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                     अफरा-तफरी 
					मची हुई थी। शहर के हर कोने से भय और घबराहट की गूँज सुनायी दे 
					रही थी। एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचते कोरोना वायरस 
					अब एलेग्ज़ेंडर नर्सिंग होम की दहलीज पर कदम रख चुका था जहाँ 
					कई उम्रदराज़ पहले से ही बिस्तर पर थे। सीनियर सिटीज़न के इस 
					केयर होम में अधिकांश रहवासी पचहत्तर वर्ष से अधिक की उम्र के 
					थे। कई लोग आराम से घूम-फिर सकते थे तो कई बिस्तर पर ही रहते। 
					कई को अपनी दिनचर्या निपटाने में किसी की मदद की आवश्यकता नहीं 
					होती तो कई पूरी तरह से मदद पर निर्भर थे। कई शारीरिक व मानसिक 
					दोनों रूप से अस्वस्थ थे, तो कई सिर्फ मानसिक रूप से अस्वस्थ 
					थे, वे चलते-फिरते तो थे पर ऐसे जैसे कि कोई जान नहीं हो 
					उनमें। उन्हें देखकर लगता था कि जिंदगी टूट-फूट गयी है, 
					जैसे-तैसे उसे समेट कर चल तो रहे हैं पर किसी भी क्षण बिखर 
					सकती है। 
 कोरोना के प्रहार को सहने की ताकत इन सीनियर सिटीज़न में बहुत 
					कम थी इसीलिये यह वायरस इसका फायदा उठाकर शहर के अधिकांश ऐसे 
					नर्सिंग होम को निशाना बना रहा था। अब तक सुरक्षित रहा यह केयर 
					होम अब इसके शिकंजे में फँस चुका था। एक के बाद एक कई लोगों की 
					रिपोर्ट पॉज़िटिव आ रही थी और उन्हें अस्पताल भेजा जा रहा था। 
					चौबीस घंटे खत्म होते-होते दस लोगों की मौत की खबर उनके 
					साथियों में निराशा और दहशत फैलाते हुए दीवारों से टकराकर 
					साँय-साँय कर रही थी। मौत का मंजर आँखों के करीब आकर दस्तक दे 
					रहा था।
 खौफ़ और खतरों से जूझते यहाँ के कर्मी अपनी जान की चिंता लिये 
					जैसे-तैसे इस खतरे से निपट रहे थे। कुछ पॉजिटिव होने से घर पर 
					एकांतवास में थे, कुछ इसकी आशंका में घर रुकना चाहते थे पर 
					मजबूरी में काम कर रहे थे। एक के बाद एक आती इन खबरों ने रोज़ा 
					को विचलित किया था। बेसब्री से प्रतीक्षा कर रही थी कि अपने 
					पड़ोसी स्टीव की कोई खबर मिल जाए उसे।
 
 जीवन के छियासी बसंत पार कर चुकी रोज़ा पर मौत की खबरों का 
					आतंक इस तरह छाया था कि नज़रें टीवी स्क्रीन से हट नहीं रही 
					थीं। गत दस वर्षों से यही नर्सिंग होम उसका घर था। पिछले कुछ 
					दिनों से सारे कर्मी इस तरह डरे हुए अपना काम कर रहे थे मानो 
					बिस्तर पर लेटे ये रहवासी मौत का पैगाम लिये खड़े हों उनके 
					लिये। सबने अपने आपको पूरी तरह कवर किया हुआ था, पता ही नहीं 
					चलता कि “यह है कौन”। आज तक कभी ऐसी स्थिति नहीं आयी थी कि काम 
					करने वाले उन सबके इर्द-गिर्द किसी रोबाट की तरह आएँ। हल्के 
					नीले रंग के प्लास्टिक के कवर से ढँके या यों कहें कि 
					प्लास्टिक का गाउन पहने हुए, हाथों में दास्ताने, मुँह पर 
					मास्क, पारदर्शी चश्मे में छिपी आँखों के सिवाय कुछ दिखाई नहीं 
					देता था।
 
