अब तक संसार भर के कवियों ने
क्या नहीं कहा फिर भी कितने पल अनकहे रह जाते हैं। प्रार्थनाएँ
ऊपर उठती हैं। कई भक्त हुए। कई भोगी हुए। कई मुक्त हुए। मुक्ति
की तलाश में सब मोगरे के फूलों-सरीखा खिलना चाहते हैं। एक
प्यास भीतर-भीतर पलती रहती है। बुझी-अनबुझी प्यास लिए जीवन चल
रहा है।
मुक्ति की तलाश है। मुक्ति
अकेले ही होती है या मुक्ति समूह भाव है? जो कुछ भी वर्तमान
में देश-विदेश में विश्व संचालकों की हरकतों से घटित हो रहा
है, उसमें समूह का भाव चालाकी से भरा है। असल भाव तो व्यक्ति
की अपनी स्वार्थसिद्धि से ही जुड़ा है। सबके हित का तो कवच बना
रहता है। मुक्ति तो अपनी ही चाह रहा है। दूसरों की भलाई का
ढोंग है। अपनी ही बाटी के नीचे अंगारे सरकाने की कोशिशें
महामनाओं द्वारा होती रही हैं।
यह मनुष्य स्वभाव भी है। जब
वह उस प्रवृत्ति को धकिया कर बाहर आता है, तब ही कुछ बात बनती
है। नदी समुद्र तक जाते-जाते भी न जाने कितना क्यूबेक बाकी
किनारों की मिट्टी को सौंपती जाती है। उसके इस जल की मुक्ति का
सुफल ही लहलहाती फसलें और झूमते-गाते वृक्ष हैं। दीपक स्वयं
अपने लिए जलते हुए भी वह सिर्फ़ अपने लिए नहीं जलता है। अंगूठी
में जड़े हुए नगीने की चमक के संदर्भ तो खोजने होंगे। नगीने की
चमक की सार्थकता ही इसमें हैं कि उसके कारण हाथ की
सौन्दर्य-वृद्धि हो।
वास्तव में जिसमें चमक होती
है, वह अपने लिए चमकता ही नहीं। चमक तो उसका जीवन-धर्म है। वह
अपनी चमक के प्रति सतर्क और बेपरवाह जैसा कुछ नहीं होता। उसे
चमकना है। नदी को तो बहना ही है। दीप को जलना ही है। लेकिन
इनके सामाजिक और सन्दर्भ जब इनके संसर्ग से समृद्ध और मूल्यवान
बनते हैं तो विश्व की प्रत्येक वस्तु की आपसदारी रेखांकित होती
है। राजा का राजत्व बिना प्रजा के कुछ नहीं होता। जनता के हित
से भिन्न संदर्भों में न राजा की मुक्ति है और न ही राजतंत्र
की।
यहाँ कोई आध्यात्मिक चर्चा
नहीं की जा रही। आशय मोक्ष, स्वर्ग या अन्य किसी ऐसे लोक में
पहुँचने की लालसा से भी नहीं है। बात यह है कि कैसे हमारी
पारस्पारिकता महके। अकेला आदमी और अकेला तत्व कुछ नहीं होता।
ज्ञान की चरम अवस्था में अकेले होते जाने में भी अपने को सबमें
बाँटते हुए जाने का ही भाव है। और अन्त में कुछ न बचने की
स्थिति। अपने स्व को उसकी संपूर्णता में विसर्जन की अंतिम
परिणति ही मुक्ति की प्रतिमूर्ति है। सबको जान लेना है। सब कुछ
जान लेना है। अपने दायरों से ऊपर उठकर सबका हो जाना है। और फिर
किसी का नहीं होना है। अपना भी नहीं। सवाल यह है कि समाज सेवा
का ढिंढोरा पीटने वालों के पीछे क्या पुलिस लगी थी कि समाज
सेवा करो। तब यदि एक बार समाज सेवा के लिए निकले, तो फिर समाज
सेवा करो। समाज सेवा को ढाल बनाकर अपनी सेवा करना, सीधे-सीधे
प्रजातंत्र की हत्या है। हत्या के बाद हत्यारे के चेहरे पर
ज़रा-सा भी क्षोभ यदि नहीं उभरता है, तो वह जीवित जड़ है। उसके
साथ जनता की अदालत में सही-सही न्याय होना चाहिए। और न्याय तो
होता है। होटलों की चकाचौंध, शराब की बोतलों, पैसे की इतराहट
और दुर्गन्धमय जोड़-तोड़ की रेखाएँ बहुत जल्दी मिट जाती हैं।
अपनी ही मुक्ति की कामना में डाँगा-फाँसा करने वाला व्यक्ति
भौतिक ऐशगाह तो पा जाता है, पर नौबत बजती रहने वाले महलों पर
कौओं को बैठते देर नहीं लगती।
रामचरित मानस में पार्वती कथा
के आरंभ में शिव से नौ प्रश्न करती है। एक से आठ तक प्रश्न
रामराज्य से लेकर वनवास से वापसी और राज्याभिषेक से संबंधित
हैं। अंतिम प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण है। वह राजा की उस विराट
चेतना को उजागर करता है जो मुक्ति के सामूहिक भाव से जुड़ी है।
पुनि प्रभु कहहुँ कृपायतन,
कीन्ह जो अचरज राम!
