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जैव आतंकवाद की वैश्विक चुनौती 
- संकलित  
हाल ही में नयी दिल्ली में शंघाई 
सहयोग संगठन (SCO) के पहले सैन्य चिकित्सा सम्मेलन में भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ 
सिंह ने कहा कि मौजूदा समय में वास्तविक खतरा जैव आतंकवाद है। उन्होंने एससीओ देशों 
के सशस्त्र बल चिकित्सा सेवाओं (ए एफ एम एस) से आग्रह किया कि युद्ध क्षेत्र में 
सैनिकों के लिये उत्पन्न होने वाली नई चुनौतियों से प्रभावी तरीके से निपटने के 
रास्ते तलाशें जाएँ। रक्षा मंत्री ने जैव आतंकवाद को संक्रामक रोग बताया और इस खतरे 
से निपटने के लिये ताकत बढ़ाने के महत्व को रेखांकित किया। इस सम्मेलन में २७ 
अंतर्राष्ट्रीय और ४० भारतीय प्रतिनिधि हिस्सा लिये। वर्ष २०२० में शंघाई सहयोग 
संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनने के बाद भारत ने पहली बार सैन्य सहयोग कार्यक्रम का 
आयोजन किया है। 
 
जैव आतंकवाद की अवधारणा 
 
आतंकवादियों द्वारा आतंक फैलाने के लिये भी अब जैव आतंकवाद की अवधारणा भी सामने आ 
रही है। आधुनिक काल में जैव आतंकवाद को ऐसी क्रूर गतिविधि के रूप में व्याख्यायित 
किया जाता है जिसके अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विषाणुओं, जीवाणुओं तथा विषैले 
तत्वों को मानव द्वारा ही प्राकृतिक अथवा परिवर्धित रूप में विकसित कर अपने लक्ष्य 
संधान हेतु किसी राष्ट्र के विरूद्ध निर्दोष जन, पशुओं अथवा पौधों को को गम्भीर 
हानि पहुँचाने हेतु योजनाबद्ध रूप से मध्यस्थ साधन के रूप में दुरूपयोगित किया जाता 
है।  
 
जैव आतंकवाद उन संबंधों को भी बताता है जिसमें अनियमित रूप से जैविक मध्यस्थों के 
रूप में घातक जीवाणुओं, विषाणुओं अथवा रसायनों के दुरुपयोग के द्वारा किसी राष्ट्र 
की सरकार या जनता को राजनीतिक या सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु धमकाया जाता 
है। प्रायः मनुष्य, जंतु एवं पादप समूह इसके लक्ष्य बनते हैं। वर्तमान समय में 
आत्मघाती जैव आतंकवाद की समस्या भी सामने आ रही है जिसमें आतंकवादी स्वयं को घातक 
रोगकारी संक्रमण से संक्रमित करने के पश्चात सामान्यजन के मध्य जा कर उन्हें भी 
संक्रमित कर देता है एवं अंततः स्वयं भी मर कर पूरे क्षेत्र को विनाशक रोग से भर 
देता है। 
 
जैविक हथियारों से आक्रमण के लिये छोटे मोटे जानवरों, पक्षियों, हवा, पानी, मनुष्य 
किसी का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस क्रिया द्वारा युद्ध सैनिकों और आम लोगों 
को इससे महामारी की ओर धकेल दिया जाता है। जैविक हथियारों से लोगों में भयानक रोग 
होने लगते हैं। जैविक हथियार का असर ज्यादा प्रभावशाली होता है और यह महामारी की 
तरह फैलता है। जैविक हथियार बनाना सस्ता होता है, और इससे १०० गुना अधिक लोगों को 
बहुत सस्ते में मारा जा सकता है। 
 
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 
 
जैवकीय युद्ध के प्रयास के उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। ईसा पूर्व छठवीं 
शताब्दी में मेसोपोटामिया के अस्सूर साम्राज्य के लोगों ने शत्रुओं के पानी पीने के 
कुओं में एक विषाक्त कवक डाल दिया था जिससे शत्रुओं की मृत्यु हो जाये। इसी प्रकार 
ईसा पूर्व १८४वीं सदी में विख्यात सेनापति हान्निबल ने मिट्टी के पात्रों में सर्प 
विष भरवा कर प्राचीन ग्रीक नगर पर्ग्मान में उपस्थित जलपोतों में फिंकवा दिया था। 
 
