इस
सप्ताह
समकालीन कहानियों में
भारत से मनोहर पुरी की कहानी
क्रेडिट कार्ड
''मम्मी देखो तो दरवाज़े पर कोई हैं। कितनी देर से
घंटी बजा रहा है।'' रेणू ने खीज भरे स्वर में अपनी माँ को आवाज़ देते हुए कहा।
''तुम भी तो सुन रही हो कि घंटी बज रही है। क्यों नहीं खोल देती दरवाज़ा।'' माँ ने
फोन के रिसीवर को अपने कान से थोड़ा दूर हटाते हुए उत्तर दिया। फिर कहा, ''देखती
नहीं मैं किसी से फोन पर ज़रूरी बात कर रही हूँ।''
''मैं क्यों देखूँ। होगा कोई तुम्हारा डिलीवरी मैन या फिर कूरियर वाला। मेरा तो कोई
कूरियर आता नहीं है। जब देखो कोई न कोई दरवाज़े पर खड़ा रहता है।'' रेणू ने अपने
कानों से हैड़ फोन हटाया और पैर पटकती हुई दरवाज़े की ओर चली। वह बुड़बुड़ा रही थी,
''कमबख्त इतनी ज़ोर से घंटी बजाते हैं कि पूरी तरह से ढके होने के बाद भी कान के
पर्दे फटने लगते हैं।''
तभी फिर से घंटी बजी तो उसके सब्र का बांध टूट गया। वह ज़ोर से बोली, ''आ रहे हैं
भाई, खोलते हैं। थोड़ा भी सब्र नहीं है।''
दरवाज़ा खोला तो आशा के अनुरूप एक लड़का हाथ में एक पैकेट लिए खड़ा
था।
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कैलाशचंद्र का व्यंग्य
खरबूजे के रंग
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पर्यटन में राजेन्द्र अवस्थी का आलेख
हरे समंदर में मोतियों की माला
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गंगाप्रसाद विमल का विवेचन
ओदोलेन स्मेकल की कविता
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हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध
अशोक के फूल
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पिछले सप्ताह
कुलभूषण व्यास का व्यंग्य
बात छींक की
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रचना प्रसंग में पूर्णिमा वर्मन का आलेख
समाचार लिखने की कला
रसोईघर में
मालपुए की व्यंजन विधि
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स्वाद और स्वास्थ्य में
अमृतफल अमरूद
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समकालीन कहानियों में
यू.के. से शैल अग्रवाल की कहानी
जिज्जी
मेरी
जिज्जी हँसती हैं तो बहुत अच्छी लगती हैं, वैसे एक राज़ की बात बताऊँ
मेरी जिज्जी जब रोती हैं तब भी बहुत अच्छी लगती हैं क्योंकि जिज्जी
जब रोती हैं तो निःशब्द आँसू एक शांत नदी के बहाव की तरह चुपचाप बहते
चले जाते हैं, बिना कोई आवाज़ किए...बिना कोई लहर उठाए। उनकी गुनगुनी
गर्मी में भीगते हुए मन को एक अजीब-सी शांति मिलती है, मानो गरम पानी
के सोते में डुबकी मार ली हो। मेरी जिज्जी का तो पूरा अस्तित्व ही
ऐसा है... कोमल, सुखद और समझदार। वैसे आश्चर्य नहीं, अगर आपने जिज्जी
को कभी रोते न देखा हो क्योंकि जिज्जी ने तो अपने चारों तरफ़ हँसी और
मुसकुराहटों का एक अभेद्य किला बना रखा है। यह जिज्जी की पुरानी आदत
है। कितनी भी तकलीफ़ हो, दर्द हो, पर उनके लिए तो मानो इन शारीरिक
तकलीफ़ों का कोई अर्थ ही नहीं होता। माँ जब बचपन में छोटी-सी शरारत
पर मारते-मारते थक जातीं और जिज्जी उसके बाद भी बिना कुछ कहे-बताए,
चुपचाप होमवर्क करने बैठ जाती थीं, तो मैंने अक्सर माँ को बड़बड़ाते
सुना था... "भगवान ने बड़ी ही ढीठ लड़की पैदा की है।" पर मेरी जिज्जी
तो मोम-सी नरम थीं।
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अनुभूति
में-
विनोद श्रीवास्तव, नीरज गोस्वामी, अनिलप्रभा कुमार, शंभु
चौधरी और डॉ. चंद्रप्रकाश वर्मा की नई रचनाएँ |
कलम गही नहिं हाथ-
कविताएँ क्या है, मन की आवाज़ हैं या कला की दीवार, शिल्प का
शृंगार हैं या उपदेश का भंडार? क्या वे समाज पर व्यंग्य करती हैं या उसे
कोई दिशा देने का दम रखती हैं? क्या उन्हें छंद में बंद रहना चाहिए या
मुक्त विहार करना चाहिए, क्या कविताओं को गद्य के क्षेत्र में घुसपैठ
करनी चाहिए? क्या हर देश की कविताओं में भिन्नता है?
क्या ऐसा कुछ है जो विश्व भर की कविताओं में एक समान है।
क्या दो व्यक्तियों की कविता को एक मानदंड से मापा जाना उचित है, क्या
जीवन में जो कुछ है वह कविता में आना उचित है? कविता के बारे में बहुत
कुछ है जिसे जानना अभी बाकी है। हाँलाँकि विभिन्न देशों के समीक्षकों ने
इस संबंध में बड़ी बड़ी परिभाषाएँ लिखी हैं, अपनी अपनी तरह से कविता को
जाँचने, समझने और उसके नियमों व प्रवृत्तियों की समकालीन परीक्षाएँ चलती
रही हैं पर इस पर भी सवाल उठते रहे हैं कि परीक्षा के ये मानदंड उचित भी
हैं या नहीं। इसी सबको एक बार फिर एक नई दिशा, एक नई परख के साथ सोचने और
बात करने के लिए वेब पत्रिका कृत्या द्वारा चंडीगढ़ में १४
से १६ नवंबर तक एक कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। तीन दिन तक
चलने वाले इस कार्यक्रम में देश विदेश के तीस कवि और कविता समीक्षक भाग
ले रहे हैं। आयोजन कैसा रहा, क्या सार्थक घटा और क्या हमेशा की तरह छूट
गया इस संबंध में अगले अंक में बात होगी।
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पूर्णिमा वर्मन (टीम अभिव्यक्ति)
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सप्ताह का विचार- कष्ट पड़ने पर भी साधु पुरुष मलिन नहीं
होते, जैसे सोने को जितना तपाया जाता है वह उतना ही निखरता है।
--कबीर |
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