 सूज़न, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट ने आकर आज दिवंगत हुए 
					सदस्यों के नाम बताये। स्टीव का नाम भी था उनमें। रोज़ा की 
					आँखें जैसे झपकना ही भूल गयी हों। कई साथियों के साथ उसका खास 
					दोस्त स्टीव उसे छोड़ कर चला गया था। अक्सर वे दोनों आपस में 
					बातें करते रहते थे। दोनों ने यहाँ के जीवन को खुशी-खुशी 
					स्वीकार कर लिया था। किसी को अब परिवार, बच्चों की प्रतीक्षा 
					नहीं होती क्योंकि वे दोनों एक दूसरे के अच्छे साथी बन गये थे। 
					उस बड़े कमरे में जहाँ चार लोगों के पलंग थे। एक ओर से दूसरी 
					ओर सिर्फ कपड़े का परदा था जो उनके अपने कमरे की सीमा था, उनका 
					अपना घर था। कोई किसी की चारदीवारी में नहीं झाँकता था। 
					बैठे-बैठे, सोए-सोए बातें कर लेते थे, ठहाके लगा लेते थे, 
					लंच-डिनर की टेबल पर साथ निभाते और टहलने साथ में चले जाते थे।
 कल स्टीव की रिपोर्ट कोरोना पॉज़िटिव आयी और उसे अस्पताल ले 
					जाया गया था, आज वह चल बसा था। बगैर कुछ कहे इस तरह उसका चले 
					जाना मन को स्वीकार ही नहीं हो रहा था। लग रहा था कि अभी कपड़े 
					की दीवार के उस पार से आवाज आएगी – “हे, रोज़, सब ठीक है? चलो, 
					घूमने चलें”
 “पाँच मिनट बाद चलते हैं स्टीव”
 उन पाँच मिनटों में वह अपने बाल ठीक करेगी, रूखे होठों पर 
					चॉपस्टिक लगाएगी और चप्पल पहन कर चल देगी उसके साथ। नीचे 
					बरामदे तक जाएँगे। फिर मौसम अच्छा होगा तो थोड़ा बाहर निकलेंगे 
					उसके बाद उसकी मजेदार बातों पर हँसते हुए ताश खेलने बैठेंगे। 
					अखबार पढ़ेंगे और फिर से अपने-अपने कमरे में कैद हो जाएँगे।
 
 इस तरह तो कोई दुनिया छोड़ कर चला नहीं जाता। रोज़ा के लिये यह 
					सिर्फ एकाकीपन ही नहीं था, बहुत कुछ था जो तकलीफ दे रहा था। 
					साथ वाले परदे की हिलती दीवारों को घूरते हुए महसूस हो रहा था 
					कि न जाने कल किसका नंबर है। कितने और लोग अस्पताल के लिये ही 
					नहीं, अपनी आखिरी यात्रा के लिये प्रस्थान कर रहे हों। वही 
					हुआ, अगली सुबह तक लगभग सारे लोग या तो जा चुके थे या बची हुई 
					अपनी चंद साँसें गिन रहे थे।
 
 शायद जीवन का सबसे दु:खद दिन था यह जब आसपास के सारे 
					जाने-पहचाने चेहरे कूच कर गए थे। रोज़ा न खा पायी थी, न सो 
					पायी थी। वह रात काटे नहीं कट रही थी। बहुत अंधेरी थी, इतनी 
					अंधेरी कि लग रहा था आज सूरज नहीं उगेगा। उसे भी महसूस होने 
					लगा था कि कुछ गलत है शरीर में, साँस लेने में तकलीफ होने लगी 
					थी, अजीब किस्म की बेचैनी थी। तमाम सामाजिक दूरियों के बावजूद 
					सूरज निकलने तक रोज़ा के शरीर में कोरोना के सारे लक्षण मौजूद 
					थे। उसे भी अस्पताल भेज दिया गया। कई मित्रों के हँसते हुए 
					चेहरों से भरा वह नर्सिंग होम मौत का अड्डा बन चुका था। वे 
					पलंग जो दिन हो या रात मदद की गुहार लगाते रहते थे, अब मौन थे। 
					एक साथ पैंतीस लोगों की मौत अब छत्तीस का आँकड़ा पूरा करने के 
					इंतज़ार में थी।
 