यूरोपीय मध्यवर्ती इतिहास में मंगोलों तथा तुर्की साम्राज्यों द्वारा संक्रमित पशु 
शरीरों को शत्रु राज्य के जल स्रोतों में डलवा कर संक्रमित करने के कई आख्यान मिलते 
हैं। प्लेग के महामारी के रूप में बहुचर्चित "श्याम मृत्यु" (ब्लैक डैथ) के फैलने 
का प्रमुख कारण मंगोलों तथा तुर्की सैनिकों द्वारा रोग पीडि़त मृत पशु शरीरों को 
समीपवर्ती नगरों में फेंका जाना बताया जाता है। 
 
जैवकीय युद्ध का एक उदहारण रूसी सैनिकों द्वारा ईसवी १७१० में स्वीडिश नगर की 
दीवारों पर प्लेग संक्रमित मृत पशु शरीरों के फेंके जाने का है। 
	
		
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	 जैवकीय हथियारों का विकसित 
	रूप में प्रयोग जर्मन सैनिकों द्वारा प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१८) में 
	एंथ्रेक्स तथा ग्लैंडर्स के जीवाणुओं द्वारा किया गया था। इस प्रकार के जैवकीय 
	हथियारों के प्रयोग पर जेनेवा संधि द्वारा ईसवी १९२५ में रोक लगा दी गयी थी 
	जिसके प्रतिबंध क्षेत्र का विस्तार सन् १९७२ में जैवकीय तथा विषाक्त शस्त्र 
	सम्मलेन के माध्यम से किया गया।  | 
	 
	
		
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	 जापान-चीन युद्ध (१९३७-१९४५) 
	तथा द्वितीय विश्व युद्ध (१९३९-१९४५) में शाही जापानी फौज की विशिष्ट शोध इकाई 
	(इकाई संख्या ७३१) ने चीनी नागरिकों तथा सैनिकों पर जैवकीय हथियारों के प्रयोग 
	किये जो बहुत प्रभावशाली नहीं सिद्ध हो पाए परन्तु नवीन अनुमानों के अनुसार 
	लगभग ५,८०,००० सामान्य नागरिक, प्लेग संक्रमित खाद्य पदार्थों के प्रयोग के 
	द्वारा प्लेग तथा हैजा से पीडि़त हुए थे।  | 
	 
	
		
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	 नाजी जर्मनों के जैवकीय 
	हथियारों के संभावित खतरे का प्रत्युत्तर देने के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका, 
	संयुक्त ब्रिटेन तथा कनाडा ने सन् १९४१ में जैवकीय हथियार विकास करने के 
	संयुक्त कार्यक्रम पर एक साथ कार्य किया तथा एंथ्रेक्स, ब्रुसेलोसिस तथा 
	बोटुलिनस के विषैले जैव हथियार तैयार किये परन्तु बाद में यह संभावित भय की एक 
	अतिरंजित प्रतिक्रिया के सिवा कुछ न सिद्ध हुआ।  | 
	 
	
		
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	 वर्ष २००१ के सितम्बर तथा 
	अक्टूबर महीने में संयुक्त राज्य अमेरिका में एंथ्रेक्स के आक्रमण के कई मामले 
	सामने आये थे जिसमें आतंकवादियों ने बहुतेरे एंथ्रेक्स संक्रमित पत्र संचार 
	माध्यमों तथा अमेरिकी कांग्रेस के कार्यालयों में भेजे जिसके कारण पाँच 
	व्यक्तियों की मृत्यु हो गयी। घटना ने राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 
	जैव सुरक्षा तथा जैव आक्रमण से बचाव के उपाय विकसित करने की आवश्यकता को 
	पर्याप्त बल प्रदान किया। 
	जैविक हथियार क्या हैं?  | 
	 
	
		
