''नहीं बेटा, मशीन को लगाने पर
भी कुछ सुनाई नहीं देता।'' मैंने कहा।
उसने इशारे से बात की। उसके इशारे का अर्थ है- ''अच्छा डाक्टर
साब के पास जाएँगे।''
दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन उसे समय नहीं मिला। बीच में और एक
बार याद दिलाया। उसने सर हिलाया। वह नहीं समझेगा कि एक
सेवानिवृत्त आदमी के लिए बहरापन कितना नारकीय होता है। एक बार
बहू को भी बताया। बहू तो इसे समस्या तक नहीं मानती। ''अब आप को
सुनाई नहीं देता तो क्या हुआ?'' - शायद यही वह मन में सोच रही
होगी।मेरी पत्नी मेरी
बेटी के घर में रहती है। बेटी और दामाद दोनों काम करते हैं।
दामाद की माँ नहीं रही। मेरी पत्नी उनके कामकाज में मदद करने
के लिए वहाँ चली गई है। उसे एक खत लिखना है, क्यों कि फोन पर
बातचीत नहीं हो सकती। उसे बताने से कुछ लाभ तो नहीं, फिर भी एक
ढाढ़स...
समंदर के तट पर लोगों की
संख्या कम होती जा रही है। धीरे-धीरे रोशनी भी घट रही है। घर
की ओर चलने लगा। आते जाते वाहन को सावधानी से देखता हुआ चल रहा
हूँ। पीछे वाले वाहन की आवाज़ को मैं सुन नहीं सकता।
आहिस्ता-आहिस्ता घर पहुँचा तो मैंने देखा कि पोता और पोती आपस
में झगड़ रहे हैं। बहू उन्हें समझाने की कोशिश कर रही है। पहले
उनके लड़ाई का कारण जानकर, उसे दूर करता था। अब तो ऐसा नहीं कर
सकता ना, ''बेटे लड़ना नहीं'' कह कर चुप हो गया।
साढ़े सात होते ही घरवाले
टी.वी. के सामने बैठ गए। मुझे धारावाहिक अच्छे नहीं लगते।
लेकिन बहू तो कुछ धारावाहिक छोड़ती ही नहीं। जब वह सीरियल
देखती है, तो कोई चैनल बदलने की कोशिश नहीं करता। बच्चे भी जब
उनकी माँ नहीं होती तभी कार्टून नेटवर्क देखते हैं। मेरा बेटा
इस वक्त भी कुछ फ़ाइलें देख रहा है।
मैं वहीं दलान में बैठकर
मार्क ट्वेन की 'हकलबेरी फिन' पढ़ने लगा। मुझे यह किताब बहुत
पसंद है। वास्तव में यह पुस्तक बच्चों के लिए है। मैं तो बचपन
से अब तक अनेक बार पढ़ चुका हूँ। ठीक तो है - बच्चे और बूढ़े
एक से है ना। इसीलिए आज भी यह किताब पढ़ने को मन करता है। पास
में दोनों बच्चे बहस कर रहे हैं, फिर भी बातें तो मेरी कानों
में घुसती नहीं, इसलिए आराम से पढ़ रहा हूँ।
लगता है बहरेपन के भी कुछ लाभ
हैं। लेकिन मेरी पसंद के गाने वॉकमैन में सुन नहीं पाना मेरे
लिए बड़ी कमी है। रात में जब चारपाई पर लेटता हूँ, तब मन में
बहुत सारी चिंताएँ घेर लेती हैं। क्या इस उम्र मे चिंताएँ बढ़
जाती हैं? नहीं तो क्या इस बहरेपन के कारण अन्य शब्द मेरे
ध्यान को नहीं फेर पाते उसकी वजह से मैं ज़्यादा चिंतित हूँ?
ना घड़ी की टिक टिक, ना पंखे
की ध्वनि, कोई नहीं है। खामोशी में सिर्फ़ चिंताएँ शोरगुल
मचाती हैं। पहले जब बिजली बंद होती थी और अकस्मात नींद उड़
जाती थी तब भी तो, पंखे का शब्द नहीं होता था। वह सुनसान-सा
बड़ा अजीब लगता था। अब आदत बन गई है क्यों कि आजकल सब कुछ मौन
ही मौन है।
कुछ दिन पहले एक कहानी पढ़ी।
लेखक बताता है कि दिनभर में लोगों को ज़रूरत न होने वाले अनेक
शब्द, बातचीत... वगैरह सुनने पड़ते हैं, जिससे उन्हें कष्ट
सहना पड़ता है। जैसे आँखों के लिए पलक हैं, वैसे ही कानों के
लिए भी पलक होने चाहिए ताकि लोग अवांछित गड़बड़ी से बच सकें।
क्या भगवान ने मुझे न खुलने
वाले पलकें दी हैं? मैं हँसने लगा। आखिर बहरेपन के क्या क्या
लाभ हैं? सोचने लगा - चारों ओर कितना भी शोरगुल हो, बिना घबराए
किताब पढ़ सकता हूँ। किसी से विवाद नहीं होता। अगर किसी ने
मुझे डांटा, तो भी मुझे सुनाई नहीं देता। पंखे का शब्द, दूसरों
के खर्राटे से मुझे कोई दिक्कत नहीं। सुबह-सुबह घर में कितनी
ही आवाज़ें हों, फिर भी मुझे कोई परेशानी नहीं। नज़दीक में कोई
माइक लगाकर हंगामा करे फिर भी मुझे फिक्र नहीं। दीवाली के अवसर
पर बंब फोड़ते समय मैं पास से बिना डरे गुज़र सकता हूँ। और
क्या है? सोचता हूँ तो सारे लाभ याद आते हैं।
एक हफ्ता बीत गया। बेटे को और
एक बार अपनी समस्या के विषय में याद दिलाया। उसने इशारा किया,
''मैं पूछताछ कर रहा हूँ।'' अचानक एक दिन मेरा बेटा मुझे इ.
एन. टी. डाक्टर के पास ले गया। मुझ पर कुछ परीक्षाएँ करने के
बाद बेटे से उनकी कुछ बातचीत हुई। उनके हाव-भाव से मैं कुछ समझ
गया। डाक्टर साब कहते होंगे कि मुझे 'आपरेशन' करवाना होगा।
बाहर आने के बाद, पुत्र से पूछा, ''क्या शल्यचिकित्सा की
ज़रूरत है? बेटे ने सकारात्मक सर हिलाया।
''कितने रुपए होंगे?''
पुत्र ने उत्तर नहीं दिया। रात में फिर पूछा कि ऑपरेशन के लिए
कितने रुपए चाहिए। बेटे ने तीन उँगलियाँ दिखाई।
''तीन हज़ार?''
उस ने नकारात्मक सर हिलाया और '३०' लिख दिया। |