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लघुकथाएँ

लघुकथाओं के क्रम में महानगर की कहानियों के अंतर्गत प्रस्तुत है
ऋता शेखर मधु की लघुकथा- दाग अच्छे हैं


सुबह नींद भी ठीक से खुली न थी कि फोन की घण्टी बजी। दूसरे शहर में रहकर नौकरी करने वाली बहू, जया का फ़ोन था। सुलभा ने फोन उठाया।
"मम्मी जी, मैंने फ्लाइट का टिकट बुक करा लिया है। परसों आ रही," जया ने चहकते हुए कहा।
"अरे वाह! स्वागत है बहू। पर बॉस ने तुम्हें आने की अनुमति कैसे दे दी।"
"मम्मी जी, कोरोनाकाल में काम तो घर से ही करना है। वह तो मैं वहाँ से भी कर लूँगी, यह जानते हुए भी वे अनुमति नहीं दे रहे थे। फिर मैंने बात ही ऐसी कही की वह मना नहीं कर पाए।"
"ऐसी कौन सी बात कही कि वह मान गया," सुलभा ने पूछा।
"बताऊँगी तो आप नाराज तो नहीं होंगी न," जया ने अटकते हुए कहा।
"नाराज क्यों होने लगी मैं। जया ! तुम आ रही इससे बढ़कर खुशी की बात मेरे लिए कुछ नहीं। कोरोना और लॉकडाउन ने अजीब सी परिस्थिति पैदा की है।"

"मम्मी जी, मैंने बॉस से कहा कि मैं छह महीने से ससुराल नहीं गयी। अपने पति से मैं छः महीने से दूर हूँ, इसके लिए सासू माँ ने मुझे खरी खोटी सुनाई है। मेरा वैवाहिक जीवन खतरे में है। यह सुनते ही वह छुट्टी देने को राजी हो गए। पर यह बात मुझे अंदर से तकलीफ दे रही कि मैंने आपके लिए ऐसा बोला। आपने डाँटना तो दूर, कभी कड़ी आवाज में भी कुछ नहीं कहा है।"
"तुमने मेरे लिए नहीं, सास नामक रिश्ते के लिए यह कहा, "कहती हुई सुलभा जोर से हँस पड़ी।
"मम्मी जी, आपको बुरा नहीं लगा,"उधर से जया की आवाज आई।
"बिल्कुल नहीं। मुझे अच्छा लगा कि तुमने मुझपर विश्वास करके यह बात बताई। किसी बदनाम रिश्ते का फायदा अच्छे काम के लिए उठाया, तो इसमें बुराई कैसी। अब आने की तैयारी करो। और हाँ, मैं तुम्हारे लिए गोलगप्पे और दही बड़े बनाकर रखूँगी। तुम्हें पसन्द हैं न।"
"जी मम्मी जी," जया खुश हो गयी थी।
मुस्कुराती हुई सुलभा रसोई में चाय बनाने चली गयी। सुबह की सुनहरी धूप खिड़की के रास्ते आकर उसकी आँखों में चमक उठी थी।

१ जून २०२१

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