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	 कीटाणुओं, विषाणुओं अथवा 
	फफूँद जैसे संक्रमणकारी तत्वों जिन्हें जैविक हथियार कहा जाता है, का युद्ध में 
	नरसंहार के लिये इस्तेमाल किया जा सकता है। जैव आतंकवाद के जरिए बैक्टीरिया का 
	आक्रमण कई नई तकनीकों द्वारा किया जाता सकता है जो हथियारों से भी ज्यादा भयानक 
	हो सकता है।   | 
	 
	
		
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	 जैव आतंकवाद के वाहक के रूप 
	में १९० प्रकार के बैक्टीरिया, वायरस, फंगस पर्यावरण में मौजूद हैं। 
	एन्थ्रेक्स, प्लेग, बोटड्ढूलिज्म, सारमोलेला, टूलेरीमिया, ग्लैन्डर, एन्थ्रेक्स 
	जैसे खतरनाक जीव इसमें शामिल हैं। कई वाहक पाउडर के रूप में होते हैं। इन्हें 
	आसानी से पानी या हवा में छोड़ा जा सकता है या किसी के भोजन में मिलाया जा सकता 
	है। ये २४ घंटे के अंदर प्राणी और अन्य जीवों की जान ले सकते हैं। 
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नियंत्रण के 
प्रयास 
जैविक हथियार के निर्माण और 
प्रयोग पर रोक लगाने के लिये कई विश्व सम्मेलन हुए हैं। सबसे पहले १९२५ में जिनेवा 
प्रोटोकॉल के तहत कई देशों ने जैविक हथियारों के नियंत्रण के लिये बातचीत शुरू की। 
१९७२ में बायोलॉजिकल विपेन कन्वेंशन (Biological weapon Convention) की स्थापना हुई 
और २६ मार्च १९७५ को २२ देशों ने इसमें हस्ताक्षर किये। भारत १९७३ में बायोलॉजिकल 
विपेन कन्वेंशन (BWC) का सदस्य बना और आज १८२ देश इसके सदस्य हैं। 
चुनौतियाँ 
 विशेषज्ञों 
का कहना है कि जैव आतंकवाद की रोकथाम की क्षमता केवल पशु चिकित्सकों में ही है। 
विश्व स्तर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कमीशन फॉर जुनोसिस की स्थापना की है। इसके 
अंतर्गत जुनोसिस डिजीज कंट्रोल बोर्ड एवं कंट्रोल ऑफ वेक्टर बॉर्न डिजीज सेंटर 
कार्यरत हैं। भारत में इसे लेकर गंभीरता काफी कम है, जबकि आए दिन यहां आतंकवादी 
हमले होते रहते हैं। जुनोसिस से जुड़ी बीमारियों में ७० प्रतिशत से अधिक बीमारियाँ 
वन्यजीवों से पालतू पशुओं में स्थानांतरित हो जाती हैं, इसके बाद यह मानव में फैलती 
हैं। इंटरनेशनल वेटनरी स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आईवीएसए) एवं वाइल्ड लाइफ कंजरवेशन एंड 
एग्रो रूरल कंजरवेशन (डब्ल्यूएआरडी) ने वन विभाग महाराष्ट्र एनिमल एंड फिशरी 
यूनिवर्सिटी, नागपुर के पाँच नेशनल पार्क और पाँच टाइगर रिजर्व सेंटर को ध्यान में 
रखते हुए जल्द ही वाइल्ड लाइफ रिसर्च सेंटर और फॉरेनसिक रिसर्च सेंटर खोलने का 
प्रस्ताव दिया परन्तु उस पर अभी कार्य किया जाना बाकी है। नागपुर के पशु वैद्यकीय 
महाविद्यालय में जुनोसिस केंद्र की स्थापना का प्रस्ताव तो पारित हो चुका है, लेकिन 
निधि का निर्धारण नहीं होने से केंद्र शुरू नहीं हो पाया है। यह केंद्र प्राणियों 
से मानव और मानव से प्राणियों में रोगों की रोकथाम के लिये कारगर साबित हो सकता है। 
१ जून २०२०  |