आतंक के चरम संसाधन-
जैविक एवं रासायनिक हथियार
—डा
गुरू दयाल प्रदीप
हमारे
लिए न तो युद्ध कोई नया शब्द है और न ही आतंकवाद। संभवत:
मानव समाज के प्रादुर्भाव एवं विभिन्न सभ्यताओं के विकास
तथा विनाश के लगभग हर पन्ने पर इनकी मुहर लगी हुई है। यहाँ
तक कि मानवता, प्रेम, शांति एवं ईश्वर में विश्वास जगाने
वाले अधिकतर धर्मावलंबियों और इनके ठेकेदारों ने भी
अपने–अपने धर्म के प्रचार–प्रसार के लिए समय–समय पर इनका
सहारा लेने में परहेज नहीं किया। इनके तौर–तरीके और
परिभाषाएँ भले बदलती रही हों परंतु मूल उद्देश्य एक ही रहा
है – किस प्रकार हम दूसरों पर विजय प्राप्त करें, कैसे उन
पर शासन करें एवं उन्हें अपने अनुसार जीने के लिए मजबूर
करें।
इस तथाकथित विजय की लालसा ने हमें हर युग में युद्ध के
नए–नए संसाधनों की खोज में लगाए रखा – शारीरिक युद्ध–कौशल
में दक्षता, तीर–धनुष, तलवार, भाले–बर्छी, गोली–बंदूक,
तोप–बारूद, बम आदि स्थितियों को पार करते हुए आज हम आणविक
हथियारों एवं प्रक्षेपास्त्रों के ढेर पर खड़े हो कर अपने
ही सर्वनाश को न्योता दे रहे हैं। इनसे भी जी नहीं भरा तो
इस दिशा में एक कदम आगे बढ़ाते हुए अब हम सर्वनाशी जैविक
एवं रासायनिक हथियारों की खोज में जुटे हुए हैं। इन
हथियारों की सहायता से हजारों–लाखों लोगों को पल भर में
मौत की नींद सुलाया जा सकता है या फिर तरह–तरह की
बीमारियों के चपेट में ला कर घिसट–घिसट कर जीने–मरने के
लिए बाध्य किया जा सकता है और वह भी बिना उनकी पूर्व
जानकारी के। जब तक लोगों को इस प्रकार के आक्रमण की
जानकारी होगी तब तक संभवत: बहुत देर हो चुकी होगी। कैसी
विडंबना है कि जो राष्ट्र इनकी खोज में सबसे आगे–आगे दौड़
रहे हैं वही आज सबसे अधिक डरे हुए हैं कि कहीं कोई तथाकथित
गैरजिम्मेदार राष्ट्र या आतंकवादी गिरोह ऐसे हथियारों को न
विकसित कर ले अथवा कहीं से इन्हें हथिया न ले।
खाड़ी युद्ध के समय अमेरिका जैसी महाशक्ति को इराक के
तथाकथित जैविक एवं रासायनिक हथियारों का डर सबसे ज्यादा
सता रहा था क्योंकि उनकी खुफिया तंत्र की जानकारी के
अनुसार इराक ने ऐसे हथियारों के संबंध मे विस्तृत अनुसंधान
किया है और इनको बड़ी मात्रा में जमा कर रखा है। हाँलाकि उस
यद्ध में उनका भय निराधार साबित हुआ। पिछले वर्ष ११ सितंबर
को वर्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादियों द्वारा हमले के बाद
जैविक एवं रासायनिक हथियारों के हमले का डर अमेरिका को एक
बार फिर से सताने लगा। उसे सबसे बड़ा डर इराक जैसे देशों से
था क्यों कि उसका मानना था कि ये देश आतंकवादियों को शरण
देते हैं और उन्हें ऐसे हथियार भी दे सकते हैं या फिर
स्वयं इनका दुरुपयोग कर सकते हैं। इसी भय के कारण हाल ही
में इराक पर आक्रमण भी किया गया और ऐसे हथियारों की खोज
वहाँ आज भी चल रही है, जिसमें फिलहाल कोई उल्लेखनीय सफलता
नही मिली है।
क्या हैं ये हथियार, कैसे काम करते हैं ये और क्यों लोग
डरे हुए हैं इनसे?