 इस महामारी में अस्पताल जाना तो बीमार को और बीमार ही करता। वह 
					जो देख रही थी, आँखें उसे कभी देखना नहीं चाहतीं। बाहर की लॉबी 
					में कहीं उल्टी करने की तो कहीं थूकने की आवाजें आ रही थीं। 
					चार-पाँच घंटों का इंतज़ार साइन-इन करने के लिये था। कुछ दीवार 
					का सहारा लेकर खड़े थे, कुछ फर्श पर ही लेट गए थे। अगले 
					चार-पाँच घंटों का इंतज़ार कॉरीडोर में पलंग के लिये था। रूम 
					तो खाली थे नहीं, सारी खाली जगहें, चाहे वह डॉक्टरों के बैठने 
					की हो या नर्सों के बैठने की, मरीजों के वार्ड में तब्दील हो 
					गयी थीं।
 
 खत्म होते संसाधनों के साथ अस्पताल प्रशासक एक साथ कई मोर्चों 
					से निपटते मरीजों के क्रोध से भी निपट रहे थे। गुस्से में एक 
					मरीज ने नजदीक से गुजरते एक डॉक्टर का मास्क खींच लिया था यह 
					कहते हुए कि – “हम बीमार हैं तो तुम भी साथ में बीमार हो जाओ 
					ताकि हम मरेंगे तो साथ में मरेंगे।”
 
 डॉक्टरों, नर्सों की सुरक्षा के साथ, घबराहट व निराशा में 
					धकेले गए इन रोगियों के आक्रोश को मुस्तैदी से रोकना भी एक 
					ज़्यादा जरूरी काम हो गया था। जान बचाने वाले उन फरिश्तों को 
					गालियाँ दी जा रही थीं। एक ओर मानवीयता अपना क्रूरतम रूप दिखा 
					रही थी तो दूसरी ओर उदात्त मानवीयता के चरम की परीक्षा थी, 
					लाशों को उठाने के लिये भी लोग नहीं मिल रहे थे। जीवित लोग 
					इलाज की प्रतीक्षा कर रहे थे व लाशों का ढेर अस्पताल के 
					प्रांगण में पड़ा अपने गंतव्य तक जाने की प्रतीक्षा कर रहा था। 
					पहले दिन के प्रकोप के बाद अस्पताल के वेन से लाशें जा रही 
					थीं। फिर वेन छोटे पड़ने लगे। बड़े कार्गो ट्रक बुलवाए गए। यह 
					भी बहुत मुश्किल हो रहा था। अस्पताल इमारत की हर मंजिल से ट्रक 
					तक पहुँचती लाशों को अस्पताल के कई दरवाजों से निकलना पड़ रहा 
					था, इससे ले जाने वालों के लिये, रास्ते के मरीजों के लिये, 
					सबके लिये खतरा था। अब खुले कार्गो ट्रक इस तरह खड़े किए गए कि 
					प्लास्टिक में लपेट कर, हर मंजिल की बालकनी से ऊपर से नीचे 
					सीधे लाश को ट्रक में डाला जा सके। यह किसी भी तरह से मानवता 
					का तिरस्कार नहीं था, यह तो ज़िन्दा बचे शेष लोगों को बचाने की 
					कोशिश भर थी, जिंदा लोगों को सम्मान देने का एक प्रयास भर था।
 
 घंटों इधर से उधर धकेले जाने के बाद रोज़ा को कॉरीडोर में रखा 
					गया था। कमरों की कमी, बिस्तरों की कमी, मास्क की कमी, 
					संसाधनों की कमी, सबसे ज्यादा वेंटिलेटर्स की कमी। अनगिनत 
					आवश्यक वस्तुओं की कमियों के चलते हर चेहरा परेशान था, काम के 
					बोझ से, मौत के खौफ से और मन के शोक से। सर्वसंपन्न इंसान की 
					सारी ताकतें इस वायरस ने झुठला दी थीं। ऐसा लगता जैसे इस बेबसी 
					का मखौल उड़ाता कोरोना वायरस ठहाके लगा रहा हो।
 
