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दृष्टिकोण

अभागा कौन
--डॉ. नरेन्द्र कोहली
 

रायबरेली में रामायण मेला हो रहा था। प्रयाग विश्वविद्यालय के एक विद्वान प्रोफेसर मंच पर आए। उन्होंने चर्चा आरंभ करते हुए कहा, ''राम जी ने अपने जीवन में शायद ही कोई सुख पाया हो। शैशव कष्ट में कटा। युवा होते ही वन भेज दिए गए। वहाँ कष्ट ही कष्ट थे। लौटे तो पत्नी को त्यागना पड़ा। अंत में स्वयं भी जल समाधि ली। ऐसा जीवन सुखी जीवन नहीं हो सकता। मेरा मन होता है कि कहूँ कि राम तो अभागे थे।

मेरी उन सारे विद्वानों से असहमति है, जो राम जी के जीवन को इस कोण से देखते हैं, जिन्हें राम के सौभाग्य में संदेह है। यह ठीक है कि राम ने अपने जीवन में बहुत सारी कठिन-कठोर परीक्षाएँ दी हैं। बहुत कष्ट सहे, उनका जीवन तनिक भी सरल नहीं था। अपनी असाधारणता के उन्होंने जितने भी प्रमाण दिए, वे सब एक साधारण व्यक्ति के लिए बहुत कष्टदायक थे। पर जिस राम ने इस सारी मानवता को प्रभावित किया, जिस राम के नाम पर आज हम, अपने जीवन की आस्था पाते हैं, वह राम अभागा नहीं हो सकता। जो विद्वान ऐसा सोचते हैं, शायद वे बहुत हल्के ढंग से यह बात कहते हैं। गंभीरता से ऐसी बात वे भी नहीं मानते होंगे। यह मेरा विश्वास है।

तुलसीदास पर लिखा गया नागर जी का एक उपन्यास है 'मानस का हंस'। उसमें तुलसीदास की जन्मकुंडनी को लेकर यह चर्चा आती है कि यह व्यक्ति वैरागी होगा, संन्यासी होगा, भिक्षा माँगेगा। और दूसरी ओर यह भी कहा गया कि यह व्यक्ति अत्यंत महान होगा, उसका यश युग युगों तक बना रहे गा, उसका साम्राज्य अकबर से भी विशाल और दीर्घकालीन होगा। तो ज्योतिषियों में यह परस्पर चर्चा का विषय है कि वह अभागा है या अभागा नहीं है? मुझे लगता है कि अभागा तो वह होता है, जो सारे सुख पाता है, खाता है और सोता है।

जिस समय स्वामी विवेकानन्द गाजीपुर गए, वहाँ पवहारी बाबा से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उन्हें अपना गुरु बनाने की बात सोची। उन पवहारी बाबा से स्वामी जी ने प्रश्न किया कि ''इस संसार में जो धर्म के मार्ग पर चलता है, वही क्यों कष्ट पाता है?'' इसमें कुछ भी झूठ नहीं है। महाभारत में द्रौपदी और भीम युधिष्ठिर के पीछे पड़े रहते हैं कि तुम क्या धर्म धर्म, भगवान भगवान रटते रहते हो -- क्या पाया तुमने? अपने भाइयों और पत्नी के साथ वन वन भटक रहे हो। और वह देखो, अधर्मी दुर्योधन वहाँ हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठा है।

पवहारी बाबा ने कहा, ''क्या आप यह नहीं जानते कि भगवान जिससे रुष्ट होते हैं, उसको इतना सुख देते हैं कि वह भगवान को भूल जाता है और जिससे प्रेम करते हैं, उसको तिल-तिल जला कर उसकी शुद्धि करते हैं।''
अमृतलाल नागर ने भी कहा है, ''हमारे राम जी तो धोबी हैं। पटक-पटक कर मैल निकालते हैं।'' यदि राम जी पटकेंगे नहीं तो मैल निकलेगा नहीं। अपने आप को कोई नहीं पटकता। जितने महान चरित्र हुए हैं, वे संसार में सुख पाने के लिए नहीं आए थे। राम हों, श्रीकृष्ण हों, बुद्ध हों, महावीर हों - किसी का नाम आप ले लीजिए। वे सुख के भोग के लिए नहीं आए थे। मानवता को जगाने के लिए आए थे और यह जानते थे कि वे शरीर नहीं थे। जो प्रकट था, वह तो रूप और आकार था। उनका वास्तविक स्वरूप तो आत्मा था, जो आवृत्त था, अदृश्य था। स्वरूप तो सत चित और आनन्द है।

वस्तुत: वे सुख दुख के द्वंद्व से परे थे। उससे कहीं ऊँचाई पर स्थित थे। एक लक्ष्य ले कर आए थे। लक्ष्य पूरा कर, मानवता को प्रकाश दिखा, अपने धाम को लौट गए। ब्रह्म के लिए भी कोई सुख दुख होता है क्या? कोई सौभाग्य और दुर्भाग्य होता है? यह तो हमारी दृष्टि है, जो उनके जीवन में सुख और दुख देखती है। हमारा चिंतन है, जो उन्हें सुखी और दुखी मानता है। यह हमारी बौनी सोच है, जो श्रीराम के जीवन को भी सौभाग्य और दुर्भाग्य के तराज़ू में तौलती है। हम जो टीलों को ही पहाड़ मानते हैं, आकाश की ऊँचाई को कैसे नाप सकते हैं।

६ अक्तूबर २००८

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