आइए, हम इन पर खोज परक दृष्टि डालें।
सबसे पहले, रासायनिक हथियार के रूप में क्लोरीन गैस का
दुरुपयोग जर्मनी ने प्रथम विश्व युद्ध के समय प्रभावी रूप
से किया था। यह गैस आसानी से किसी भी फैक्टरी में साधारण
नमक की सहायता से बनाई जा सकती है एवं इसका दुष्प्रभाव
सीधा फेफड़े पर पड़ता है। यह गैस फेफड़े के ऊतकों को जलाकर
नष्ट करती है। जर्मनी ने इस गैस की कई टन मात्रा को
वायुमंडल में छोड़ कर एक प्रकार के कृत्रिम बादल के निर्माण
में सफलता प्राप्त की एवं हवा के बहाव के साथ इसे वे
दुश्मन की ओर भेजने में सफल हुए। इस गैस की भयावह मारक
क्षमता को ध्यान में रख कर १९२५ में इस जैसे किसी भी
विषैले रसायन तथा बीमारियाँ फैलाने वाले जीवाणु को हथियार
के रूप में दुरुपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए एक संधि पर
विश्व के अधिकांश देशो ने हस्ताक्षर किए। फिर भी इस संबंध
में चोरी–छुपे अनुसंधान–कार्य चलते रहे ताकि इनका उपयोग और
भी प्रभावी एवं नियंत्रित रूप से किया जा सके। द्वितीय
विश्व युद्ध के समय जर्मनी में हिटलर के कुख्यात
गैस–चैम्बर्स से भला कौन अनजान है?
आज–कल वैज्ञानिकों का ध्यान कीट–नाशक दवाओं में पाए जाने
वाले बहुतेरे विषैले रसायनों को और भी प्रभावी हथियार के
रूप में इस्तेमाल करने पर है। इन रसायनों के दुष्प्रभाव की
भयावहता का अनुमान हम भोपाल स्थित कीट–नाशक दवाएँ बनाने
वाली कार्बाइड फैक्टरी में दुर्घटनावश २ दिसंबर १९८४ के
दिन फॉस्ज़ीन एवं मेथिल आइसो साइनेट के रिसाव से लगा सकते
हैं । कुछ ही पलों में हजारों की जानें सोते सोते ही चली
गईंं और लाखों आज भी इसके दुष्प्रभाव को झेल रहे हैं। छोटे
पैमाने पर १९९५ में ऑम सिन्रिक्यू नामक आतंकवादी संस्था के
लोगों ने टोकियो शहर के एक सब–वे में ‘सेरिन’ नामक
स्नायु–तंत्र को प्रभावित करने वाली गैस का रिसाव कर
हजारों लोगों को पल भर में घायल कर दिया और बारह लोगों को
मौत की नींद सुला दिया। कहा जाता है कि सद्दाम हुसैन के
सिपहसालारों ने इराक में कुर्दों के विद्रोह को दबाने के
लिए संभवत: ऐसे ही किसी रासायनिक हथियार का उपयोग कर
हजारों कुर्दों को मौत की नींद सुला दिया।
स्नायु –तंत्र की कोशिकाएँ सूचना–संप्रेषण के लिए
‘एसिटिलकोलीन’ नामक रसायन का स्राव करती हैं। मांसपेशियों
का संकुचन भी स्नायु–तंत्र की सूचना संप्रेषण प्रणाली पर
ही निर्भर करता है। यदि स्नायु–तंत्र की कोशिकाओं से
एसिटिलकोलीन को न हटाया जाय तो हमारे शरीर की मांसप्रशियाँ
अनियंत्रित रूप से लगातार संकुचित होने लगेंगी। और यदि ऐसा
वक्ष एवं उदर को अलग करने वाले डायाफ्राम की मांसपेशियों
के साथ हुआ तो व्यक्ति घुट कर मर जाएगा। एसिटिलकोलीन को