 रोज़ा का नंबर आ गया था, पलंग मिलने के साथ ही कॉरीडोर में जगह 
					मिलना इस बात का संकेत था कि अब इलाज जल्द ही चालू हो जाएगा। 
					उसका बिस्तर आरामदेह था। हर बेड के बीच आवश्यक दूरी के बाद 
					दूसरा बेड लगा था। सामने की कॉरीडोर की लाइन भी पूरी भरी थी। 
					रोज़ा के ठीक सामने एक और मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। 
					बीच के रास्ते से नर्स, डॉक्टर आते-जाते मरीजों को संकेत दे 
					देते कि बहुत कुछ चल रहा है वहाँ।
 
 इस महामारी के चलते किसी भी परिवार वाले को साथ रखने की इजाजत 
					तो थी ही नहीं। मरीजों के बीच घिरे स्वास्थ्यकर्मी मानों स्वयं 
					मौत को अपने शरीर में घुसने का न्यौता दे रहे थे। दूरियों को 
					निबाहते भी नजदीकियाँ तो थीं। ब्लड प्रेशर लेना, खून की जाँच 
					करना वेंटिलेटर लगाना, ये सारे काम बगैर छुए तो कर नहीं सकते 
					थे। कहाँ जाते बेचारे, मरते क्या न करते। जीवन-भर के अपने कड़े 
					परिश्रम के बदले उन्हें डॉक्टर का सम्माननीय पेशा मिला था। आज 
					वे उससे भागना चाह रहे थे, अपने उस फैसले पर शायद पछता भी रहे 
					हों। सारी काबिलियत को नकार कर आज उसी पेशे की वजह से मौत उनके 
					पीछे पड़ी थी।
 
 रोज़ा हैरान थी यह देखकर कि उसके ठीक सामने वाले पलंग पर एक 
					नवयुवक था जो गंभीर हालत में था। अभी तक तो वह यही सोच रही थी 
					कि साठ के ऊपर की उम्र के लोग ही इससे परेशान हैं। यह नवयुवक 
					तो अंदाजन पच्चीस-छब्बीस का होगा। रोज़ा को देख रही नर्स उसकी 
					भी देखरेख कर रही थी। उसकी हालत गंभीर थी। वेंटिलेटर्स कहीं 
					खाली नहीं थे। डॉक्टरों की फुसफुसाहट ने तय किया कि इन दोनों 
					मरीजों को बारी-बारी से वेंटिलेटर पर रखा जाए। जरूरत के हिसाब 
					से कभी रोजा को, कभी डिरांग को।
 
 पूरे दिन नर्स यही करती रही। उसकी ड्यूटी बदलते ही दूसरी नर्स 
					आयी। वह कह रही थी कि डिरांग की हालत अधिक खराब हो रही है। 
					डॉक्टर को बुलाया गया। दोनों की फुसफुसाहट से सुनायी दे रहा था 
					कि उसे ज्यादा समय के लिये वेंटिलेटर चाहिए वरना हम उसे बचा 
					नहीं पाएँगे। हकीकत तो यह थी कि इस बार-बार के परिवर्तन से 
					किसी को भी फायदा नहीं हो रहा था, रोज़ा और डिरांग दोनों ठीक 
					होते-होते फिर साँस के मोहताज हो जाते। डॉक्टरों की पशोपेश समझ 
					रही थी रोज़ा। अपने बिस्तर से वह डिरांग का चेहरा अच्छी तरह 
					देख पा रही थी। बहुत मनमोहक नवयुवक था। सिर के घने-काले बाल और 
					हल्की-सी दाढ़ी। चेहरा कुम्हलाया होने के बावजूद आकर्षक 
					व्यक्तित्व का धनी होने के सारे प्रमाण दे रहा था।
 
