इस
सप्ताह
वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों
के स्तंभ गौरवगाथा में यशपाल की कहानी
करवे का व्रत
कन्हैयालाल अपने दफ्तर के
हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह
उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब
ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा
तो उसके अंतरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः
ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे
दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं। हेमराज
को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो
करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक
नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना
रहना पड़ता है। उसकी ज़रूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में।
मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे।
डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर
दे।
*
श्यामल किशोर झा का व्यंग्य
आम, बाढ़ और आम आदमी
*
सुधा अरोड़ा की लघुकथा
वर्चस्व
*
श्रीराम परिहार का ललित निबंध
खिड़की खुली हो अगर
*
घर परिवार में डॉ सुशील जोशी का आलेख
आलू, पृथ्वी, स्वच्छता, और मेंढक
*
|
|
|
पिछले सप्ताह
राजेन्द्र त्यागी की व्यंग्य-कथा
सत्ता सुखोपभोग करो मंदोदरी
डॉ. नरेन्द्र कोहली का दृष्टिकोण
अभागा कौन
*
डॉ. सुधा पांडेय की कलम से पर्व परिचय
विजयदशमी और नवरात्र
*
विजयदशमी के अवसर पर
विशेष
दशहरा विशेषांक समग्
*
समकालीन कहानियों में भारत से
दीपक शर्मा की कहानी
रेडियोवाली मेज़
'रेडियो
वाली मेज़ कहाँ गई?'' गेट से मैं सीधी बाबू जी के कमरे में दाखिल हुई
थी।
माँ के बाद अपने मायके जाने का वह मेरा पहला अवसर था।
''वह चली गई है,'' माँ की कुर्सी पर बैठ कर बाबू जी फफक कर रो पड़े।
अपने दोनों हाथों से अपनी दोनों आँखों को अलग-अलग ढाँप कर।
''सही नहीं हुआ क्या? तीन महीने पहले हुई माँ की मृत्यु के समय मेरे
विलाप करने पर बाबू जी ही ने मुझे ढाढ़स बँधाया था, ''विद्यावती की
तकलीफ़ अब अपने असीम आयाम पर पहुँच रही थी। उसके चले जाने में ही
उसकी भलाई थी..?''
''नहीं।'' बाबू जी अपनी गरदन झुका कर बच्चों की तरह सिसकने लगे,
''हमारी कोशिश अधूरी रही...'' ''आपकी कोशिश तो पूरी थी।'' पिछले बारह
सालों से चली आ रही माँ के जोड़ों की सूजन और पीड़ा को डेढ़ साल पहले
डॉक्टरों ने 'सिनोवियल सारकोमा' का नाम दिया था। |
|
अनुभूति में-
दिव्यनिधि शर्मा, राजेन्द्र
पासवान घायल, शामिख फ़राज़, पंकज त्रिवेदी और 'विकल
जलालाबादी'
की नई रचनाएँ |
|
|
कलम
गही नहिं हाथ
-
जब हम किसी से मिलते है पहली नज़र उस
व्यक्ति के चेहरे पर ही जाती है, चेहरा यानी मुख। मुख से व्यक्ति के
भूगोल, इतिहास, सभ्यता-संस्कृति और
मनोविज्ञान की जानकारी मिल जाती है। भूगोल यह कि व्यक्ति चीनी है या
अमरीकी, इतिहास यह कि वह बच्चा है या बूढ़ा, सभ्यता-संस्कृति
यह कि वह आधुनिक है या पारंपरिक और मनोविज्ञान यह कि वह दुखी है
या क्रोधित आदि। इस प्रकार महत्वपूर्ण होने के कारण ही मुख से मुख्य शब्द
बना है, पर मुख और मुख्य दो अलग शब्द हैं। हम मुख के स्थान पर
मुख्य का प्रयोग नहीं कर सकते। मुख के साथ पृष्ठ जुड़ा हो तो
पत्र-पत्रिकाओं का मुखपृष्ठ बनता है- अर्थात वह पृष्ठ जो पत्रिका का
परिचय उसी प्रकार दे जैसे मुख किसी व्यक्ति का देता है। लेकिन वेब पर
मुखपृष्ठ भयंकर दुविधा में है। प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों तक
के वेब
संस्करण इस दुविधा से ग्रस्त हैं। कहीं मुख्य पृष्ठ है, कहीं मुख-पृष्ठ
है कहीं मुख पृष्ट तो कहीं पहला पन्ना। वेब के हिन्दी कर्मियों में हिन्दी के प्रति
प्रेम तो है लेकिन इसके लिए जो समर्पण चाहिए वह पूरी तरह गायब है।
विवाद करने वाले भी कम नहीं, ''मुख्य पृष्ठ में बुराई क्या है,
अंग्रेज़ी में भी तो मेन पेज ही कहा जाता है? बुरी तो कोई
चीज़ नहीं, बात सिर्फ इतनी सी है कि जब सुंदर, सही और सटीक शब्द हमारे
पास हैं तो हम उन्हें ठीक से समझने की बजाय बात बात पर अंग्रेज़ी से
उधार लेने क्यों पहुँच जाते हैं? --पूर्णिमा वर्मन
|
|
क्या
आप जानते हैं?
पुरी के जगन्नाथ मंदिर में प्रतिदिन इतना प्रसाद बँटता है कि ५०० रसोइए और ३०० सहयोगी
रोज़ काम करते हैं। |
सप्ताह का विचार- काम
करने में ज्यादा श्रम नहीं लगता, लेकिन यह निर्णय करने में
ज्यादा श्रम करना पड़ता है कि क्या करना चाहिए। - अज्ञात |
|