स्नायु–तंत्र की कोशिकाओं से हटाने के लिए 'कोलीनस्टरेज़'
नामक एन्ज़ाइम की आवश्यकता पड़ती है। ‘सेरिन’ एवं ‘वीएक्स’
जैसी जहरीली गैसें उपरोक्त एन्ज़ाइम से प्रतिक्रिया कर उनके
एसिटिलकोलीन को हटाने के कार्य में बाधा उत्पन्न करती हैं,
परिणाम स्वरूप पीड़ित व्यक्ति की मृत्यु कुछ ही पलों में दम
घुटने से हो जाती है। हमारे फेफड़ों में उपरोक्त गैसों की
एक मिली ग्राम की मात्रा ही जीवनलीला समाप्त करने के लिए
पर्याप्त है।
मस्टर्ड एवं लेविसाइट जैसी गैसों का दुष्प्रभाव त्वचा पर
छाले एवं फेफड़े के ऊतकों के विनाश के रूप में देखा जा सकता
है। मस्टर्ड गैस का चलन तो प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही
है। इसकी दस मिली ग्राम की मात्रा ही मृत्यु के लिए
पर्याप्त है। वैसे तो बहुत से विषैले रसायन हैं जिनका
दुरुपयोग रासायनिक हथियारों के रूप में हो सकता है, परंतु
उपरोक्त रसायन सर्वाधिक भय उत्पन्न करने वाले हैं।
जैविक हथियार
अधिकांश बीमारियों की जड़ में जीवाणु होते हैं, यह बात बहुत
पहले से सर्वविदित है। इतिहास साक्षी है कि एंटीबायोटिक्स
एवं इसी प्रकार की अन्य औषधियों की खोज के पहले प्लेग तथा
हैजे जैसी महामारी ने सैकड़ों–हजारों की संख्या में लोगों
की जान ली है और आज भी हम एड्स, कैसर तथा सार्स जैसी
बीमारियों से मुक्ति का रास्ता तलाशने में लगे हुए हैं। यह
कैसी विडंबना है कि दूसरी ओर हम इन्हीं जीवाणुओं को हथियार
के रूप इस्तेमाल कर हजारों –लाखों की जान लेने के चक्कर
में भी पड़े हुए हैं। यह स्थिति न्युक्लियर एवं रासायनिक
हथियारों के दरुपयोग से भी खतरनाक है। कारण, इनका उपयोग
किसी शत्रु देश ने कब किया, यही पता करना मुश्किल होगा तो
भला हम उनसे लड़ेंगे कैसे। और यदि किसी तरह इनके बारे में
पता भी कर लें भी कोई लाभ नही होने वाला है। कारण, ये कोई
रोग फैलाने वाले सामान्य जीवाणु तो होंगे नहीं, बल्कि इनके
जेनेटिकली परिमार्जित रूप होंगे, जिनके विरुद्ध सामान्य
एंटीबायाटिक्स काम नही कर पाएँगे। जब तक हम इनके विरुद्ध
कारगर औषधि की खोज करेंगे तब तक संभवत: बहुत देर हो चुकी
होगी और शायद संपूर्ण मानव जाति ही विनाश के कगार पर पहुँच
चुकी होगी।
ऐसे जैविक हथियारों से आक्रमण के लिए किसी अत्याधुनिक एवं
मँहगे साधन की आवश्यकता नही होगी। इन्हें तो बस छोटे–मोटे
जानवरों, पक्षियों, हवा, पानी, मनुष्य आदि किसी भी साधन
द्वारा फैलाया जा सकता है। सार्स को फैलाने में मानव किस
प्रकार साधन का कार्य कर रहा है–यह इस प्रक्रिया का ज्वलंत
उदाहरण है। यदि हम मानव–मल या फिर जानवरों के मल से बनी
खाद को कुओं, तालाबों, पानी की टंकियों मे मिला दें तो इस
पानी को अंजाने पीने वाले तरह–तरह की खतरनाक एवं जानलेवा