प्रजा सहित रघुवंशमणि, किमि गवने निज धाम!!
इस दोहे से साफ़ संकेत है कि
राम अपने धाम को प्रजा सहित गए थे। राम ने अपना और सिर्फ़ अपने
लिए कुछ नहीं रखा। जनता के हित और उसके कल्याणार्थ ही राम का
सम्पूर्ण जीवन उत्सर्ग हो गया। मात्र जनहित का नारा या इस शब्द
का मात्र प्रयोग लोगों को कष्टों से मुक्ति नहीं दिला सकेगा।
कुछ शब्द इस देश के प्रजातंत्र में अपना अर्थ खो चुके हैं।
कभी-कभी तो लगता है कि शब्द की सत्ता ही अंतिम हो गई है। छाया
की तलाश में भटकने वाले कुछ लोग देखते-देखते कल्प-तरू बन गए
हैं। वे अपने ही जाये फलों को खा रहे हैं। यह कर्म समाज के एक
बड़े निकम्मे वर्ग को आकर्षित कर रहा है। भारतवर्ष के कटोरे
में दूध-मिश्री सरीखे समाज में बूँद-बूँद ज़हर डालने का काम कर
रहा है। वैभव और विलास के सजे पंडालों में बैठकर देश की
खुशहाली के कामना गीत गाने वालों की जमात पैदा हो रही है। समूह
का कल्याण, जनहित, प्रजातंत्र और स्वतंत्रता की पहली सुबह के
सपने काँच के गिलास में शरबत के माणिक भरे रखे हैं।
यह कैसे हो सकता है कि हम
जंगल में खड़े पेड़ को देखें और जंगल को न देखें। जंगल की पूरी
संकल्पना तो पेड़ में निहित है। यह संकल्पना जब तक फलीभूत होकर
जंगल का हरिताभ फैलाव नहीं बन जाती, तब तक पूरी धरती का मौसम
बदलता नहीं है। जड़ें भले ही न दिखें, पर पत्तियों के हरेपन का
जड़ों से सीधा रिश्ता है। पत्तियाँ विकास की सीढियाँ हैं। पर
वे ही सब कुछ नहीं हैं। इसलिए अकेला पेड़ अपने में पूरा जंगल
छुपाए हुए हैं। उसमें दुनिया को जंगलों से आच्छादित करने की
अपरिमेय संभावनाएँ हैं। पर पेड़ अपनी विस्तारवादी प्रक्रिया
में जंगल का ही एक हिस्सा है। एक इकाई है। पेड़ की सुरक्षा और
उसकी व्यापक संदर्भों में मुक्ति जंगल से ही है। वृक्ष का वन
होना ही भाव का महाभाव बन जाना है। बूँद ही समुद्र का
संभावनामय संकल्प है। लघु मानव में ही महामानव और आक्षितिज
फैले मानव समुदाय की विकास-प्रकल्पना निहित है।
मुक्ति और स्वतंत्रता में
फ़र्क है। यह फर्क उतना ही गहरा और व्यापक है जितना परम्परा और
इतिहास में अन्तर है। स्वतंत्रता यदि मूल्य हैं, तो मुक्ति
स्वभाव। स्वतंत्रता बाहरी प्रक्रिया है, मुक्ति भीतरी। बाहरी
बंधनों और दबावों से रहित स्थिति स्वतंत्रता हो सकती है, लेकिन
मुक्ति नहीं। मुक्ति का सीधा संबंध मन की और आत्मा की दशा से
है। एक व्यक्ति जंगल में भी मुक्त नहीं है और एक है कि सबके
बीच भरे संसार में भी मुक्त है। स्वतंत्रता भौतिक है। मुक्ति
आत्मिक है। आत्मा की मुक्तावस्था और महाभाव की दशा में भौतिक
एवं तथाकथित स्वतंत्रता का अतिक्रमण हो जाता है। नर्मदा का
उद्गम सजल है। वह बांधों को और पर्वतों की बाधाओं को पार करती
है, तो वह स्वतंत्र हो बहती जाती है। बढ़ती जाती है। लेकिन
जैसे ही वह समुद्र हो जाती है, तो वह मुक्त हो जाती है।
वह न नर्मदा रहती है, न नदी,
न माँ और न ही अन्य कुछ। वह जल की अपरिमिति हो जाती है। समुद्र
तो संज्ञा भर है, उसके विस्तार के माप का फिर कोई पैमाना नहीं
बचता। वह जल तत्व की लघुता और विशालता का अभेद निस्सीम हो जाती
है। यही मुक्ति है। काव्य की दो पंक्तियाँ और हैं--
मुक्ति कहे गोपाल से, मेरी
मुक्ति बताय!
