की कहानी-
अनन्त यात्रा
अपने
जीवन के नब्बे सालों में जितेंद्र नाथ जी ने सोचा भी नहीं था
कि कभी ऐसा दिन भी आएगा। इससे पहले भी अपने इकलौते बेटे के पास
कई बार सिडनी आ चुके थे। जब भी वे पहुँचते तो बेटा-बहू बड़े
उत्साह से उन्हें लेने एयरपोर्ट आते। घर पहुँचने पर उनके आराम
का पूरा ख्याल रखा जाता। पोता-पोती दोनों दादू-दादू करते आगे
पीछे घूमते रहते। सिडनी में बेटे के घर में सारी सुख सुविधाएँ
थीं। घर में क्लीनर आता, गार्डनर आता, कुक भी आती थी, पर उनकी
रोटियाँ उनकी मॉडर्न बहू ही बनाती थी। तीन महीने में वे बेटे
के परिवार के साथ रहने की सारी हसरत पूरी कर लेते थे । बेटा
कभी-कभी व्हील चेयर में बिठा शॉपिंग मॉल ले जाता, जहाँ वे अपने
पसंद के सब्ज़ी, फल खरीद लेते। फिर कॉफी शॉप में बैठ कॉफी और
मफिन भी खा लेते। इस तरह से उनका मन भी बहल जाता। कभी पोती ज़िद
करके उन्हें बीच पर आइसक्रीम खिलाने ले जाती, कभी पोता उन्हें
ड्राइव पर ले जाता।
आगे...
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