 नर्स परेशान थी। इधर रोज़ा को राहत मिलती उधर डिरांग की बेचैनी 
					बढ़ जाती। उसकी व्याकुलता रोज़ा को बहुत परेशान कर रही थी। 
					दोनों की उम्र का बड़ा अंतर था। एकाएक उसे ख्याल आया कि – “मैं 
					तो वैसे ही छियासी पार करने वाली हूँ, न कोई आगे, न पीछे। और 
					जीकर करना भी क्या है मगर इस लड़के के सामने तो पूरी उम्र पड़ी 
					हुई है।” पास से निकलने वाले एक डॉक्टर से उसने कहा - “सर, 
					सुनिए, एक निवेदन है।”
 “मिस रोज़ा हम समझते हैं आपकी तकलीफ, जितना कर सकते हैं उतना 
					कर रहे हैं।” उसे लगा कि शायद शिकायत के स्वर हैं ये।
 “जी वही तो मैं भी कह रही हूँ। मुझे वेंटिलेटर की जरूरत अब 
					नहीं है।”
 “क्या मतलब?” वह एकाएक पलटा। चश्मे से बाहर आती आँखों ने न 
					समझने का संकेत दिया।
 “मैं ठीक हूँ। डिरांग को अधिक जरूरत है वेंटिलेटर की।”
 “मिस रोज़ा, आप क्या कह रही हैं!”
 “जी, मैं यही चाहती हूँ कि मुझे वेंटिलेटर लगाने के बजाय आप 
					उसे ही लगा रहने दें। देखो, मैं तो वैसे भी अपनी उम्र से 
					ज्यादा जी चुकी हूँ।”
 
 डॉक्टर रोज़ा के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
 उसे दुविधा में देख रोज़ा अपनी हकलाती आवाज पर जोर देकर कहने 
					लगी – “मुझे इतना-सा कर्तव्य पूरा करने दें, उस नौजवान बच्चे 
					को बचाने दें।”
 हतप्रभ-सा डॉक्टर डिरांग को देखने लगा। उसके लिये दोनों की 
					चिंता बराबर थी। उम्र, रंग, धर्म, जाति का भेदभाव किए बगैर 
					जीवन रक्षा करना उन सबकी ड्यूटी थी। लेकिन रोज़ा के प्यार भरे, 
					इंसानियत के आग्रह को स्वीकार करने में उसे कोई झिझक भी नहीं 
					थी।
 युवक की तबीयत बिगड़ती जा रही थी।
 “जल्दी कीजिए उसकी जान बचाइये”
 
 न पेपर था, न हस्ताक्षर, न नौकरी की चिंता, अगर कोई चिंता थी 
					तो वह थी एक जीवन बचाने की। बगैर किसी देरी के रोज़ा का समय भी 
					डिरांग को दे दिया गया। एक ऐसा काम जिसके बारे में वह स्टीव को 
					जरूर बताती, खैर, ऊपर जाकर बता देगी। वह भी खुश होकर कहेगा – 
					“रोज़, तुम सचमुच रोज़ हो, जीवन की खुशबू फैलाती हो।”
 यह सुनकर निश्चित रूप से रोज़ा के गाल लाल हो जाएँगे।
 
 एक घंटे का समय बीत चुका था। आधी जगी,
  आधी 
					सोयी वह स्टीव से बातें कर रही थी। डिरांग की आँखें धीरे-धीरे 
					खुलने लगी थीं, रोज़ा की बंद होने लगी थीं। किन्तु उसके होठों 
					पर मुस्कान थी क्योंकि सामने स्टीव खड़ा था, उसका हाथ पकड़ने 
					के लिये। जीवन का लेन-देन हो गया था। मौत ने आमंत्रण स्वीकार 
					कर लिया था। ऊपर वाली छत धुंधलाने लगी थी। पल भर में लिया गया 
					फैसला सुकून की मौत दे गया था। 
 अपनी मृत्यु वरण करने का सुख हर किसी को नहीं मिलता, रोज़ा को 
					मिला था। काठ की हांडी स्वयं चूल्हे पर चढ़ गयी थी ताकि आग 
					बरकरार रहे।
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