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खामोशी
की तो वहाँ जगह ही नहीं होती। समंदर के तट पर हलचल की क्या कभी कमी
होती है? कुछ
बच्चे जमा होकर शोर मचा रहे हैं। जब लहरें पीछे जाती हैं तो, बच्चे
आगे बढ़ते हैं और जब लहरें आगे बढ़ती हैं, तो बच्चे पीछे। पास में एक
छोटी लड़की को उसका पिता समंदर की ओर ले जाना चाहता है, पर वह डरती
है और पापा को भी पीछे खींचती है। ''कुछ नहीं होगा बेटा, मैं हूँ
ना...'' कहते हुए बाप बेटी को दिलासा दे रहा है।
पीछे अलग-अलग खाद्य पदार्थ बेचनेवालों का हंगामा...पाव-भाजी, मसाला
पूरी, भुट्टा आदि। सारे तट पर शोरगुल, चीख़ें, शोरगुल। मुझे ये सब
सुनाई नहीं देते। खामोशी...सब जगह घनघोर सन्नाटा। जैसे सामने एक मौन
चलचित्र को देख रहा हूँ, टी.वी. की आवाज़ बंद करके सिनेमा देख रहा
हूँ। खामोशी... कहीं कोई आवाज़ नहीं...।
ऊँचा सुनने वालों को तो ज़ोर
से बोलने पर सुनाई दे जाता है, लेकिन पिछले कुछ दिनों से
मेरी सुनने की शक्ति घटती जा रही है। मैं सन्नाटे में जी रहा
हूँ। कान की मशीन का भी कुछ फ़ायदा नही है। बेटे से कहा,
''बच्चू, आजकल बिलकुल सुनाई नहीं देता।'' उस के बोलने से मैंने
अंदाज़ लगाया, ''आप को तो पहले से ही ऊँचा सुनाई देता है, तो
फिर मशीन क्यों निकाल देते हैं? उसे लगाकर रहिए।'' |