बीमारियों के शिकार हो जाएँगे क्यों कि खाद में तरह–तरह के
खतरनाक एवं जानलेवा जीवाणु पलते हैं। उपरोक्त उदाहरण जैविक
हथियार के इस्तेमाल का सबसे सस्ता परंतु भौंड़ा तरीका है।
अब जरा कुछ ऐसे उदाहारणों पर ध्यान दिया जाय जो वास्तव में
खतारनाक हैं और लोग जिनसे सबसे अधिक डरते हैं।
ऐन्थ्रैक्स फैलाने वाला ‘बैसिलस ऐन्थ्रैसिस’ नामक
बैक्टिरिया को जैविक हथियार के रूप में आसानी से प्रयुक्त
किया जा सकता है। हाँलाकि यह बैक्टिरिया संक्रामक नहीं है
और मुख्य रूप से जानवरों में फैलता है, फिर भी खाने–पीने
से लेकर साँस के साथ इसके स्पोर हमारे शरीर में पहुँच कर
अंकुरित हो सकते हैं। यहाँ तक कि हमारी त्वचा में भी यदि
कोई घाव है तो वहाँ भी ये अंकुरित हो सकते हैं और कुछ ही
समय में इस बीमारी के जानलेवा लक्षण उत्पन्न हो सकते हैं।
साँस के साथ हमारे शरीर में आए स्पोर्स सात से दस दिन के
अंदर अम्कुरित हो कर बीमारी के लक्षण दिखाने लगते हैं।
बुखार, खांसी, सरदर्द, उल्टी, जाड़ा, कमजोरी, पेट और सीने
में दर्द, साँस लेने में परेशानी आदि इसके प्रारंभिक लक्षण
हैं, जो कुछ घंटे से लेकर कुछ दिन तक रहते हैं। फिर ये
लक्षण कुछ समय के लिए गायब भी हो सकते हैं। दूसरी बार इनके
लक्षण साँस की तकलीफ, पसीने के साथ बुखार के अतिरिक्त
त्वचा पर नीले धब्बों के साथ अंतत: मृत्यु के रूप में
प्रकट होते हैं।
खाने–पीने के साथ एंथ्रैक्स के स्पोर्स हमारे आहार नाल मे
पहुँच कर मितली, खूनी उल्टी, खूनी दस्त, पेट दर्द आदि के
लक्षण उत्पन्न करते हैं। २५ से ६० प्रतिशत लोगों की मृत्यु
भी हो जाती है। त्वचा पर इसका प्रभाव छोटे–छोटे उभारों के
रूप में दीखता है जो शीघ्र ही फोड़े का रूप ले लेता है
जिससे पानी के समान पतला पीव बहता रहता है। प्रारंभिक
लक्षणों के समय इसका निदान सिप्रोफ्लॉक्सेसिन नामक
एंटीबॉयोटिक द्वारा किया जा सकता है परंतु बाद में केवल इस
बैक्टिरिया को नष्ट किया जा सकता है, इस बीमारी के लक्षणों
को नहीं।
वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद आतंकवादियों ने इस
बैक्टिरिया के स्पोर्स को पाउडर के रूप में पोस्ट द्वारा
फैलाने का प्रयास किया जिससे अमेरिका के लोग काफी आतंकित
हो गए थे। स्माल पॉक्स जिसे हम चेचक के नाम से भी जानते
हैं, सदियों से एक जानलेवा बीमारी के रूप मे कुख्यात रही
है। इसकी चपेट मे आकर लाखों अपनी जान गँवा बैठे और उससे भी
कई गुना अधिक लोग अपनी आँखें गँवा चुके । कितने तो चेहरे
और शरीर पर स्थाई रूप से भयानक दाग के साथ कुरूपता का जीवन
बिताने के लिए बाध्य हुए। उन्नीसवीं एवं बीसवीं सदी में
वैरियोला नामक वाइरस द्वारा फैलने वाली इस बीमारी से
वैक्सिनेशन की सहायता से पूरे संसार को मुक्ति मिल गई।