ब्रज रज उड़ि सिर पर पड़ै, मुक्ति, मुक्ति होई जाय!!
ब्रज की रज यदि सिर पर पड़
जाए; तो मुक्ति की भी मुक्ति हो जाए। ब्रज की भूमि का यहाँ
अभिधा अर्थ ही पर्याप्त नहीं होगा। व्यंजना इसमें पूरे ब्रजभाव
के साथ कृष्णमय हो जाने की है। सामान्य जन को मस्तक पर बैठाने
का सद्प्रयत्न है। एक स्थिति में कृष्णा को पाने की इच्छा भी
खत्म हो जाती है। केवल कृष्ण भाव शेष रह जाता है। जो सबमें
होकर भी, सबसे न्यारा है। सबका होकर भी किसी का नहीं है।
वृन्दावनी भूमि की तलाश ही महाभाव हो जाने का सुप्रयास है। यह
महाभाव केवल 'कामन मैन' को दूर से देखते हुए उसकी बेहतरी की
बात करने से नहीं आता, बल्कि सामान्य जन के साथ उसके संघर्ष और
जूझ में प्रबल जिजीविषा के साथ निरंतर खड़े होकर साथ चलने से
आता है। बिना लाभ-हानि का हिसाब लगाए फसल उगाने से आता है। एक
बीज असंख्य बीजों की परिणति की हुमस में अंकुरित होता है और
खत्म हो जाता है। मुक्ति तो यह है।
नव उपभोक्ता संस्कृति ने पूरे
विश्व को खोखला यथार्थवादी सोच दिया। सांस्कृतिक उपनिवेशवाद ने
तो हद ही कर दी। यह सांस्कृतिक उपनिवेशवाद बड़े राष्ट्रों और
छोटे राष्ट्रों, धनी राष्ट्रों और गरीब राष्ट्रों एवं विकसित
राष्ट्रों और विकासशील राष्ट्रों के बीच में ही रखा तरबूज नहीं
है, बल्कि यह एक राष्ट्र और समाज के भीतर पनपता नया
स्वकेन्द्रित यथार्थ भी है। मनुष्य की अंजुरी में सहेजे भाव,
मुट्ठी भर राख हो गए। कोई आदर्श सुरक्षित नहीं बचा। स्वार्थ के
बेखौफ बौखलाएपन ने संबंधों, मूल्यों और संवेदनाओं की जड़ों में
अंगारे दाब दिए। पहले के समाज में स्वार्थ न रहा हो, उपभोक्ता
न रहा हो, ऐसी बात नहीं है। पर वे लोग मनुष्य पहले थे,
उपभोक्ता बाद में। खाते समय कोई आ जाए और घर में यदि और भोजन न
हो तो अपनी थाली में से ही थोड़ा-सा उस भूखे को देने की बात
कही गई है। पुराने समय में लोग ऐसा करते भी रहे हैं। इसे
नैतिकता भले ही कहें, पहले तो यह मनुष्यता ही है। मनुष्य के
सौन्दर्य-बोध और संवेदना का परिष्कार और विस्तार तो होना ही
चाहिए। अपनी ज़रूरतों के साथ दूसरों की ज़रूरतों का ध्यान और
उनकी पूर्ति में समान और सम भाव भी व्यक्ति को एक तरह से
संसारी-सन्यासी ही बनाता है। संकीर्णता, तुच्छता, ढोंग और
डायनपने से बाहर निकलकर मानवता की उच्चतर ज़मीन पाना, मुक्ति
की रातरानी के देश में पहुँच जाना है। बुद्ध, कबीर और गाँधी
पहुँच सके थे।
बगीचे में लगी हुई लता बड़ी
होकर यदि खिड़की में से कमरे में झाँकने लगती है, तो हमारा मन
फिर खिड़की को बन्द करने के लिए मना करता है। आँखें तब लता पर
से होती हुई, बगीचे में चली जाती हैं। बगीचे की हरियाली में हम
अजीब गतिशील ठहराव पाते हैं। कुछ संदेश भी सुनते हैं और फिर
पंख लग जाते हैं हमारी दृष्टि में। हम बगीचे से निकलकर जंगलों,
पहाड़ों तक पहुँच जाते हैं -- जहाँ पेड़ आपस में लड़ते नहीं
हैं। अपने स्वतंत्र अस्तित्व के साथ ही अपनी दहाइयों से
वन-वनान्त सिरज रहे हैं। जहाँ पक्षी हैं। पशु हैं। बहती नदी
हैं। गिरता, उछलता आगे बढ़ता झरना है। हँसते फूल हैं। बहती हवा
है। निर्द्वन्द्व मौसम है। जहाँ असंख्य-असंख्य जीव-जन्तु
प्रकृति के साथ प्रकृतिभाव से उन्मुक्त विहार कर रहे हैं। बस,
खिड़की खुली रखना है। |