१९७५ के बाद इस बीमारी का कोई भी मरीज सामने नहीं आया है
फिर भी लोगों को भय है कि कहीं कोई आतंकवादी गिरोह अथवा
कोई सिरफिरा तानाशाह इस वाइरस के किसी जेनेटिकली
परिमार्जित रूप का इस्तेमाल कभी जैविक हथियार की तरह न कर
दे।
इसी प्रकार हीमोरेजिक बुखार उत्पन्न करने वाला आर ए नए
प्रकार का इबोला वाइरस भी जैविक हथियार के रूप में
प्रयुक्त किया जा सकता है। इस वाइरस से ग्रसित रोगी की
पहचान सबसे पहले १९७५ में डेमोक्रेरटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो
में हुई थी। इसके संक्रमण का प्रभाव २ से २१ दिनों के अंदर
अचानक दीखता है। बुखार, सरदर्द, जोड़ों एवं मांसपेशियों में
दर्द आदि इसके प्रारंभिक लक्षण हैं। बाद में दस्त, उल्टी
एवं पेट दर्द के लक्षण भी उत्पन्न होते हैं। कुछ रोगियों
में त्वचा पर ददोरे, लाल आँखें तथा वाह्य एवं आंतरिक
रक्तश्राव आदि लक्षण भी देखने को मिलते हैं। इस बीमारी से
कुछ रोगी स्वत: ठीक हो जाते हैं तो कई मर भी जाते हैं।
बॉट्युलिन बैक्टिरिया द्वारा उत्पन्न विष के एक ग्राम का
अरबवाँ हिस्सा ही हमारे शरीर में लकवा उत्पन्न करने के लिए
पर्याप्त है। यह विष स्नायु कोशिकाओं से उन रसायनों का
स्राव रोक देता है जिनके द्वारा मांसपेशियों का संकुचन
होता है। जानवरों में खुरपका बीमारी फैलाने वाला
बैक्टिरिया भी जैविक हथियार के रूप में प्रयुक्त किया जा
सकता है।
बचाव के
उपाय
इन रासायनिक एवं जैविक हथियारों के आक्रमण से बचने के
हमारे पास क्या उपाय हैं, अब जरा इस बात पर भी ध्यान देने
की आवश्यकता है। जहाँ तक रासायनिक हथियारों के आक्रमण से
बचने का प्रश्न है, वास्तव में हमारे पास कोई ठोस एवं
कारगर उपाय नहीं है। युद्ध क्षेत्र में सैनिक गैस मास्क
एवं त्वचा को पूरी तरह ढकने वाले सूट पहन कर अपना बचाव कुछ
सीमा तक कर पाएँगे। उपरोक्त परिधान के अतिरिक्त नाना
प्रकार के वैक्सिन तथा विभिन्न प्रकार की एंटीबायोटिक्स की
भारी खुराक जैविक हथियारों के आक्रमण भी से बचाव में
सभंवत: सहायक सिद्ध हो सकती है। परंतु किसी देश की सारी
जनता, विशेष कर गरीब एवं विकासशील या अविकसित देश की जनता,
अपना बचाव कैसे कर पाएगी? क्या वह देश सुरक्षा के उपरोक्त
उपायों का खर्च वहन कर पाएगा? चलिए, एक क्षण के लिए मान भी
लिया जाए कि ऐसा संभव है तो क्या उपरोक्त उपाय पर्याप्त
होंगे? नहीं, कदापि नहीं। रसायनों के नए प्रकार एवं
जीवाणुओं की नई जेनेटिकली परिमार्जित किस्म बड़ी आसानी से
उपरोक्त सुरक्षा उपायों को भेद सकती है। और यही कारण है उन
रासायनिक एवं जैविक हथियारों से डरने का। फिलहाल हम केवल
प्रार्थना ही कर सकते है कि ईश्वर मनुष्य को सद्बुद्धि दे
और उसे ऐसा करने से रोके। |